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जैनसम्मत आत्मस्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन ४३
है किन्तु किसी एक दर्शन के विचारों से इसका पूर्ण साम्य नहीं है । जैनों ने आत्मा के सम्बन्ध में समन्वयात्मक एवं विशिष्ट सिद्धान्त को जन्म दिया है । उनका आत्मसिद्धान्त बौद्धों के विज्ञान, न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसा के चैतन्यरहित ( मोक्षदशा में ) होने वाले आत्मा द्रव्य, सांख्य-योग के निर्विकारी, सर्वदा मुक्त पुरुष एवं अद्वैत वेदान्त के सच्चिदानन्दमय एक ब्रह्म के सिद्धान्तों से सर्वथा विशिष्ट है । इनका आत्मा सम्बन्धी विचार वैदिक दर्शनों से अनेकशः साम्य रखते भी अपनी विशिष्टता एवं मौलिकता बनाये हुए है । प्रमुख बात यह है कि आत्मा का विवेचन जैन दर्शन में निश्चयनय एवं व्यवहारनय से किया गया है । निश्चयदृष्टि से विचार करते समय जैन दर्शन सांख्य एवं वेदान्त के अत्यन्त निकट लगता है । इतना विशेष है कि अनेकान्तवादी एवं यथार्थवादी होने से वह व्यवहारनय को पूर्णतः नहीं नकारता; क्योंकि वह परिणामी नित्यता का समर्थक है, विवर्तवाद या कूटस्थ - नित्यता का समर्थक नहीं । वस्तु का निज स्वरूप कभी नहीं बदलता किन्तु पर्याय बदलते रहते हैं । इसीलिए जीव का चैतन्य कभी नहीं बदलता किन्तु उसमें पर्याय होते रहते हैं । आत्मा में कर्म, कर्तृत्व आदि भी उपचार से स्वीकृत हैं ।
जैनों के समान आधुनिक विज्ञान ने भी पेड़, पौधों, पृथिव्यादि के कणों में ( अस्पष्ट रूप में ) जीवत्व सिद्ध किया है । सुदूर अतीत में जबकि वैज्ञानिक परीक्षणों का सर्वथा अभाव था । इस विचार की उत्पत्ति जैन विचारकों की सूक्ष्म, यथार्थ एवं विश्लेषणपरक मनीषा की स्पष्ट परिचायक है ।
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