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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ उपकेशगच्छ की द्वितीय पट्टावली के अनुसार महावीर और पार्व; दोनों की वन्दना करने के कारण वि० सं० १२६६ में उपकेशगच्छ में सिद्धसूरि से द्विवंदनीकशाखा का उदय हुआ'
रस-रस-दिनकर (१२६६) वर्षे, मासे मधुमाधबे च संज्ञायाम् । जाता द्विवंदनीकाः, श्रीमसिद्धसूरिवराः ॥
उक्त विवरण से यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि गच्छनायक गुरु द्वारा गच्छ की परम्परागत मान्यता के विपरीत नवीन मान्यता स्थापित करने के कारण गच्छ में मतभेद हो गया, जिससे सिद्धसूरि अपने जीवनकाल में अपना पट्टधर भी नियुक्त न कर सके, अन्त में श्रीसंघ ने गच्छ की प्राचीन मान्यताओं में श्रद्धा रखने वाले मनिजनों की सम्मति से वि० सं० १२७८ में उपाध्याय वर्धमान को देवगुप्तसूरि के नाम से गच्छनायक के पद पर प्रतिष्ठित किया।
प्रथम पट्टावली के अनुमार देवगप्तसूरि का वि० सं० १३३० में ८४ वर्ष की आयु में निधन हुआ।२ अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर ककुदाचार्यसंतानीय देवगुप्तसूरि द्वारा वि० सं० १३१४-१३२३ में प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं, अतः समसामयिकता के आधार पर उक्त दोनों देवगुप्तसूरि एक ही आचार्य माने जा सकते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि देवगुप्तसूरि के समय से ही उपकेशगच्छ की इस प्राचीन शाखा के मुनिजन ककुदाचार्यसंतानीय कहे जाने लगे। इस प्रकार उपरोक्त तालिका के १०० वर्षों की आचार्य परम्परा का अन्तराल पूर्ण हो जाता है और उपकेशगच्छीय ककुदाचार्यसंतानीय मुनिजनों के गुरु-परम्परा की जो तालिका निर्मित होती है, वह इस प्रकार है, द्रष्टव्य-तालिका-३
१. मुनि जिनविजय-विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह, पृष्ठ ८ २. देसाई, पूर्वोक्त, पृष्ठ २२६९
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