SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ कभी शुक का रूप दिखाता हुआ कहने लगा-मैं चातक तुम चातकी हो, लज्जा का जल बीच में बाधक है। सहेली ने चमककर वचनों से निश्चय किया कि लक्षण और गुणों से यही पुरुषरत्न शुकराज है। उसने आम्रमंजरी प्रभावित सुस्वर कोकिला की भाँति वचनचातुरी से मुग्ध कर शुकराज को अपना वृतान्त सुनाने के लिये बाध्य किया तो उसने कहा- तुम्हारे लिये मैं अपनी वल्लभा सोहगसून्दरी और राज्य को त्यागकर यहाँ आया। शुक के रूप में मैं राजकुमार हूँ। तुम्हें पाकर मैं सफल हुआ, तुम्हारे सभी मनोवांछित पूर्ण करूँगा। __ इसके अनन्तर शुक पुरुषरूप प्रकट करने का प्रयत्न करने लगा परन्तु वह किसी भी प्रकार अपने प्रकृत रूप में न आ सका तो विषाद के मारे हास्य विनोद त्यागकर खिन्न चित्त हो गया। उसकी दशा डालचूके बन्दर की भाँति थी, उसकी सारी आशाएँ कुएँ की छाँट की भाँति मन ही मन रह गई। सहेली ने कहा-तुम दुःख के मारे नींद व आहार का त्यागकर प्राण मत गँवाओ। मैं तुम्हारी भक्ति करूँगी, मैं मानवी और तुम पक्षी रूप हो और क्या किया जाय । तुम तो देशविदेश उड़कर नये-नये फलों का रस चखोगे, पर मुझे तो घर में ही पड़े रहना है। तुम किस प्रकार अनमने हो ? क्या माता-पिता, घर या पत्नी की याद आ गई ? मुझे तुम्हारे यहाँ से चम्पत होने के आसार लगते हैं पर यह समझ लेना कि मेरा जीवन तुम्हारे साथ है। तुम मुझे अपनी विद्या सिखा दो ताकि मैं भी शुकी बनकर तुम्हारे साथ भ्रमण करने का आनन्द ले सकूँ अन्यथा तुम्हारा वियोग मुझे असह्य होगा। शुक ने सहेली से कहा- तुम्हारा कोई दोष नहीं, वास्तव में रहस्य की बात यह है कि मेरी सौन्दर्यवती स्त्री ने कार्मण करके श्राप दिया है । अब मुझे पक्षी रूप से पुनः नर देह मिलना कठिन हो गया। मुझे इसी बात का दुःख है। मेरी समस्त आशालताओं पर तुषारापात हो गया। अब मुझे अहर्निश यही चिन्ता सताती है उसी दैव का दोष है, जिसने समुद्र का जल खारा कर दिया, पद्मनाल में कण्टक, हिमालय में हिम, चन्द्र में कलंक और पण्डितों को निर्धन कर दिया। (यहाँ कवि ने गद्द कवि के दैव सम्बन्धी दो कवित्त उद्धत किये हैं, जिनका पद्यांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525007
Book TitleSramana 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy