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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९९ समर्थक हैं।' उनके मत में सभी ( मुक्त जीव ) परमात्मा प्रारंभ में कर्मोपाधि से युक्त थे। जैनों ने आत्मा के कर्मबन्ध को वास्तविक माना है । सांख्य के पुरुष का प्रकृति से अपने संयोग को अज्ञान या भ्रम से सत्य समझ बैठना युक्तिसंगत नहीं लगता है। जैन मतानुसार जीव सर्वदा मुक्त न होने पर भी मुक्त हो सकता है क्योंकि उसमें कर्मबन्ध से छुटकारा पाने की असीम शक्ति है। सांख्य में आदर्शवादिता है किन्तु जैन मत में आदर्श के साथ-साथ यथार्थ का पुट भी प्राप्त होता है।
जैन दार्शनिक पृथिवी, जल, तेज एवं वायु के कण-कण में जीवन की सत्ता मानते हैं । आधुनिक विज्ञान भी इस विचार का पक्षपाती है कि सम्पूर्ण जगत ऐसी व्यवस्था हैं जो कहीं न कहीं जीवन से सम्बन्धित हैं। अमीबा से लेकर मनुष्य तक सर्वत्र जीवन का झरना बहता है। कहीं-कहीं वह वेगहीन है तो कहीं वेगवान भी है। भावनायें, कल्पनायें आदि प्रवत्तियाँ एवं अन्यचेतन दशा इसी के अन्तर्गत हैं। जैन भी मानते हैं कि शुद्ध जीवत्व पर पड़े कषायावरण के मोटे, पतले या झीने होने से ज्ञान की अभिव्यक्ति में अन्तर आ जाता है।
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि जैनों का आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त वैदिक दर्शनों के विचारों से अनेक स्थलों पर समानता रखता
१. योगसूत्र १।२४, २५, २६ २. Samkhya Realism or Idealism, Dr. Belvalkar. Dayananda:
Commemoration Volume, Ajmer, 1934 pp. 19-24 ३. पञ्चास्तिकाय, गाथा--११०, ११२, ११४-१७, बृहद्रव्यसंग्रह गाथा
११, १२ ४. Throughout the world of animal life there are expressi
ons of something akin to the mind in ourselves. There is from Amoeba upwards a stream of inner and subjective life. It may be only a slender rill, but sometimes it is a strong current. It includes feeling, imagining, purposing. It includes unconscious.
The Great Design, Sir J. A. Thomsan.
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