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बड़ागांव से समीकृत किया गया है । पर्वतीय क्षेत्र को आदिपुराणकार ने
श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ परियात्र अथवा दशार्ण के इसी कूटाद्रि कहा है, जो आज भी कूटाद्रि अथवा कोटि पहाड़ के नाम से विख्यात है । बोधप्राभृत की टीका में आचार्य श्रुतसागर ने द्रोणागिरि कुंथूगिरि के निकट "कोटिशिलागिरि" का उल्लेख किया है तथा 'तीर्थाटन चन्द्रिका' में यह स्थान ' सिद्धाद्विकूटक' कहा गया है । द्रोणीगिरि निःसन्देह वर्तमान द्रोणगिरि सिद्ध क्षेत्र है, जो कोटि पहाड़ अथवा कोटिशिलागिरि के निकट अवस्थित है । संस्कृत निर्वाणभक्ति के आचार्य ने 'विन्ध्ये' पद द्वारा इन तीर्थों की वन्दना की है । आचार्य मदनकीर्ति ने कहा है कि विन्ध्य पर्वत के वे इन्द्रपूजित जिन भवन आज भी सम्यग्दृष्टि जनों को प्रत्यक्ष की भाँति प्रतिभासित होते हैं ।
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अंततः कोटि पहाड़ पर 'टाठीबेर' की गरिमापूर्ण उपस्थिति का रहस्योद्घाटन आवश्यक है । 'टाठी' शब्द बुन्देली में पात्र या वर्तन का पर्याय है तथा 'बेर' संज्ञा एक वृक्ष तथा उसके पात्र विशेष को सूचित करती है । लोक व्युत्पत्ति के अनुसार 'टाठीबेर' वह स्थल है जहाँ पात्र अथवा वर्तन रूपी पात्र देने वाला वृक्ष अवस्थित है । आज इस स्थल पर एक भग्न बावड़ी है, जिसके सम्बन्ध में यह लोक"विश्वास जीवित है कि विवाहादि के समय वह अपने भक्तों को मनवांछित बर्तन या भाजन उपलब्ध कराती है । इसीलिये स्थानीय परम्परा में उसे आज 'थाली बावड़ी' कहते हैं । कहा नहीं जा सकता कि 'बेर' वृक्ष ने कब अपनी सम्मान रक्षा के लिये इस पर्वतीय बावड़ी का बाना धारण कर लिया, किन्तु जम्बुछीवपण्णत्ती के साक्ष्य पर कल्पवृक्ष -युक्त पर्वत की धारणा से अवश्य हम अवगत होते हैं । इन कल्पवृक्षों की एक श्रेणी 'भाजनांग' कही गई है, जो याचक को मनवांछित भाजन प्रदान करती थी । 'टाठीबेर' क्या 'भाजनांग कल्पवृक्ष' का बुन्देली अवशेष नहीं है ? भाजनफलदाता वृक्ष को पौराणिक शब्दावली में 'भाजनांग कल्पवृक्ष' की ही संज्ञा दी जा सकती है । कोटिपहाड़ पर टाठींबेर की उपस्थिति का शास्त्रीय अर्थ है कोटिशिला पर कल्पवृक्ष की उपस्थिति । आचार्य जिनप्रभसूरि ने कदाचित् - इसीलिये महातीर्थ कोटिशिला को शाश्वत सिद्धिक्षेत्र की गरिमा से विभूषित किया था ।
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