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________________ पंचपरमेष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व और दशवैकालिक किया है । पुण्य-पापादि के ज्ञान से शाश्वत सिद्धत्व तक की श्रेणी का आरोहण किस प्रकार होता है ? इसका भी उल्लेख किया गया है ।" 'पंचपरमेष्ठि' मन्त्र के तृतीय पद 'नमो आयरियाणं' के आचार्य पद का निरूपण इस प्रकार किया गया है - 'ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, आगम-संपदा से युक्त गणिवर्य (आचार्य) हैं । ' आचार्य की महिमा बतायी गई है— 'जैसे रात्रि के अत ( दिवस के प्रारंभ ) में प्रदीप्त होता हुआ ( जाज्वल्यमान ) सूर्य ( अपनी किरणों से ) सम्पूर्ण भारत ( भरत क्षेत्र ) को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आचार्य श्रुत, शील, प्रज्ञा से ( विश्व के समस्त जड़-चैतन्य पदार्थों के ) भावों को प्रकाशित करते हैं । जैसे देवों के मध्य इंद्र सुशोभित होता है वैसे ही आचार्य भी साधुओं के मध्य में सुशोभित होते हैं -- 'मेघों से युक्त अत्यन्त निर्मल आकाश में कौमुदी के योग से युक्त नक्षत्र और तारागण से परिवृत्त चंद्रमा सुशोभित होता है उसी भाँति गणि (आचार्य) भी भिक्षुओं के बीच सुशोभित होते हैं ।'‍ आचार्य की आराधना तथा आराधना से प्राप्त फल का उल्लेख इस प्रकार है- 'अनुत्तर ( सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि ) गुणरत्नों की सम्प्राप्ति का इच्छुक तथा धर्मकामी ( निर्जरा-धर्माभिलाषी ) साधु ( ज्ञानादि रत्नों के ) महान् आकर ( खान ) समाधियोग तथा श्रुत, शील और प्रज्ञा से सम्पन्न महर्षि आचार्यों की आराधना करे तथा उनको (विनय भक्ति से सदा ) प्रसन्न रखे । मेधावी साधु ( पूर्वोक्त ) सुभाषित वचनों को सुनकर अप्रमत्त रहता हुआ आचार्य की सुश्रूषा करें। इस प्रकार वह अनेक गुणों की आराधना करके अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त करता है ।' जिस प्रकार अहिताग्नि ( अग्निहोत्री ब्राह्मण ) अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जागृत रहता है उसी प्रकार जो आचार्य की शुश्रूषा में जागृत रहता है, उनके आलोकित एवं इंगित ( दृष्टि एवं चेष्टा ) को १. दश० ३।३९-४८ २. वही, ६०१ ३. वही ९।१।१४-१५ ४. वही, ९।१।१६ ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525007
Book TitleSramana 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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