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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ माना है। भरहुत के स्तूप के पूर्वी तोरण पर 'वाच्छिपुत्त धनभूति का उल्लेख है।' पुनः अभिलेखों में 'सुगनं रजे' ऐसा उल्लेख होने से शुग काल में इसका होना सुनिश्चित है । अतः उच्चैर्नागर शाखा का स्थापना काल (लगभग ई०पू० प्रथम शती) और इस नगर का सत्ताकाल समान ही है। अतः इसे उच्चै गर शाखा का उत्पत्ति स्थल मानने में काल की दृष्टि से कोई बाधा नहीं है। ऊँचेहरा (उच्चकल्पनगर) एक प्राचीन नगर था इसमें अब कोई संदेह नहीं रह जाता है। यह नगर वैशाली या पाटलिपुत्र से वाराणसी होकर भरुकच्छ को जाने वाले अथवा श्रावस्ती से कौशाम्बी होकर विदिशा, उज्जयिनी और भरुकच्छ जाने वाले मार्ग में स्थित है। इसी प्रकार वैशाली-पाटलिपुत्र से पद्मावती (पँवाया), गोपाद्रि (ग्वालियर) होता हुआ मथुरा जाने वाले मार्ग पर भी इसकी अवस्थिति थी। उस समय पाटलीपुत्र से गंगा और यमुनाके दक्षिण से होकर जाने वाला मार्ग ही अधिक प्रचलित था क्योंकि इसमें बड़ी नदियाँ नहीं आती थीं, मार्ग पहाड़ी होने से कीचड़ आदि भी अधिक नहीं होता था । जैन साधु प्रायः यही मार्ग अपनाते थे।
प्राचीन यात्रा मार्गों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि ऊँचानगर की अवस्थिति एक प्रमुख केन्द्र के रूप में थी। यहां से कौशाम्बी प्रयाग, वाराणसी, पाटलिपुत्र, विदिशा, मथुरा आदि सभी ओर मार्ग जाते थे। पाटलिपुत्र से गंगा-यमुना आदि बड़ी नदियों को बिना पार किये जो प्राचीन स्थल मार्ग था उसके केन्द्र नगर के रूप में उच्चकल्प नगर (ऊँचानगर) की स्थिति सिद्ध होती है। यह एक ऐसा मार्ग था जिसमें कहीं भी कोई बड़ी नदी नहीं आती थी। अतः सार्थ निरापद समझकर इसे ही अपनाते थे। प्राचीन काल से आज तक यह नगर धातुओं के मिश्रण के बर्तनों हेतु प्रसिद्ध रहा है। आज भी वहाँ कांसे के बर्तन सर्वाधिक मात्रा में बनते हैं। ऊँचेहरा का उच्चैर् शब्द से जो ध्वनि-साम्य है वह भी हमें इसी निष्कर्ष के लिए बाध्य करता है कि उच्चैर्नागर शाखा की उत्पत्ति इसी क्षेत्र से हुई थी। उमास्वाति का जन्म स्थान नागोद (म०प्र०)
उमास्वाति ने अपना जन्म स्थान न्यग्रोधिका बताया है। इस १. भरहुत (डॉ० रमानाथ मिश्र), प्रकाशनम० प्र० हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,
भोपाल, (म० प्र०) भूमिका पृ० १८ २. वही, पृ० १८-१९
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