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जैनसम्मत आत्मस्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन
-डॉ० (श्रीमती) कमला पंत
आत्मज्ञान जीवन और दर्शन का आधार है । आत्मा के बिना ये दोनों ही निष्प्राण हो जाते हैं। मनु के शब्दों में " आत्मज्ञान श्रेष्ठ ज्ञान, प्रथम विद्या एवं अमृत ( जन्म-मरण चक्र से छूटना ) है । " आत्मा के विषय में समग्र भारतीय दार्शनिक एकमत हैं, किन्तु आत्म स्वरूप को सभी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है ।
चार्वाक देह, इन्द्रिय, प्राण अथवा मन को आत्मा मानते हुए अपनी भौतिकवादी दृष्टि का परिचय देते हैं । बौद्धों के अनुसार जीवात्मा पञ्चस्कन्धात्मक, विज्ञान प्रवाहरूप, क्षणिक, शून्य एवं अपरिमाणी होता है ।' न्याय, वैशेषिक, मीमांसक एवं जैन आत्मा को नित्य द्रव्य मानते हैं किन्तु ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण या नित्य गुण मानने के विषय में जैन दर्शन का न्यायादि से पृथक् विचार है । सांख्य, ५ योग एवं अद्वैत वेदान्त आत्मा को ज्ञानस्वरूप कहते हैं । द्वैत वेदान्ती, विशिष्टाद्वैतवादी, नैयायिक एवं वैशेषिक ज्ञान को आत्मा का
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१. मनुस्मृति, १२८५
२. द्रष्टव्य- वेदान्तसार ( आत्मा सम्बन्धी मत ) इन मतों के निरास हेतु द्रष्टव्य-न्यायमञ्जरी, द्वितीय भाग तथा न्यायकुसुमाञ्जलि १।१५ ३. सर्वदर्शन संग्रह, कारिका २३ एवं लंकावतार सूत्र, २।९९-१०० ४. वैशेषिकसूत्र १।१।५ एवं मानमेयनेदय, द्रव्य प्रकरण पृ० १५१
५.
आत्मनो ज्ञानस्वरूपत्वम् । – योगवार्तिक, पृ० २१४ एवं सांख्यकारिका,
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११, १७
६. (क) विज्ञानमानन्दं ब्रह्म । - बृहदारण्यकोपनिषद्, ३।९।२८
(ख) तैत्तिरीयोपनिषद्, २४, ३-६
शोधछात्रा (संस्कृत विभाग), कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल (उ.प्र.)
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