________________
३८
श्रमण , जुलाई-सितम्बर, १९९१ नुज एवं मध्व सम्प्रदाय वाले उसे सत्य होने पर भी नैमित्तिक मानते हैं स्वाभाविक नहीं। सांख्य एवं योग के मतानुसार प्रकृति में वास्तविक कर्तृत्व होने पर भी प्रकृति के संयोग से जीवात्मा में कर्ता होने की प्रतीति होती है अर्थात् आत्मा कर्ता नहीं है। जिस रूप में जीवात्मा कर्ता है उसी रूप में भोक्ता भी है। अद्वैत वेदान्ती कुछ उपाधियों के कारण आत्मा में कर्तृत्व की मिथ्या प्रतीति मानते हैं। जैनों के मत में आत्मा स्वयं कर्ता और भोक्ता है। सांख्य, योग और अद्वैत वेदान्त जीव का कर्तृत्व और भोक्तृत्व मिथ्या मानते हैं एवं न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा में जैनों की तरह आत्मा का कर्ता एवं भोक्ता होना सत्य माना गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार आत्मा को यथार्थतः कर्ता और भोक्ता स्वीकार करने से यह उच्चस्तरीय न होकर भौतिक स्तर पर ही रह जाता है। वस्तुतः निश्चयनय से जीव द्रव्य मात्र शुद्ध चैतन्य ( ज्योति मात्र ) है। व्यवहार नय से उसका कर्ता एवं भोक्ता होना यथार्थ है।
जैन दार्शनिक यथार्थ को अनदेखा नहीं करते क्योंकि संसार में सजीव देह ही कर्ता और भोक्ता दिखाई देता है एवं जड़ देह में चैतन्य सर्वानुभूत है। अतः जैनसम्मत जीव द्रव्य को एकान्ततः भौतिक स्तरीय कहना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है क्योंकि निश्चयनय की दृष्टि से शुद्ध चैतन्य रूप जीव शांकरवेदान्त के ब्रह्म की तरह अकर्ता, अभोक्ता एवं सच्चिदानंद रूप ही है । ____ आत्मा के परिमाण की दार्शनिकों ने विभिन्न कल्पनायें की हैं। बौद्धों के अनुसार विज्ञान प्रवाह होने से आत्मा का कोई परिमाण नहीं होता है । न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग एवं अद्वैत वेदान्त जीवात्मा को 'विभु' कहते हैं । इसके विपरीत रामानुज, मध्व और वल्लभ सम्प्रदाय
१. भारतीय दर्शन, उमेश मिश्र, पृ० १३२ २. प्रवचनसार, ११५३, ५४, ६१, ६८, २०३० ३. (क) भाषा परिच्छेद, प्रत्यक्ष खण्ड, कारिका-२६, तर्कसंग्रह (अन्नंभट्ट
पाद) पृ० १० (ख) वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली, श्लोक-२२ (ग) ब्रह्मसूत्र भाष्य, १।२।१ (भेदाभेदवादी)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org