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श्रमण, जुलाई-सितम्बर १९९१ जानकर उनके अभिप्राय की आराधना करता है वही पूज्य होता है । " आचार्य सम्मत गुणों का भी अनुपालन करना चाहिये ।
अल्पवयस्क आचार्य की अवहेलना के परिणाम कैसे भयंकर होते हैं, इसका सोदाहरण कथन है : 'जो कोई सर्प को छोटा बच्चा है' जानकर उसकी आशातना ( कदर्थना ) करता है, वह ( सर्प ) उसके अहित के लिए होता है । इसी प्रकार ( अल्पवयस्क ) आचार्य की अवहेलना करने वाला मंदबुद्धि भी संसार में जन्म-मरण के पथ पर गमन ( परिभ्रमण ) करता है ।' ३ ' अत्यन्त क्रुद्ध आशीविष सर्प तो जीवन नाश से अधिक क्या कर सकता है ? परन्तु अप्रसन्न हुए पूज्यपाद आचार्य तो अबोधि के कारण बनते हैं ( जिससे आचार्य की ) आशातना से मोक्ष नहीं है । '४ 'कदाचित् वह प्रचण्ड अग्नि उसे न जलाए अथवा कुपित आशीविष सर्प भी उसे न उसे, हलाहल विष भक्षण से भी न मरे, किन्तु आचार्यहीलना (आचार्य निन्दा) से कदापि मोक्ष संभव नहीं है ।
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आचार्य की भांति उपाध्याय भी पूज्य हैं, समतुल्य हैं । उपाध्याय का विनय, सेवा, आज्ञापालन, आचार्य के अनुरूप करना चाहिये, इसका स्पष्ट कथन है । जो साधक आचार्य और उपाध्याय की सेवा शुश्रूषा करते हैं, उनके वचनों का पालन करते हैं, उनकी शिक्षा भी उसी प्रकार बढ़ती है, जिस प्रकार जल से सींचे हुए वृक्ष बढ़ते हैं।
आचार प्रधान ग्रन्थ होने से इस सूत्र में साध्वाचार का ही वर्णन है । समग्र ग्रन्थ रचना ही साधुत्व को लक्ष्य में रखकर की गई है । क्योंकि अध्यात्म विकास का प्रथम सोपान ही संयमी जीवन है, अतः श्रमणत्व ही इस ग्रन्थ का केन्द्र बिन्दु है । संयत, मुनि, भिक्षु, श्रमण, त्यागी ये सब साधु की ही पर्यायें हैं । किंतु पंच पदों में साधु-शब्द होने
१. दशवैकालिक ९।३·१, ९।१·११
२. वही, ८६०
३. वही, ९।१।४
४. वही, ९1१1५, ९1१1१० ५. वही, ९।१।६
६. वही, ९।२।१२, ९।२।१६
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