________________
श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ नवसर हार पालिपदकड़ी,
कर कंकण नेऊर सुंपड़ी ।। ५२॥ भवरंगित चूड़ी झलकति,
कटि मेखला झंझर झप्रकति । विदि व्यख्यणि ते नारी कथा,
किहि सलोक सुभाषित तथा ।। ५३ ॥ गाहा भेद सारिते कहि,
पुछया नु वलि उत्तर कहि । पिंगल भरह सुकर पल्लवी,
गुण सगित कि सरसती नवी ॥ ५४॥ इस प्रकार सहेली के रूप गुण की प्रशंसा से शुकराज कुमार का चित आन्दोलित हो उठा और वह उससे मिलने एवं पाणिग्रहण करने के लिये कृतसंकल्प होकर घर से निकल पड़ा। विद्याधर तो था ही, जब चाहे जैसा रूप धारण कर सकता था। उसने अपने नाम के अनुसार शक का रूप धारण कर लिया और उड़ता हआ उज्जयनी नगरी आ पहुंचा।
जब शुक राजकुमारी के महलों पर उड़ता हुआ चक्कर लगा रहा था तो राजकुमारी की बाँयी आंख फड़कने लगी। शुक के रूप में शुकराज गाथा समस्या बोलता हुआ उसके निकट आ उतरा। सखते हए खेत में जैसे अकाल वर्षा हो जाए और प्यासे को पानी मिल जाए, उसी प्रकार राजकुमारी हर्ष से पुलकित हो गई। उसने मानव भाषा में बोलने वाले विलक्षण शुक से उसका परिचय पूछा। उसने अपना परिचय यों दिया :
विद्याधरों में ( वैताढ्य पर्वत पर ) दक्षिण श्रेणि में राजकुमार शुकराज रहता है जो अत्यन्त भोगी भ्रमर है वह शुक के रूप में क्रीड़ा कौतूहल करता है। उसी मधुर-भाषी कुमार ने मुझे पालपोस कर बड़ा किया और पढ़ाया। मेरी प्रिया शुकी मुझसे रुष्ट होकर कहीं अन्यत्र चली गई। उसी के अनुसंधान में मैं देश-विदेश भ्रमण कर रहा हूँ। विरहानल में जलता हुआ मैं थक कर चूर हो गया हूँ और अब वर्षाकाल आ जाने से मेरी पांखे भीगने लगीं। लम्बे मार्ग को तय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org