Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRIPATI MONERar जा ओं श्रीजिनायनमः। अथ श्रीसमयसार नाटक बनारसीदासकृत प्रारंभः दोहा-श्रीजिन बचन समुद्रको, कौंलगि होइ बखान । . रूपचंद तोह लिखै, अपनी मति अनुमान ॥१॥ __ कवित्त इकतीसासर्व हस्वाक्षर- करम भरम जग तिमिर हरन खग, उरग लखन पग शिवमग दरसि । निरखतनयन भाविक जल वरखत, हरखत अमित भाविकजनसरलि॥ मदन कदन जित परम धरम हिन, सुमिरत भगत भगत सब डरसि। सजल जलद तन सुकुट संपत फन, कुमठ दुलन जिन नमत बनरसि ॥१॥ सर्व लघु स्वरांत अक्षरयुक्क छप्पय छंद--सकल करमखल दलन, कण्ठ सठ पवन कनक नग । धवल परमपद रमन जगत जन अमल कमल खग ।। परमत जलधर पवन, सजल धन सम तन समकर । पर अघ रजहर जलद, सकल जन नत भव भय हर ॥ यम दलन नरक पंद छय करने, संगम तट भव जल तरन । बर सबल सदन बन हर हन, जय जय परम अभय करन ॥२॥ . ., सवैया इकतीसा--जिन्हके वचन उर भारत जुगल नांग, ये धरनिंद पदमावति पलक में जाके नारा सहिमा सों: धातु कनक करै, पारस पाधान नागी भयो खलक - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकी जनमपुरी नामके प्रभाव हम,अपनो स्वरूपलख्ये सानसो भलक में । तेई प्रभु पारस महारसके दाता अब दीजे मोहि साता हगलीला के ललक में ॥३॥ सिद्ध भगवानकी स्तुति। अडिल्ल छंद--अविनाशी अविकार, परम रसधाम, । " • माधान सरवंग, सहज अभिराम हैं। शुद्ध वुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंतहैं। जगत शिरोमनि सिद्ध, सदाजयवंतहैं ॥४॥ साधरूप भगवानकी स्तुति। सवैया इकतीला--ज्ञान के उजागर सहज सुख सागर -- सुगुण रतनागर वैराग रसभख्यो है। सरनकी रीत हरै मरन को भैन करै, करनसों पीठ दे चरण अनुलस्याहै ॥ धरमके मंडन भरमको बिहंडन जु, परम नरम हैके करमसों लर है। ऐलो मुनिराज भुवलोक में विराजमान, निरखि बना रसी नमस्कार कस्यो है॥५॥ समकितीकी स्तुति। . सवैया तेईसा--भेद विज्ञान जग्यो जिनके घट, ". चित्त भयो जिम चंदन । केलिकर शिव मारगमें जगम जिनेश्वरके लघुनंदन । सत्य स्वरूप सदा जिन्हके . अवदात मिथ्यात निकंदन । संत दशा तिन्हकी है करै कर जोरि वनारसि वंदन ॥६॥ ___ सबैया इकतीसा--स्वारथ के सांचे परमारथके सांचेरि मांचे सांचे बैन कहै सांचे जैनमती हैं । काहूके विरोधी हि परजायवृद्धि नाहि, आतम गवेषी न ग्रहस्थहैं न । हैं। सिद्ध रिद्ध वृद्धि दीसै घटमें प्रगट सदा, अंतरकी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षसों अजाची लक्षपती हैं ॥ दास भगवन्तके उदास रहै जगतसों, सुखिया सदीन ऐसे जीव समकिती हैं ॥७॥ __ सबैया इकतीसा-जाके घट प्रगट विवेक मनधरकोसो हिरदे हरख महा मोहकों हरतु हैं। सांचो सुख मानै निज अडोल जानें, अग्रही में आफ्नो सुभावले धरतुहैं। जैसे जल कर्दम कतक फल भिन्न करें, तैसे जीव अजीव विलक्षन करतहैं । आतम सगति साधे ज्ञानको उदो आराधे, सोई समकिती भवसागर तरतहैं ॥८॥ __सवैया इकतीसा--धरम न जालत बखानत भरमरूप, ठौर २ ठानत लराई पक्षपातकी । मूल्यो अभिमानमें न पाउं धरे धरनी में, हिरदे में करनी विचारै उतपातकी । फिरेडाबाडोलसों करमके कलोलनमें, वैरही अवस्थासों वधूलाकेसे पातकी।जाकी छाती ताती कारी कुटिल कुबाती भारी, ऐसो ब्रह्मघाती है मिथ्याती महापातकी ॥ ९॥ "दोहा--वंदो शिव अवगाहना, अरु वंदों शिवपंथ । जसु प्रसाद भाषा करो,नाटक नामकग्रंथ ॥१०॥ :: सवैया तेईसा-चेतनरूप अरूप असूरति सिद्ध समान सदा पद मेरो । मोह महातम आतम अंग, कियो परसंग महातमधेरो॥ज्ञानकला उपजी अब मोहि कहाँ गुन नाटक आगमः केरो । जासु प्रसाद सधै शिवमारग वेग मिटे भव वास वसेरो ॥११॥ । सवैया इकतीसा--जैसे कोउ मूरख लहासमुद्र तरिव को भुजानिसों उद्यत भयो है तजि नाबरो। जैसे गिरिउपरि विरषफल तोरिवेकों बावन पुरुषकोउ उमंग उतावरो। जैसे Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (४) जलकुंड में निरख शशि प्रतिविताके गहिवेको कर नीचो करे डावरो। तैसें मै अलपवुद्धि नाटक आरंभ कीनो गुनी सोहि हलग कहेंगे कोउ.वावरो ॥ १२ ॥...... ___ सबैया इकतीसा--जैलै कोउ रतनसों बींध्यो है रतन कोड, तासे सूत रेशमकी दोरी पोइ गई है। तैसे वुद्धीटीका करीनाटक सुगम कीनो तापरि अलप बुद्धि सुद्धि परिनई है; जैसै काहु देसके पुरुष जैसी भाषा कहै, तैसी तिनहू के बालकनी सिखीलई है। तैलै ज्यों गिरथको अरथ कयों गुरु त्यों हमारी मति कहिलेको सावधान भई है ॥ १३ ॥ ___ सबैया इकतीसा--कवहाँ सुमति व्है कुमतिको विनाश करे, कबहों विमल ज्योति अंतर जगति है। कबहों दया है चित्त करत दयालरूप, कवहाँ सुलालसा है लोचन लगति है ॥ कवहों कि आरती व्है प्रभु सनमुख आबै, कबहों सुभारती व्है बाहरि वगति है।धरै दसा जैसी तव करै रीति तैसी ऐसी हिरदे हमारे भगवंतकी भगति है॥१४॥ सवैया इकतीसा--मोच चलवेको सोन करमको करै बोन, जाको रस मौन बुधलौन ज्यों घुलति है। गुनको गिरंथ निरगुनको सुगम पंथ, जाको जस कहत सुरेश अकुलित है। याही के जु पक्षी सो उडत ज्ञान गगनमें, याहीके विपक्षी जग जालमै रुलत है । हाटकसो विमल विराटकसो वि.. सतार, नाटक सुनत हिय फाटक खुलत है ॥ १५ ॥ दोहा-कहाँ शुद्ध निह. कथा, कहों शुद्ध विवहार । ची - मुक्ति पंथ कारन कहाँ, अनुभौको अधिकार ॥१॥ वस्तुविचारत ध्यावतै, मन पावै विश्राम । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) रसस्वादन सुख ऊपजे, अनुभौ याकोनाम ॥ १७ ॥ अनुभौ चिंतामनि रतन, अनुभौ है रसकूप । अनुभौ मारग मोक्षको, अनुभौ मोक्षसरूप ॥ १८ ॥ सवैया इकतीसा -- अनुभौ के रसकों रसायन कहत जग 'अनुभौ अभ्यास यह तीरथकी ठौर है । अनुभौकी जो रसा कहावै सोई पोरसा सु, अनभौ अधोरसा सु ऊरधकी दौर ॥ अनुभौ की केली यहै कामधेनु चित्रावेली, अनुभौको स्वाद पंच अमृतकौ कौर है। अनुभौ करम तोरै परमसों प्रीति जोरै अनुभौ समान न धरम कोउ और है । १९ ॥ दोहा -- चेतवंत अनंत गुन, पर्यय सकति अनंत । अलख अखंडित सर्वगत, जीव दरवविरतंत ॥ २० ॥ फरस वर्न रस गन्धमय, नरद फास संठान । 'अनुरूपी पुद्गल दरब, नभ प्रदेश परवान ॥ २१ ॥ जैसे सलिल समूहमें, करै मीन गति कर्म ! तैसें पुद्गल जीवको, चलन सहाई धर्म ॥ २२ ॥ ज्यों पंथिक ग्रीसमसमै, वैठे छाया माहिं । त्यों अधर्मकी भूमिमें, जड चेतन ठहरांहि ॥ २३ ॥ संतत जाके उदरमें, सकल पदारथ बास । जो भाजन सव जगतको, सोई दरब अकाश ॥ २४ ॥ जो नवकार जीरन करै, सकल वस्तुथितिठान । परावर्त्तवर्त्तन करै, काल दरब सो जान ॥ २५ ॥ समता रमता उरधता, ज्ञायकृता सुखभास । वेदकता चैतन्यता, एसव जीव बिलास ॥ २६ ॥ तनता मनता बचनता, जडता जड़ संमेल । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) लघुता गुरुता गमनता, ए अजीवके खेल ॥२७॥ जो विशुद्धभावनि बधे, अरु ऊरधमुखहोय । जो सुखदायक जगतमें, पुण्यपदारथ सोय ॥२८॥ संकिलेसि भावनिबधे, सहिज अधोमुखहोय । दुखदायक संसारमें, पाप पदारथ सोय ॥२६॥ जोई करमउद्योत धरि, होइ क्रिया रस रत्त । कर नूतन करमकों, सोई आश्रय तत्त ॥३०॥ जो उपयोग सरूपधरि, वरतै योगविरत्त। रोकै आवत करमकों, सो है संवर तंत्त ॥३१॥ जो पूरन सत्ता करम, करि थिति पूरणमाउ। खिरवैकों उद्यत भयो, सो निर्भरा लखाउ ॥३२॥ जो नवकर्म पुरानसों, मिलें गठि दृढ होइ - सकति बढावै बंसकी, वंध पदारथ सोइ ॥ ३३ ॥ थिति पूरनकरि जोकरम,खिरेवंध पदभानि। हंस अंस उज्वलकरै, मोक्ष तत्व लो जानि ॥३४॥ भावपदारथ समय धन, तत्व वित्त वस दर्व । द्रविन अर्थ इत्यादि बहु, वस्तु नाम ए सर्वे ॥३५।। सवैया इकतीसा--परमपुरुष परमेश्वर परमज्योति, परब्रह्म पूरन परम परधान है । अनादि अनंत अविगत अविनाशि अज, निरंदुद मुकत मुकुंद अमलान है ॥ निरावाध निगम निरंजन निरविकार, निाराकर संसार सिरोमनि सजान है । सरवदरसी सरवज्ञ सिद्ध साई शिव, धनी नाथ . ईश जगदीश भगवान है ॥ ३६॥ .. चिदानंद चेतन अलख जीब समैसार, वुद्धरूप अबुद्धं Tak Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) अशुद्ध उपयोगी है। चिदरूप स्वयंभू चिन्मूरति धरमवंत, - प्रानवंत प्रानिजंतु भूत भवभोगीहै ॥ गुनधारी कलाधारी भेषधारी विद्याधारी,अंगधारीसंधगारी जोगधारी जोगीहै ॥ चिन्मय अखंड हंस अखर आतमराम, करमको करतार परम विजोगी है ॥३७॥ दोहा--खविहाय अंवर गगन, अन्तरिक्ष जगधाम । व्योम वियतनभ मेघपथ, ए अकाशकेनाम ॥३॥ यम, कृतांत, अंतक,त्रिदश,आवर्ती, मृतथान। प्रानहरन, आदित तनय, कालनाम परमान ॥३९॥ .. पुन्य सुकृत ऊरधवदन, अकर रोग शुभ कर्म । सुखदायक संसार फल, भागवहिर्मुख धर्म ॥४०॥ पाप अधोमुख एन अघ, कंप रोग दुखधाम । कलिलकलुषकिलविषदुरित,अशुभकर्मकनाम।। ४१॥ सिद्धक्षेत्रत्रिभुवन सुकुट, शिवसग अविचलनाथ। .. मोक्षमुगति बैकुंठ शिव,पंचमगति निरवान ॥४२॥ . प्रज्ञा धिषना से सुखी, धीमेधा मति वुद्धि। . सुरति मनीषा चेतना,आशय अंसविशुद्धि ॥ १३ ॥ ___ अथ विचक्षण पुरुषके नाम। दोहा-निपुन विचक्षन विबुधवुध, विद्याधर विद्वान । ' __. पटु प्रवीनपंडितचतुर, सुधीसुजन मतिमान ॥४४॥ - कलावन्त कोविदकुशल, सुमन दक्ष धीमंत । . *: ज्ञाता सज्जन ब्रह्मविद, तज गुनीजन सन्त ॥४५॥ . अथ मुनीश्वरके नाम । विद्वाहा-मुनि महंत तापस तपी, भिक्षुकचारित धाम । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यती तपोधन संयमी, व्रतीसाधु रिषिनाम ॥ ४६॥ दरस विलोकन देखनो, अवलोकन दृग चाल। . लखन दृष्टिनिरखनभुवन,चितवनचाहनभाल ॥४७॥ . ज्ञान वोध अवगममनन, जगतमान जगजान। .. संयम चारितआचरण, चरन वृत्ति धिरवान॥४८॥ सम्यक् सत्य अमोघसत, निसंदेह निरधार । ... ठीकयथारथ उचिततथ, मिथ्या आदिअकार।। ४६ ॥ अजथारथमिथ्या मृषा, वृथा असत्य अलीक । · सुधामोघनिष्फलदितथ,अनुचितअसतअठीक॥५०॥ सवैया इकतीसा-जीव निरजीव करता करम पुण्य पाप, आभव संवर निरजरावंध मोपहे। सरवविशुद्ध स्यादवाद साधिसाधक दुआसद दुवार धरेसमैसार कोष है। दरवानुयोग दरबानुयोग दूरिकरै, निगमको नाटक परमरस पोषहै । ऐसो परमागम बनारसी बखाने यामे, ज्ञानको निदान शुद्ध.चा. रित की चोष है ॥ ५१॥ दोहा-शोभित निजअनुभूतियुत,चिदानंद भगवान। सार पदारथ आतमा, सकल पदारथ जान ।। ५२ ॥ सवैया तेईसा--जो अपनी दुति आपुविराजत, है परधा. न पदारथ नामी। चेतन अंक लदा निकलंक, महासुखसा. गर को विसरामी ॥ जीव अजीव जिते जगमें, ग्यायक अंतरजामी । सो शिवरूप वसै शिवथानक, ताहि बिलोकनमें शिवगामी ॥ ५३ ॥ .. .. .. . सवैया तेईसा-जोग धरैरहि जोगसु मिन्न अनंत गुना म केवल ज्ञानी । तासहदे द्रहसों निकसी सरिता समय Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) श्रुत सिंधु समानी ॥ यातें अनंत नयातम लक्षन, सत्य सरूप सिद्धांत बखानी। बुद्धि लखैन लखै दुर बुद्धि सदा जग , माहि जगे जिनबानी ॥ ५४ ॥ छप्पय छंद-हों निह, तिहुँकाल, शुद्ध चेतनमय भूरति। पर परिनति संयोग, भई जडता विस्फूरति ॥ मोह कर्मपर हेतु, पाइ चेतन पर रच्चै । ज्यों धतूर रसपान, करत नर बहु विध नच्चै ।। अव समय सार वर्णन करत, परम शुद्धता होउ मुझ । अनयास वनारसि दास कहि, मिटो सहज भ्रमकी अरुम ॥ ५५ ॥ ___ सवैया इकतीसा--निहचैमें रूप एक विवहार में अनेक, याही नै विरोध में जगत भरमायो है। जगके विवाद नासिबेकों जिन आगम है, जामें स्यादवाद नाम लक्षन सुहायो है । दरसन मोह जाको गयो है सहजरूप, आगम प्रवान जाके हिरदेमें आयो है। अनैलो अखंडित अनूतन अनंत तेज, ऐसो पद पूरन तुरत तिन पायो है ॥ ५६ ॥ - सवैया तेईसा--ज्यों नर कोउ गिरै गिरलों तिह, सोइ हितू जु गहै दृढ वाही। त्यों बुधकों विवहार भलो तवलों, जबलों शिव प्रापति नांहीं ॥ यद्यपि यों परवान तथापि,सधै परमारथ चेतनमाहीं। जीव अध्यापक है परसों, शिवहार सु तौ परकी परछांहीं ॥ ५७ ॥ सवैया इकतीसा-शुद्ध नय निह अकेलो आशु चिदानंअपनेही गुण परजायका गहतु, । पुरन विज्ञान धन विविवहार मांहि, नवतारुपी एचप्रमाणपत्र जवतत्व न्यारे जी न्यारो लाखे । सल्पक बात यह Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) उरतैन गहतु है, सम्यक दरस जोई आतमसरूप सोई । मेरे घट प्रगटयो बनारसी कहतुहै ॥ ५८ ॥ .. __ सवैया इकतीसा-जैसै तृनकाठ वांस आरनै इत्यादि और, इंधन अनेक विधि पावक में दहिये। आकति दिलोकत क. हावै आगि नानारूप, दीशै एक दाहक सुभाउ जव गहिये। तैसै नव तत्व में भयो है बहु भेखी जीब, शुद्धरूप मिश्रित अशुद्धरूप कहिये । जाहीछिन चेतनाशकतिको विचार की जै, ताही छिन अलख अभेदरूप लहिये ॥ ५९ ॥ सबैया इकतीसा-जैसै बनबारी में कुधातुके मिलाप हेम, नाना भांति भयो पैतशापि एक नाम है । कसिके कसोटी लीक निरखै सराफ तांही, बानके प्रमान करि लेतु देतु दामहै। तैसही अनादि पुद्गलसों संयोगी जीव, नवतत्वरूप में अरूपी महा धाम है, । दीशे उनमानसो उद्योत बान ठौर ठौर, दूसरों:न और एक आतमाहि राम है ॥६॥ सवैया इकतीसा-जैसै रविमंडल के उदै महिसंडल में, आतप अटल तम पटल बिलातु है। तेसै परमातमाको अन भौ रहत जो लों, तो लों कहूं दुविधा न कहू पक्षपातु है। नयको न लेश परवानकोन परवेश, निछपके वंसको विधंस होतु जातुहै, जे जे वस्तु साधक हैं तेउ तहां वाधक है वाकी रागदोष की दशाकी कौन वातु है॥६१॥ अडिल्ल छंद-आदि अंत पूरन सुभाव संयुक्त है, परस्वरूप परजोग कलपना मुक्त है। सदा एकरस प्रगट कही है जैनों शुद्ध नयातमवस्तु विराजे वैनमें ॥२॥ कवित्त छंद-सतगुरु कहै भव्य जीवनिसों, तोरहु तरत..' Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) हकी जेल।समकितरूप गहो अपनोगुन, करहु शुद्ध अनुभव को-खेल ॥ पुदगल पिंडभाव रागादिक, इनसों नहीं तुमारोमेल।एजड प्रगट गुपत तुम चेतन, जैसै भिन्न तोयअरुतेल६३ . सवैया इकतीसा--कोउ वुद्धिवंतनर निरखैशरीर घर,भेद ज्ञान दृष्टिलों विचारै वस्तु वासतो।अतीत अनागत वरतमा. न मौहरस,भिग्यो चिदानंद लखै वंधमें विलासतो॥धको विडारि महा मोहको सुभाउ डारि आतमको ध्यान करी देखो परगासतो। करम कलंक पंक रहित प्रगटरूप अचल अवाधित विलोकै देव सासतो॥१४॥ सवैया तेईसा-शुद्ध नयातम आतमकी अनभूति त्रिज्ञान विभूतिहि सोई, वस्तु विचारत एक पदारथ नामक भेद -कहावत दोई । यो सरवंग सदा लखि आपुहि, आतमध्यान करै जब कोई । मेटि अशुद्धि बिभावदशा तब सिद्ध सरूप किनापति होई॥६५॥ सवैया इकतीसा-अपनेही गुनपरजायसो प्रवाहरूप,परिन यो तिहूं काल अपने आधारसों । अंतर वाहिर परकासवान एकरस, खिन्नता न गहै भिन्न रहै भौ विकारसों ॥ चेत. नाके रस सरवंग भरि रह्यो जीव, जैसे लोन काकर भयो है रस छारसों ॥ पूरन सरूप अति उज्जल विज्ञान धन, मो को होहु प्रगट निशेष निरबारसों । ६६ ॥ ___ कवित्त छंद-जहँ ध्रुव धर्म कर्म छय लक्षन, सिद्ध समाधि साध्यपद सोइ । सुधो पयोग योग महि मण्डित, साधक ताहि कहै सवकोइ ॥ यों परतक्ष परोक्ष स्वरूप, सुसाधक मध्य अवस्था दोइ । दुहुको एक ज्ञान संचय करि, सवै {शिव वंछक थिर होइ ॥ ६७ ॥. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) कवित्त छंद - दर्शन ज्ञान चरन त्रिगुनातम, समल रूप कहिये विहार | निचे दृष्टि एकरस चेतन, भेदरहित, अबिचल अविकार ॥ सम्यक् दशा प्रमाण भैनय, निर्मलसमल एकही वार | यों समकाल जीवकी परिनति कहें जिनंद गहे गनधार ॥ ६८ ॥ दोहा -- एक रूप आतम दरव, ज्ञान चरन हगतीन । ' भेद भाव परिनाम सों, विवहारे सु मलीन ॥ ६६ ॥ यदपि समल विवहारसों, पर्यय शक्ति अनेक । तदपि नियत नय देखिये, शुद्ध निरंजन एक ॥ ७० ॥ एक देखिये जानिये, रमि रहिये इक ठौर | समलविमलन विचारिये, यहेसिद्धिनहि और ॥ ७१ ॥ सवैया इकतीसा - जाके पद सोहत सुलचन अनंत ज्ञान, विमल विकासवंत ज्योति लहलही है । यद्यपि त्रिविध रूप व्यवहार में तथापि, एकता न तजै यों नियत अंग कहीं है || सो है जीव कैसीहू जुगतिके सदीव ताके, ध्यान करिवे कों मेरी मनसा उमही है । जातें अविचल सिद्धिहोतु और भांति सिद्ध, नांहि नांहि नांहि यामें धोखो नांहिसही है ॥ ७२ ॥ सवैया तेईसा के अपनो पद आपु सँभारत के गुरके सुखकी सुनि वानी | भेद विज्ञान जग्यो जिनके प्रगटे सु विवेक कला रज धानी ॥ भाव अनंत भये प्रतिविंवत, जीवन मोच दशा ठहरानी । तेनर दर्पनज्यों अधिकार रहै थिर रूप सदा सुखदानी ॥ ७३ ॥ -- " सवैया इकतीसा - याही वर्तमान सबै भव्यनिको मिट्यो, मोह, लग्यो है अनाविको पग्यो है कर्म मलसों । उदो करें Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३.) . reज्ञान महारुचिको निधान, उरको उजारो भारो न्यारो कुंड दलों ॥ चा थिर रहे अनुभौ विलास गर्दै फिर कवहों, अपनपो न कहै पुद्गलसों । यह करतृतियों जुदाई करे जगतसेों, पावकज्यों भिन्न करे कंचन उपलसों ॥७४॥ सवैया इकतीसा -वानारसी कहे भैया भव्य सुनो मेरी शीख, केहू भांति केसेह के ऐसो काज कीजिए । एकह मुहूरतमियातको विध्वंस होइ, ज्ञानको जगाह अंस हंस खोजि लीजिये ॥ वाह्रीको विचार बाको ध्यानय है कौतुहल, चोही भरि जनम परस रस पीजिए । तजी भववासकी विलास सविकासरूप, अंतकार मोहको अनंतकाल जीजिए। सवैया इकतीसा - जाकी दुनियां दो दिशा पवित्र भई, जाके तेज आगे सब तेजवंत रुके हैं । जाको रूपरखि थकित महारूपर्वत, जाकी पुत्रास सुवास और लुके हैं ॥ जाकी विव्यधुनी सुनिश्रवनको सुख होत, जाके तन लज़न अनेक ग्रह के हैं । तेई जिनराज जाके कहे विहार गुन, निचे निरखि वेतनसों चुके ॥ ७६ ॥ सवैया इकतीसा - जार्गे बालपनोतरुनपनो वृद्धपनोनांहि, आयु परजत महारूप महा बल हैं । विदाहि जनत जाके तनमें अनेक गन, अतिस विराजमान काया निरमल है । जैसे विनुपयन समुद्र अनिलरूप, तैसें जाको मन अरु आसन अचल है । ऐसी जिनराज जयवंत होउ जगत में, जाकी शुभराति महासुकृति को फल है ॥ ७७ ॥ वोहा--जिनपव नाएिं शरीरकों, जिनपद वेतन मांहि । जिन वर्ननक और है यह जिन वर्नननांहि ॥ ७= ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) सवैया इकतीसा-उंचे उंचे गढके कंगुरे यों विराजत हैं, मानो नभ लोक लीलवेकों दांत दियो है । सोहे चिहोंउर उपबनकी सघनताई, घेरा करि मानो भूमि लोक घेरिलि. यो है ॥ गहरी गंभीर खाईताकी उपमा वनाई, नीचो करि आनन पताल जल पियो है । ऐसो है नगर यामें नृपको न अंगकोउ, योंही चिदानंदसों शरीर भिन्न कियोहै ॥ ७ ॥ सवैया इकतीसा-जामें लोकालोक के सुभाउ प्रतिभासे सव, जगी ज्ञान सगति विमल जैसी आरसी । दर्शन उदोत लियो अंतराय अंतकीऊ, गयो महामोह भयो परम महारसी ॥ सन्यासी सहज जोगी जोगसों उदासी जामें, प्रकृति पंचाशी लगि राहि जरिछारसी । सोहै घटमंदिर में चेतन प्रगटरूप, ऐसो जिनराज तांहि वंदतवनारसी|८०॥ कवित्त छंद-तनु चेतन विवहारएकसे,निहचे भिन्नभिन्न है दोइ । तनुस्तुती विवहार जीव थति, नियत दृष्टिमिथ्या थुति सोइ ॥ जिनसो जीव जीव सो जिनवर, तनु जिनएक न मानै कोइ । ताकारन तनकी अस्तुतिलों, जिनवर की अस्तुति नहि होइ ॥ ८१ ॥ __ सवैया तेईसा--ज्यों चिरकाल गडी वसुधा महि, भूरि महानिधि अंतर गुझी। कोउ उखारि धरै महि ऊपरि, जो दुगवंत तिन्है सबसूझी ॥ त्योंयह आतमकी अनुभूति पगी जड भाव अनादि अरूझी । नैजुगतागम साधि कही गुरु, लक्षन वेदि विचक्षन बूझी ॥ ८२ ॥ सवैया इकतीसा-जैसे कोउ जन गयो धोवी के सदन... तिन्ह, पहियो परायो वस्त्र मेरो मानि रह्यो है । धनीदेखि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) कह्यो भैया यहु तो हमारो बस्त्र, चीन्हो पहिचानतही त्याग 'भाव लह्यो है ॥ तैसेही अनादि पुद्गलसों संयोगी जीव, संग के ममत्वतों विभावतामें वह्यो है । भेद ज्ञानभयो जव आपो पर जान्यो तब, न्यारो परभाव सों स्वभाव निज गयो है ॥ ३ ॥ अडिल्लछंद--कहै विचक्षण पुरुष सदाहों एकहों। अपने रससों भयो आपनी टेक हों ॥ मोह कर्म मम नाहि नाहि भ्रम कूप है । शुद्ध चेतना सिंधु हमारो रूप है।। ८४ ॥ ___ सवैया इकतीसा-तत्वकी प्रतीति सों लख्यो है निजपर गुन, दृग ज्ञान चरन त्रिविध परिनयो है । विसद विवेक आयो आयो बिसराम पायो, आपही में आपनो सहारो सोधि लयो है ॥ कहत वनारसी गहत पुस्पारथकों, सहज सुमाउसों विभाउ मिटि गयो । पन्नाके पकाय जैसे कंचन विमल होतु, तैसे शुद्ध चेतन प्रकाशरूप भयो है ॥ ८५ ___ सबैया इकतीसा--जैसे कोउ पातर बनाय वस्त्र आभरण, आवति अखारे निशि आडो पट करिके । दुहू उर दीवटि सँवारि पट दूरि कीजे, सकल सभाके लोगदेखें दृष्टि धरिक। तैसे ज्ञान सागर मिथ्यात ग्रंथि भेद करि, उमग्यो प्रकट रह्यो तिहुँलोक भरिके। ऐसो उपदेशसुनि चाहिये जगतजीव शुद्धता सँभारे जगजालसों निकरिके ॥८६॥ इतिश्रीनाटिकासमयसारकाप्रथमजीवद्वारसमाप्तगया। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . . 04 . ........... ( १६ ) दूसराअध्याय अजीवद्वार। दोहा--जीव तत्व अधिकार यह, कह्यो प्रकट समुझाइ। ... अब अधिकार अजीवको,सुनोचतुर मनलाइ १८७॥ - सवैया इकतीसा--परम प्रतीत उपजाइ गर्नधर कीसी, अंतर अनादि की विभावता बिदारीहै । भेद ज्ञान दृष्टि सों विवेककी सकति साधि, चेतन अचेतनकी दशा निरवारी है। करमको नास करी अनुभौ अभ्यास धारी, हियेमें ह... रष निज शुद्धता सँभारी है। अंतराय नास गयो शुद्ध पर.. • कास भयो, ज्ञानको बिलास ताको बंदना हमारी है।८८॥ .. सवैया इकतीसा-- भैया जगबासीतूं उदासी ढके जगत सौं, एक छः महीना उपदेश मेरो मानुरे। और संकलप वि.कलपके विकार तजि, बैठके एकंतमन एकठोर आनुरे । तेरो : घट सर तामें तुहीहै कमल ताकों, तूही मधुकरहै सुवास .. .. पहिचानुरे । प्रापति न लॅहै कछु ऐलो तूं विचारतुहै, सही . हहै प्रापति संरूप याही जानुरे ॥ ६ ॥ . दोहा--चेतनवन्त अनंत गुण, सहित सुआतम राम। याते अनमिल और सब, पुद्गलके परिणाम ॥ ९॥ - कवित्त छंद--जब चेतन सँभारि निज पौरुष, निरखै निज दृगसों निज मर्म । तब सुखरूप विमल अविनाशक जानै जगतः शिरोमनि धर्म ॥ अनुभौ करै शुद्ध चेतन को, · रमै सुभाव व मै सब कर्म। इहि विधि सधै मुक्तिकोमारग अरु समीप आवै शिव शर्म ॥ ६ ॥ ... दोहा--बरनादिक रांगादि जड़, रूप हमारो नाहि । एक ब्रह्म नहिं दूसरो, दीसे अनुभव मांहि ॥६२॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) ॥ ९३ ॥ खांडो कहिये कनकको, कनक म्यान संयोग । न्यारो निरखतम्यानसों, लोह कहैं सबलोग वरनादिक पुद्गल दशा, घरें जीव बहु रूप वस्तु विचारत करमसों, भिन्न एक चिद्रूप ॥ ६४॥ ज्यों घट कहिये घीउकों, घटको रूप न घीउ । । त्यों बरनादिक नामसों, जडताल है न जी ॥ ६५ ॥ निरावाध चेतन अलख, जाने सहज सुकीउ । अचलअनादि अनंतनित, प्रकटजगतमै जीउ ॥ ६६॥ सर्वेया इकतीसा रूप रसवंत मूरतीक एक पुद्गल, रूप बिन ओर यूं अजीव दर्व दुधा है । च्यारि हैं अमूरतिक जी - बभी आसकी, या हित अमूरांतिक वस्तु ध्यान सुधाह है। न कबहूं प्रगट आपु आपही सों, ऐसो थिर चेतनसुभाउ शुद्ध सुधाहै | चेतनको अनुभौ आराधे जग तेई जीउ, जिन्ह के अखंडरस चाखिनेकी छुधा है ॥ ६७ ॥ L सवैया तेईसा -- चेतन जीव अजीव अचेतन, लंचन भेद उभै पद न्यारे । सम्यक दृष्टि उद्योत विचक्षण, भिन्न लखे लखिके निरधारे ॥ जे जग मांहि अनादि अखंडित, मोह महामद के मतवारे । ते जड चेतन एक कहै, तिन्हकी फिरि टेक टरै नहिं टारे ॥ ९८ ॥ सवैया तेईसा-या घटमें भ्रमरूप अनादि, बिलास महा अविवेक अखारो | तामँहि उर सरूप न दीसत, पुद्गल ..नृत्य करे अतिभारो । फेरत भेष दिखावत कौतुक, सो जलिये वरनादि पसारो । मोहसुं भिन्न जुदो जड सों, चिन मरति नाटक देखनहारो ॥ ९९ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) सवैया इकतीसा - जैसे करवत एक काठ वीचि खंडकरै, जैसे राजहंस निरवारे दूध जलकों । तैसे भेद ज्ञान निज भेदक शकतिर्सेति, भिन्न २ करै चिदानन्द पुगलकों । अवधि hi या मनप की अवस्था पावै, उमगि के श्रावै परमादधि के बलकों । याहीभांति पूरनसरूपको उद्योत घरै, करै प्रतिबिंबत पदारथ सकलकों ॥ १०० ॥ . इतिश्रीनाटकका दूसरा अजीवद्वारसमासभया । 'तीसरा अध्यायकर्त्ता कर्मक्रियाद्वार । दोहा-यह अजीवअधिकारको, प्रगट वखान्योमर्म । बसून जीव अजैविक, कता कीरा ॥ १०१ ॥ सवैया इकतीसा - प्रथम अज्ञानी जीव कहै में सदीव एक दूसरो न और मेंही करता करमको । अंतर विवेक आयो -आपापर भेद पायो, भयो बोध गयो मिटी भारतभरमको ॥ भासे छहों दरबके गुण परजाय सब, नासै दुःख लख्यो मुख पूरन परसको । करमको करतार मान्योपुदगल पिंड, आप करतार भयो आतम धरम को ॥ २ ॥ जाहि समै जीव देह वृद्धिको विकार तजै, वेदत सरूप निज भेदत भरम को महा परचंड़ मति मंडन अखंड रस, अनुभौ अभ्यास पर कासत परंमको ॥ ताही समै घटमें न रहे विपरीत भाव, जैसे तम नासै भानु प्रगट धरमको। ऐसी दशा आवे जब साधक कहावेत, करता है कैसे करै पुद्गल करमको ॥ ३ ॥ सवैया इकतीसा जग में अनादि को अज्ञानी कहे मेरे कर्म, करता में याको किरियाको प्रतिपाखी है। अंतर से Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) • मति भासी योगसों भयो उदासी, ममता मिटाय परजाय बुद्धि नाखी है ॥ निरभै सुझाव लीनो अनुभौके रस भीनो, 'कीनो व्यवहार दृष्टिनिहमें राखी है । भरमकी दोरी तोरी धरमको भयो धोरी, परमसों प्रीतिजोरी करमको साखीहै॥४॥ . सवैया इकतीसा--जैसोजो दरव ताके तैसे गुन परजाय, तासों मिलत पेंमिले न काहु पानसों। जीव वस्तु चेतन करम जड जाति भेद, अमिल मिलाप ज्यों नितंब जुरे कानसों । ऐसो सुविवेक जाके हिरदे प्रगट भयो, ताको भ्रम गयो ज्यों तिमिर भग्यो भानसों। सोई जीव करम को करतासौ दीसे अकरता कयाहै शुद्धता के परवानसों ॥५॥ छप्पय छंद--जीव ज्ञान गुण सहित, आपगुण परगुण . ज्ञायक । आपा परगुन लखै, नाहिं पुद्गल इहिलायकाजीव रूप चिद्रूप, सहज पुद्गल अचेत जड, जीव अमूरति सूर तीक पुद्गल अंतर बड ॥ जवलग न होय अनुभव प्रगट तबलंग मिथ्या मतिलसै । करतार जीव जड करमको, सु. बुधि बिकाशक भ्रम नसै ॥६॥ - दोहा-करता परिनामी दरब, करम रूप परिनाम । " .किरिया परजै की फिरन, वस्तु एकत्रयनाम ॥७॥ का कर्म किया करे, क्रिया कर्म करतार । नाउ भेद बहुविधि भयो, वस्तु एक निरधार ॥ ८॥ एक कर्म कर्तव्यता, करै न कर्ता दोय ।। दुधा दरब संत्ता सुतो, एकभाव क्यों होय ॥९॥ ...सबैया इकतीसा--एक परिनाम के न करता दरव दोय, पोय परिनाम एक दर्व न धरतु है । एक करतृति दोय दर्व Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) कबहूं न करें, दोई करतूति एक दर्व न करतु है ॥ जीव पुनल एक खेत अवगाही दोई अपने २ रूप कोउ न टरतु है । जड परिनामनिको करता है पुद्गल, चिदानन्द चे - तन सुभाउ चरतु है ॥ १० ॥ सवैया इकतीसा -महा ठीठ दुःखको वसीठ पर दवरूप अंध कूप का निवारयो नहि गयो है । ऐसो मिध्याभाव लग्यो जीवकों अनादिहीको, याही अहंबुद्धि लिये नानाभांति भयो है | काहू स काहूको मिथ्यात अंधकार भेद, ममता उछेदि शुद्ध भाउ परिनयो है । तिनही विवेक धारि बंधको बिलास डारि, आतम सकतिसों जगतजीति लयो है ॥११॥ . सवैया इकतीसा - शुद्धभाव चेतन अशुद्धभाव चेतन दुहूं को करतार जीव और नहीं सानिये । कर्म पिंडको विलासवर्न रस गंध फास, करता दुहू को पुद्गल पर मानिये ॥ ताते बरनादि गुन ज्ञानावरनादि कर्म, नाना परकार पुद्गल रूप जानिये । समल बिमल परिनाम जे जे वेतन के, ते ते सब अलख पुरुष यों बखानिये ॥ १२ ॥ सवैया इकतीसा -- जैसे गजराज नाज घासके गरासकरि भक्षत सुभाय नहि भिन्न रस लियो हैं । जैसे मतवारोनहि जाने सिखरनि स्वाद, जुंग में मगनक है गऊ दूध पियोहै ॥ तैसे मिथ्यामति जीव ज्ञानरूपी है लदीव, पग्यो पाप पुन्य सों सहज सुन्न ह्रियो है | चेतन अचेतन दुहूको मिश्र पिंड लखि, एकमेक मानै न त्रिवेक कबु कियो है ॥ १३ ॥ सवैया इकतीसा --जैसे महाधूप की तपति में तिसी मृग, भरमसों मिथ्याजल पीवनकों धायो है । जैसे अंध Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) माहि जेवरी निरखि नर, भरमसों डरपी सरप मानि आयो है। अपने सुभाय जैसे सागर सुथिर सदा, पवन संजोग सों उछरि अकुलायो है। तैसे जीव जडजों अव्यापक सहज रूप, भरमसों करमको करता कहायो है॥१४॥ . . . १. सवैया इकतीसा-जैसै राजहंसके वदनके सपरसत, दे. 'खिये प्रगट न्यारो छीर न्यारो नीर है । तैसै समकिती की सदष्टिम सहजरूप, न्यारो जीव न्यारो कर्म न्यारोई शरीर है। जब शुद्ध चेतनाको अनुभौ अभ्यासे तब; भासै आपु अचल न दूजो उर सीर है । पूरव करम उदै आइके दिखाई देहि, करता न हाइ तिन्हको तमासगीर है ॥१५॥ .. .. सवैया इकतीसा-जैसे उसनोदकमें उदक सुभाउ सीरो, आगिकी उसनते फरस ज्ञान लखिये । जैसै स्वाद व्यंजन में दीसत विविध रूप, लोनको सवाद खारो जीभ ज्ञानाचखिये॥ तैसै याहि पिंडमें विभावताअज्ञानरूप,ज्ञानरूप जीव भेद ज्ञानसों परखिये। भरमसों करमको करताहै चिदानंद दरव विचार करतार भाव नखिये ॥ १६ ॥ . ... ... दोहा--ज्ञानभाव जानी करै, अज्ञानी अज्ञान । ....... दरबकरम पुद्गल करै,यहानहचै परवान ॥ १७॥ ...... जानसरूपी आतमा, करे जान नहि और। दर्व कर्म चेतन करै, यह विवहारी दौर ॥ १ ॥ सवैया तेईसा--पुदगल कर्म करें नहि जीव कही तुम में समुझी नहि तैसी। कौन करै यहुरूप कहो अब, को करता करनी कहु कैसी॥ आपुहि आपु मिले विछुरै जड क्यों कर मोमन संशय ऐसी। शिष्य संदेह निवारन कारन वात कहै गुरु है. कछु जैसी ॥ १६ ॥ . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) दोहा -- पुदगल परिनामी दरन, सदा परिनमै सोय । याते पुदगल करमको, पुदगल कर्त्ता होय ॥ २० ॥ अडिल छंद --ज्ञानवन्त को भोग निर्जरा हेतु है । प्रज्ञानीको भोग बंध फल देतु है । यह अचरज की बात हिये नहिं आवही । वू कोऊ शिष्य गुरू समुझावही ॥ २१ ॥ सवैया इकतीसा - दया दान पूजादिक विषय कषायादिक दोहू कर्म भोग पैदुहूको एक खेतु है । ज्ञानीमृढ करम करत दीसे एकसे पै, परिनाम भेद न्यारो २ फल देतु है ॥ ज्ञान वन्त करनी करें पें उदासीन रूप, ममता न धरै ताते निजरा को हेतु है । वहे करतूति मूढ करै पै मगन रूप, अंध भयो ममता सो बंध फल लेतु है ।। २२ ।। छप्पय छन्द--ज्यों माटीमहि कलस, होनकी शक्ति ध्रुव | दंड चक्र चीवर कुलाल बाहिज निमित्त हुव ॥ त्यो पुदंगल परवातु, पुंज बरगना भेष धरि । ज्ञानी बरनादिक सरूप विचरंत विविध परि । वाहिज निमित्त वहिरातमा, हि संसै अज्ञान मति । जगमांहि अहंकृत भावसों, करम रूप व्है परिनमति ॥ २३ ॥ • सवैया तेईसा - जे न करें नयपक्ष विवाद, धरै न विषाद अलीक न भाखे । जे उदद्वेग तजै घट अन्तर, शीतलभाव निरन्तर राखै ॥ जेन गुनी गुन भेद विचारत, आकुलता मनकी सब नाखे । ते जगमें घरि आतम ध्यान अखंडित ज्ञान सुधारस चाखै ॥ २४ ॥ सवैया इकतीसा --विवहार दृष्टि सो विलोकत बँध्यो सो दीसे, निहचे निहारत न बांध्यो यह किनही । एकपक्ष वंध्य , : Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) एक पक्ष सा अबंध सदा, दोउ पक्ष अपने अनादि धरे इन ही ॥ कोउ कहै समल विमल रूप कोउ काह, चिदानन्द तैसोई वखान्यो जैसा जिनहीं । वंध्यो मानै खुल्यो माने दुहुनको भेद जाने, सोई ज्ञानवन्त जीवतत्व पायो तिनही २५ ___ सर्वया इकतीसा-प्रथम निरत जय दुजो विवहार नय दुहुको फलायत अनंत भेद फल है । उओं २ नए फले त्यों त्या मनके कलोल फलें, चंचल सुभाय लोकालोक लो उछले हैं। ऐसी नय कन ताको पक्ष तजि ज्ञानी जीव समर सी भये एकतासों नहीं टले है । महा मोह नासे शुद्ध भनुभौ अभ्यास निज, बल परगाले सुखरासि माहिं रले हैं।॥२६॥ - सवैचा इकतीसा-जैसे काह याजीगर चौहटे वजाइबोल, नानारूप धरीके भगल विद्या ठानी है । तेले में अनादिको मिथ्यात के तरंगनिसों भरम में धाइ बहुलाइ निजम्मानी है ॥ अव ज्ञानाला जागी भरमकी दृष्टि भागी, अपनी पराई सबलों जु पहिचानी है।जाके उदेहोत परवान ऐली भांति भई. निहचे हमारी ज्योति सोई हम जानी है ॥२७॥ ___ सबैया इकतीसा-जैसै महा रतनकी ज्योतिमें लहरि उठे, जलकी तरंग जैसे लीनहोइ जलमें। तस गुजआतम दरचपरजाय करी, उपजे बिनले विद रहे जिन थल में ॥ ऐसे अविकलपी अजलपी आनंद रूबी, अनादि अनंत गहिलीजे एक पलमें । ताको अनुभव कीजे परम पिऊप पीजे, बंध को क्लिास डारि दीजे पुगदल में ॥ २८ ॥ सबैया इकतीसा-दरवकी नय परजाय नववाउना,श्रत ज्ञानरूप श्रुतज्ञान तो परोपहें । शुद्ध परमातमाको अनुभी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४ ) प्रगटतातें,अनुभौ विराजमान अनुभौ अदोपहै। अनुभौप्रधान । भगवान पुरुष पुरान,ज्ञानऔ विजानधन महा सुख पोपहै ।। . परम पवित्र योंही अनुभौ अनंत नाम, अनुभौ विना न कहो और ठोर मोष है ॥ २६ ॥ ... . __ सवैया इकतीसा-जैसे एक जल नाना रूप दरवानुयोग, भयो बहु भांति पहिचान्यो न परतुहै । फिरि काल पाई.. दरबानुयोग दूरि होतु, अपने सहज नीचे मारग ठरतु है। तैसे यह चेतन पदारथ विभावत्तासों, गति योनि भेष भव भावर भरतु है । सम्यक सुभाइ पाइ अनुभौके पंथ धाई, वंधकी जुगती सानि सुगति करतु है ॥३०॥ दोहा-निशिदिन मिथ्या भावबहु,धरौमिथ्यातीजीव ।।... ताते भावित करमको, करता कयो सदीव ॥३१॥ चौपाई-फर करमसोई करतासाजोजानसोजाननहारा॥ . . जोक नहिजानै सोई।जानै सो करतानहिहोई॥३२॥ .. सोरठा-जानमिथ्यास न एक, नहि रागादिक ज्ञानमहि । __'ज्ञानकरम अतिरेक, जो ज्ञाता करतानहीं ॥३३॥ छप्पय छन्द--करमपिंड अरु राग, भाव मिलि एक होहि नहिं । दोऊ भिन्न स्वरूप, बसहिदोऊन जीव महि ।। करम पिंड पुदगल विभाव रागादि मूढ भ्रम । अलखं एक पुद्गल : अनंत, किम धरहि प्रकृति सम । निज निज विलास युक्त जगत महि जथा-सहज परिनमहि तिमः । करतार जीवजड . .रमको, मोहविकल जन कहहि इम ॥ ३४॥ ___ छप्पय छंद-जीव मिथ्यात न करै भाव नहि धरैः । मल । जान २ रसरमै, होइ करमादिक पुदंगल । असंख्या Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) परदेश, सकति जगमें प्रगटे अति ॥ चिद विलास गंभीर, : "धीर थिररहै विमल मति । जब लगि प्रबोध.घटमहि उदित . तवलग अनय न पेखिये ॥ जिम धरमराज वरतांतपुर, जह तह नीति परोखये ॥ ३५॥ . इतिश्री नाटकसमसार कर्ताकर्मक्रियाद्वार तृतीय समाप्त. . 'चौथा अध्याय पापपुन्यद्वार। दोहा-करता क्रिया करमको, प्रगट वखान्यो मूल । .....अब वरनौं अधिकार यह, पापपुन्य समतूल ॥३६॥ • कवित्त छंद--जाके उदै होत घटअंतर, दिनलै सोह महा. तम रोक । सुभ अरु अशुभ करसकी दुविधा, मिटे सहज होल इकथोक ॥ जाकी कला होतु संपूरन, प्रतिभासै लन लोक अलोक । सो प्रवोध शशि निरखि वनारसि, सीश नमाइ देतु पगधोक ॥ ३७॥ सवैया इकतीसा जैसे काहु चंडाली जुगल पुत्र जने तिन्ह, एक दियो पामन • एक घर राख्यो है। वामनकहायो तिन्ह मद्य सांस लाग कीनो, चंडाल कहायो तिन नाच मांस चाख्यो है। तेले एक वेदनी करनके जुगलपुत्र एक पाप एक पुरुष नांउ भिन्न भाख्यो है । दुहों माहिं 'दोभप नाउ कर्म वधरूप, पाले ज्ञानवंत ने न कोड भलायो है ॥ ३८॥ "...साई-फोऊ शिम कहें गुरुपांहीं। पापपुण्य दोऊसमनाहीं।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) ..कारनरस सुभावफलन्यारोएकअनिष्टलगैइकप्यारे३९. .. सबैया इकतीसा-संकिलेस परिनामनिसों पाप वैध होई, विशुद्धसों पुन्य बंधु हेतु भेद मानिये । पापके उदे असाता ताको है कटुक स्वाद,पुन्य उदे सातामिष्ट रसभेद जानिये।। पाप संकिलेस रूप पुन्यहिं विशुद्ध रूप, दुहूंको सुभाउ भिन्न भेदयों बखानिये । पापसों कुगति होय पुन्यसों सुगतिहोय, ऐसा फल भेद परतक्ष परवानिये ॥ ४०॥ ..सवैया इकतीसा-पाप बंध पुन्य बंध दुहूमें मुगति नाहि कटुक मधुर स्वाद पुद्गलको पेखिये । संकिलेस विशुद्धि ‘सहज दोउ कर्म चालि, कुगति सुगति जग जालमें विशेखिये । कारनादि भेद तोहि सूझत मिथ्यातमाहि, प्रेसो द्वैत भाव ज्ञानदृष्टिमें न लेखिये । दोउ महा अंधकूप दो कर्म बंध रूप, दुहको विनास मोष मारगमें देखिये ॥११॥ . सर्वया इकतीसा--सीलतप संजमविरति दान पूजादिक, अथवा असंजम कषाय विषै भोग है । कोउ शुभरूप कोउ... अशुभ सरूप भूल, वस्तुके विचारत दुविध कर्म रोग है ॥ ऐसी बंध पद्धति बखानी वीतराग देव, आतम धरम में करम त्यांग जोग है । भौजल तरैया राग दोषको हरैया महा मोषको करैया एक शुद्ध उपयोग है ॥ ४२ ॥ सबैया इकतीसा-शिष्य कहै स्वामी तुम. करनी शुभ , कीनी है निषिद्ध मेरे संसो मनमाहि है। मोषके सज्ञाता. देस विरती मुनीस, तिन्हकी अवस्था तो निराव है. कहै. गुरु करमको न्यास अनुभौ । उन्हहीको उनमाहि है । निरुपाधि आतम Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) माधि सोइ शिवरूप, और दौर धूप पुदगल परछांहि है ॥ ४३ ॥ सवैया तेईसा - मोक्षरूप सदा चिनमूरति बंधमई करतूतिकही है। जावतकाल नसै वह चेतन, तावत सो रसरीति गही है ॥ श्रातम को अनुभव जबलौं, तबलों शिवरूप दसा नही है। अंध भयो करनी जब ठानत, बंध विथा तब फैलि रही है ॥ ४४ ॥ सोरठा - अंतर दृष्टि लखाउ, अरु सरूपकोमाचरण | ए परमातम भाउ, शिवकारन एई सदा ॥ ४५ ॥ करम शुभाशुभदोई, पुद्गलपिंडविभावमल । " इनसों मुगति न होइ नांही केवल पाइए ॥ ४६ ॥ सवैया इकतीसा - कोउ शिष्य कहै स्वामी अशुभ क्रिया शुद्ध शुभ क्रिया शुद्ध तुम ऐसी क्यों न चरनी। गुरु कहै .: जवलों क्रियाको परिणाम रहे, तबलों चपल उपयोग योग धरनी । धिरता न चात्रै तोलों शुद्ध अनुभौ न होइ, यातेदोऊ क्रिया मोपपंथ की कतरनी । बंध की करैया दोउ दुहू में न भली कोऊ, बाधक विचार में निषिद्ध कीनी करनी ॥ ४७ ॥ सवैया इकतीसा - मुक्ति के साधककों वाधक करम सब, आतमा अनादि को करम मांहि लुक्यो है । एते परि कहै जो कि पाप चुरो पुराय भलो, सोइ महामूढ मोच मारगसों चुक्यो है ॥ सम्यक सुभाव लिये हिये में प्रगव्यो ज्ञान, उ र उमँग चल्यो काहूपे न रुक्यो है । आरसी सो उज्वल वनारसी कहत आए, कारन सरूप के कारजकों दुक्यो है४= सवैया इकतीसा --जोलों अष्टकर्म को विनास नाहीं सर्वथा टोलों अंतरातमा में धारा दोई वरनी। एक ज्ञानधारा एक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) ! .. . शुभाशुभ कर्मधारा, दुहकी प्रकृति न्यारी न्यारी न्यारी ध. रनी । ज्ञान धारा मोक्षरूप सोक्ष की करनहार, दोष की हरनहार सौ समुद्र तरनी। इतनो विशेष जु करम धारा वंधरूप, पराधीन सकति विविधिबंध करनी ॥४६॥ * ..सवैया इकतीसा--समुहँ न ज्ञान कहै करम किये सों मोक्ष, ऐसे जीव विकल मिथ्यातकीगहलमें । ज्ञानपंक्ष गह कहै आतमाः अवंध सदा, वरते. सुछंद तेउ बुडे हैं चहलमें। जथायोग करम करे मैं ममतान धरै, रहै सावधान ज्ञान ध्यान की टहल में ॥ तेई भवसागर के ऊपर है. तरै जीव जिन्हको, निवास स्यादवादके महल में ॥५०॥ . ...सवैया इकतीसा--जैसे मतवारो कोउ कहै और करै और तैसे मूढ प्राणी विपरीतता धरतु है। अशुभ करमवंध कारन वखानै मान, मुगतिके हेतु शुभ रीति आचरतु है ॥ अंतर सुदृष्टि भई मूढता विसरि गई, जानको उद्योत भ्रम तिमिर हरतु है । करन सो भिन्न रहै आतम मातम सरूप गहै, अनुभौ आरंभिरस कौतुक करतु है ॥ ५१..... इतिश्री नाटक समयसारका पुन्य पाप एकत्वी कथन चतुर्थ द्वार संपूर्णः । पंचम अध्याय आश्रव द्वार। दोहा-पुन्य पापकी एकता, बरनी अगम अनूप । । . अवाश्रव अधिकार कछु,कहों अध्यातमरूप ॥५२॥ - सवैया इकतीसा-जे जे जगवासी जीव थावर जंगम रूप, ते ते निज वस करी राखै वल तोरिक। महा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . ( २६ ) मानी ऐसो आश्रव अगाध जोधो रोपि रनथंभ.ठाढो भयो मूछ मोरिके ॥ आयो तिहि थानक अचानक परमधाम, ज्ञान नाम सुभट सबायो बल फोरिके। आश्रव पछार्यो रन यंभतोरि डार्यो ताहि, निरखी वनारसी नमत कर जोरिके५३ सवैया तेइसा-दार्वत आभाव सो कहिये जहिं पुद्गल जीव प्रदेस गरासै । भावित आश्रव सो कहिए जहिं राग विरोध विमोह विकासै ॥ सम्यक पद्धति सो कहिये अहिं दर्बित भांवित आव नास । जोनकली प्रगटै तिहि थानक अंतर बाहरि और न भासै ॥ ५४ ॥.. .. . चौपाई छंद--जो दरवाश्रवरूप न होई । जह भावाश्रय भाव न कोई ॥ जाकी दशा ज्ञानमय लहिये । सो ज्ञातार . निराश्रव कहिये ॥ ५५॥ ..' सवैया इकतीसा--जेते मन गोचर प्रगट बुद्धि पूरवक' 'भाव तिन्हके विनासवेको उद्यम धरतु है। याहि भांति परंपरिनतिको पतन करे, मोख को यतन करै भौजल तरतु है। ऐसै ज्ञानवन्तते निराश्रव कहावै सदा, जिन्हको सुजस सुविचक्षण करतु है ।। ५६ ॥ . . ! सवैया इकतीसा--ज्यों जगमें विचरै मतिमंद सुछन्दसदा वरतै बुध तैसे। चंचल चित्त असंजत वैन, शरीर सनेह जथावत जैसे॥ भोग संजोग परिग्रह संग्रह, मोह विलास करै जहाँ ऐसे। पछत शिष्य आचारजसों, यह सम्यकवन्त निराश्रव कैसें ॥ ५७॥ . : .. सवैयां इकतीसा-पूरव अवस्था जे करमबंध कीने अब, 'तेई उदै आई नाना भांति रस देत हैं। कई शुभ शाता Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०) केई अशुभ असातारूप, दुहुसों न रागन विरोध सम चेत हैं ॥ यथायोग क्रिया करै फलकीन इच्छा धरै, जीवन मुगतिको विरुदः गहिलेत हैं। यातें ज्ञानवंतकों न आश्रव कहत कोड, मुद्धतासों न्यारे भये सुद्धता समेत हैं ॥ ५८ ॥ - दोहा-जो हितभाव सुरागहै, अनहितभाव विरोध। .: .: भ्रामकभाव विमोहहै, निर्मलभाव सुबोध ॥ ५६ ॥ राग विरोध विमोह मल, एई आश्रव मूल। .... - एई कर्म पढाइ के, करै धरमकी मूल ६०॥ .... . जहां न रागादिक दसा, सोसम्यक परिनाम : . यातें सम्यकवंतको, कहो निराश्रवः नाम ॥६१॥ . . सवैया इकतीसा--जे कोई निकट भब्य रासी जगवासी जीव, मिथ्या मतभेद ज्ञान भाव परिनये हैं। जिन्हकी सु. दृष्टि में न राग दोष मोह कहूं, विमल विलोकनि में तीनो जीति लये हैं ।। तजि परमाद घट सोधि जे निरोधि जोग, शुद्ध उपयोगकी दशामें मिलिगये हैं। तेई बंधपद्धति वि: डारि परसंग डारि आपुमें मगनव्है के.आपुरूप.भयेहैं।६२॥ सवैया इकतीसा-जेते जीव पंडित खयोपशमी उपशमी तिन्हकी अवस्था ज्यों लुहारकी संडासी है। छिन आग . मांहि छिन पानिमांहि तैसे एउछिन में मिथ्यात छिन ज्ञान कला भासी है ॥ जोलोंज्ञान रहै तोलों सिथिल चरन मोह जेसे कीले नगकी सगति गति नासीहै। आवत मिथ्यांत तव नानारूप बंध करै जो उकीले नागकी प्रकृतिपरगासीहै।६३॥ दोहा--यह निचोर या ग्रंथको, कहै परमरस पोष । .... ......तजै शुद्ध नयबंध है, गहै शुद्धनय मोष ॥४॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) सवैया इकतीसा-करमके चक्रमें फिरत जगवासाजीव हैरह्यो वहिर मुख व्यापत विषमता । अंतर सुमति आई विमल वडाई पाई, पुद्गल सोंप्रति टूटी छूटीमाया ममता। शुद्ध नै निवास कीन्हो अनुभौ अभ्यास लीन्हो, भ्रमभाव छांडि दीनो भिनो चित्त समता । अनादि अनंत अविकलप अचल ऐसो, पद अवलम्वी अवलोकेराम रमता॥६५॥ सवैया इकतीसा-जाके परगास में न दीसे रागदोष मोह आश्रय मिटत नहिं बंधको तरस है । तिहुंकाल जामें प्रतिविवत अनंतरूप, आपुहू अनंत सत्तानंततें सरस है । भाव श्रुत ज्ञान परवान जो विचारि वस्तु, अनुभौ करे जहां न बानीको परस है। अतुल अखंड अविचल अविनासी धाम, चिदानन्द नाम ऐसो सम्यक दरस है॥६६॥ इतिश्रीनाटकसमयसारविषेभाश्रवद्वारपंचमसंपूर्णम् । छठा अध्याय संवरद्वार। दोहा-आश्रवको अधिकारयह, कह्यो यथावत जेम। • अवसंबरवरनन करों, सुनौ भविक धरिप्रेम ॥३७॥ सवैया इकतीसा--आतमको अहित अध्यातम रहित ऐसो आश्रव महातम अखंड अंडवत है । ताको विसतार गिलिबे कों परगट भयो, ब्रहमंड को विकासी ब्रहमंडवत है। जामें सवरूप जो सबमें सवरूप सोपें सबान सों अलित अकाश खंडवत है। सौहै ज्ञान भानु शुद्ध संवरको भेष धरे, ताकी रुचि रेखको अमारे दंडवतहै।६८॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) सवैया तेइसा-- शुद्ध सुछेद अभेद अबाधित, भेद वि ज्ञान सु तीन आरा । अंतर भेद सुभाउ विभाव करे जड़ चेतनरूप बुफारा ॥ सो जिन्हके उरमें उपज्यो न रुचै तिन्ह को परसंग सहारा । आतमको अनुभौ करि ते हरखे परखे परमातम धारा ॥ ६६ ॥ " सवैया तेइसा--जो कबहूँ यह जीव पदारथ, औसरपाइ मिथ्यात मिटावै । सम्यक धार प्रवाह बड़े गुन ज्ञान उदे. मुख ऊरध धावै ॥ तो अभिनंतर दर्वित भावित कर्म कि लेश प्रवेश न पावै । आतम साधि अध्यातम को पथ पूरण व्है परब्रह्म कहावे ॥ ७० ॥ सवैया तेईसा भेद मिथ्यात सु बेद महारस भेद विज्ञान कला जिन पाई । जो अपनी महिमा श्रवधारत, त्यागकरे बरसों ज पराई ॥ उद्धतरीति वसे जिनके घट होतु निरंतर ज्योति सदा । ते मतिमान सुवर्ण समान लगे तिनकों न शुभाशुभ काई ॥ ७१ ॥ अडिल छंद - भेदज्ञान संवरनिदान निरदोष है । सवरसों निरजरा अनुक्रम मोष है ॥ भेद ज्ञान शिवमूल जगतमहि मानिये | यदपि हेय है तदपि उपादय जानिये ॥ ७२ ॥ दोहा--भेदज्ञान तबलों भलो, जबलों मुक्ति न होय । परमज्योतिपरगटजहां, तहांविकल्प न कोय ॥ ७३ ॥ चौपाई --भेदज्ञान संवर जिन्ह पायो । सो चेतन शिवरूप कहायो ॥ भेदज्ञान जिनके घट नाहीं । ते जड जीव बँधे ॥ ७४ ॥ --भेद ज्ञान साबू भयो, समरस निर्मल नीर ! Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) धोवी अंतर आत्मा, पानिज शुनही ॥७५|| सवैया इकतीसा-जैसे रजसोचा रज लोधक दरव काढ़े, पायक कनक काही दाहत उपलकों। पंको गरम ज्यामारिच कातक फल, नीर कार उज्वल नितारिमार मलको। दधि. को मधेया मथि काहे जसे मालनकों, राजहंस जैसे दूध पी। त्यागि जलको ।तसे ज्ञानवंत भेदज्ञानकी सकति साधि, बेटे निज संपति उछ। परदल को ।। ७३ ॥ छप्पयछंद-प्रगट भेद विज्ञान, आपशुण परतुणजानापर परिनत परि स्यागि।शुद्ध अनुभव थित ठाने, करि अनुभव अभ्यास । सहज संवर परमासे, आश्रव द्वार निरोधास घ. न तिमर विनास, छय करि विभाव समभाव गजि। निरनिकल्पनिज पद गह, निर्मल विशुद्ध सामुत सुथिर। परम अ. तिद्रिय मुख लहै ।।७७॥ इति श्री नाटक गमगार का गदर हार छठा मपूर्ण. सातवां अध्याचा निर्जरा बार। दोहा-बरनी संवरकी दसा, जशा जुगति परमान। __ मुक्ति विसरनी निर्जरा.सुन भविक धरिकान ॥७॥ चौपाई-जो संवर पद पाइ अनंदे।जो पूरब छत कर्म निकंदे ॥ जो अफंदहें बहुरिन फंदे । सो निरजरा वनारसि 'वंदे ॥ ७॥ दोहा-महिनासम्मक ज्ञानकी,अरु विरागवल जोड़ा . क्रिया करत फल भजते। करसवंधनदिहोइ॥ ८॥ सबैयाइकतीसा-जस भूप कोतक लरूप करनीच कर्म, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) कौतुकी कहावै तासों कौन कहै रंक है । जैसे विभचारिनी विचारै विभचार बाझो, जारहीसों प्रेम भर तासों चित्त वंक है। जैसे धाइ बालक चुंघाइ करै लालि पालि, जाने तां. हि और को जदपि वाके अंक हैं । तैसे ज्ञानवंत नानाभांति करतति ठान, किरियाको भिन्न मानै यातें निकलंक है।॥ ८॥ पुनः-जैसै निशिबासर कमल रहै पंकहिमें, पंकज कहावै पैन याके ढिग पंक है। जैसे मंत्रवादी विषधरसों गहावै गात, मंत्रकी सकति वाके विना विपमंक है।जैसै जीभ गहै चिकनाइ रहै रूख अंग, पानी में कनक जैसै काइसों अटंक है। तैसै ज्ञानवंत नानाभांति करतूतिठान, किरियाको भिन्न मा. नै याते निकलंक है ॥ ८२ ॥ सोरठा-पूर्व उदय संबंध, विषय भोगवै समकिती। करैन नूतन वंध, महिमा ज्ञान विरागकी ॥८३॥ सवैया तेईसा-सम्यकवंत सदा उर अंतर, ज्ञान विराग उभै गुन धारै । जासु प्रभाव लखै निज लक्षन, जीव अजीव दशा निरवारै।आतमको अनुभौ करिव्है थिर ॥ आपुतरै अरु औरनि तारे, साधि सुर्व लहै शिव सर्म सुकर्म उपाधि व्यथा वमिझारै ॥ ८४ ॥ सवैया तेईसा-जो नर सम्यक्वंत कहावत, सम्यक ज्ञा. न कला नहि जागी। आतमभंग अवंध विचारत, धारत संग कहै हम त्यागी ॥ भेष धरै मुनिराज पटतर, मोह महानल अंतर दागी । सून्य हिये करतूति करै पर सो सठ जीवन होइ विरागी ॥ ८५ ॥ सवैया तेईसा-ग्रंथ रचै चरचै शुभ पंथ लखै जग में Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) व्यवहार सुपत्ता। साधि संतोष अराधिनिरंजन, देहसुसीख न लेइ अदत्ता.॥ नंग धरंग फिरै तजिसंग छके सरवंग सुधारस मत्ता । ए करतूनि करे सव्ये सामी न अनातन आतम सत्ता ॥ ८६ ॥ ध्यान धेरै करि इंद्रिय निग्रह, वियहसों न गिने निजनत्ता । त्यागि विलाति विशृति सिंटे तनजोग गहे भव भोग विरत्ता ॥ मौन रहे लहि मंद कपाय सह वधवंधन होड़ न तत्ता । ए करतति करे सटप ससुसेन अनातस बातम सत्ता ॥ ८७ ॥ चौपाई-जो विनुज्ञान क्रिया अवगाहे । जोपिनु किया लोख पदचाहे ॥ जो बिनु मोख कहे में सुखिया। सो अजान मूढनि में मुखिया ॥ ८८ ॥ सबैया इकतीसा-जगवासी जीवनिलों गुरु उपदेश कहै, तुम्हे इहांसोवतअनंतकालवीतीजागोव्हसुचत चित्तसमता समेतसुनो,केवल वचन जामें अक्षरसजीतेहैं।आऊ मेरे निकट वताउंमें तुमारे गुन, परन सुरस भरे करमती रीत है। ऐसे वैन कहे गुरु तर ते न धरेउर, मित्रकसे पुत्र किधों चित्रके से चीते हैं ॥ ८९ ॥ दोहा-पते पर बहुरों सुगुरु, बोल बचन रसाल । सेन दशा जागृत दशा, कहे दुहूंकी चाल ॥ ९ ॥ संवैया इकतीसा-कायाचित्र सारी में करम परजंक भारी, मायाकी सवारीसेज चादर कलपना । सेन कर चेतन अचेतनता नीदलिप,मोहकी परोस्यहे लोचनको ढपना॥ उदे बलजोर यह वासको सदद शेर, निष सुरू कारजकी दोर यहे सुपना । ऐसी बदसामें मगन रहे तिहकालाधावै भ्रम जाल में न पनि रूप अपना ॥ ११ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) सवैया इकतीसा - चित्र सारी न्यारी परजंक न्यारो सेज. न्यारी, चादर भी न्यारी इहां झूटी मेरी थपना ! प्रतीत अबस्था सैन निद्रा वही कोड पैन बिद्यमान् पलक न यामें च छपना ॥ श्वास औ सुपनदोउ निद्राकी अलग वृके, सू सब अंग लखि आतम दरपना । त्यागी भयो चेतन अचेत नता भाव त्यागी, भाले दृष्टि खोलि के संभाले रूप · " अपना ॥ ९२ ॥ दोहा - इहि विधिजे जागै पुरुष, ते शिवरूप सदीव | जे सोहि संसार में, ते जगवासी जीव ॥ ९३ ॥ 1 सवैया इकतीसा - जब जीव सोवै तचसमुझे सुपन सत्य, वह झूठलागे जबजागै नींद खोड़के। जांगे कहै यह मेरा तन यहमेरी सोंज ताहू झूठमानत मरणथिति जोइके। जाने निज मरम भरन तबसू झूठ, बूझैं जब और अवतार रूप होड़के । बाहु अवतारकी दशामें फिरि यहे पेच, याहि भांति झूठो जग देख्यो हम ढोड़के ॥ ९४ ॥ सवैया इकतीसा - पंडित विवेक लहि एकता की टेक गहि दुंद अवस्थाकी अनेकता हरतु है । मतिश्रुत अबधि इत्यादि विकलप मेटी, निरविकलप ज्ञान मनमें धरतु है ॥ इंद्रियजनित सुख दुःखसों विमुख व्हैके, परमको रूप है करम निर्जरतु है । सहज समाधि साधि त्यागी परकी उपाधि आतम आराधि परमातम करतु है ॥ ९५ ॥ सवैया इकतीसा - जाके उर अंतर निरंतर अनंत दर्द, भाव भासि रहेपें सुभाउ न टरंतु है । निर्मलसों निर्मल सुजीवन प्रगट जाके, घट में अघटरस कौतुक करतु है ॥ जाने Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७) मति श्रुत औधि मनपर्यै केवल सु, पंचधा तरंगनि उमंग उछरतुहै । सोहै ज्ञानउदधि उदार महिमा अपार, निराधार एकमें अनेकता धरतु है।।९६॥ . सवैया इकतीसा केई क्रूर कष्ट सहै तपसों शरीर दहै धूम्रपान करै अधोमुख व्हेके झूले है । केई महाबत गहै क्रियामें मगन रहै, वहै मुनि भारमें पयार केसे पूले है ॥ इ. त्यादिक जीवनको सर्वथा मुगति नाहि, फिरे जगमाहि ज्यों बयारके बघूले है। जिनके हिये में ज्ञान तिन्हहीको निरबान, करमके करतार भरम में भूले हैं ॥९७॥ दोहा-लीन भयो विवहारमें, उकति न उपजै कोइ। दीन भयो प्रभुपद जपै, मुकति कहांसों होइ॥९८॥ प्रभु समरो पूजो पढ़ो, करों विविध बिवहार। ' मोक्ष सरूपी आतमा, ज्ञानगम्य निरंधार ॥९९॥ - सवैया तेईसा-काज बिना न करेजिय उद्यम लाज बिना रनमांहि न झंझै । डील बिना न सधै परमारथ, सील बिना सतसों न अरूझै ॥ नेम बिना ने लहे निहचे पंद प्रेम विना रस रीति न बूझै। ध्यान बिना न थमे मनकीगति, ज्ञान बिना शिवपंथन सूझै ॥ २०० ॥ ' सवैचा तेईसा-ज्ञान उदै जिनके घट अन्तर, ज्योतिजगी मति होति न मैली। बाहिज दृष्टिमिटी जिन्हके हिय, आतम ध्यान कलाबिधि फैली॥जे जड़ चेतन भिन्नलखै सु विवेक लिये परखैगुनथैली।तेजगमें परमारथ जानि गहै रुचिमानि अध्यातम सैली ॥ १ ॥ . दोहा-बहुविधिक्रियाकलेससों, शिवपदलहै न कोई। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ..." ( ३८) । ज्ञान कला परकाशसों, सहज मोक्षपद होइ ॥ २ ॥ ज्ञानकला घट घट बसे, योग युगतिके पार । निज निज कलाउदोत करि, मुक्तहोइ संसारः॥ ३॥ - कुंडलियाछन्द-अनुभव चिंतामनिरतन, जाके हिय परगास। सो पुनीत शिवपद लहै, देहै चतुर्गति वास ॥ दहै चतुर्गतिवास, भासधरि क्रियान मंडै । नूतन वैध निरोध, पूर्व कृत कर्म विहंडै ॥ ताके न गनु विकार, न गनु वहुभार न गनु भौ । जाके हिरदे माहि, रतन चिंतामनि अनुभौ ॥ १ ॥ __ सवैया इकतीसा-जिनकेहियेमें सत्य सूरज उदोत भयो, फेलिमति किरन मिथ्यात तम. नष्टहै । जिनकी सुदृष्टिमें न परचै विषमतासों समतासों प्रीति ममतासों लष्ट पुष्टहै ।।... जिन्हके कटाक्षमें सहज मोक्षपथ सधै, साधन निरोध जाके तनको न कष्टहै । तिन्हको करमकी किलोल यहहै समाधि डोले. यह जोगासन वोले यह मष्ट है ॥ ५॥ ... सवैया इकतीसा-भातम सुभाउ परभाउकी न सुद्धि : ताको, जाको मनमगन परिग्रहमें रह्यो है । ऐसो अविवेक को निधान परिग्रह राग, ताको त्याग इहालों समुञ्चैरूप कह्यो है। अब निज परे भ्रम दूरि करिवेको काजु बहुरो सुः गुरुः उपदेशको उमह्यो है। परिग्रह अरु परिग्रहको विशेष अंग कहिवेको उद्यम उदीरि लहलह्यो है. ॥ ६॥::::: दोहा-त्याग जोग परवस्तुसव, यह सामान्य विचार। . विविधवस्तु नाना विरति, यह विशेषविस्तार ॥ ७ ॥ चौपाई-पूरव कर्म उदै रस भुजे ज्ञान मगन ममता.. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .( ३९) न प्रयुंजे ॥ उर में उदासीनता लहिये । यों बुध परिग्रह वंत न कहिये॥८॥ . सवैया इकतीसा-जे जे मनवंछित विलास भोग जगत में, तेते विनासिक सव राखे न रहत हैं, । और जे जे भोग अभिलास चित्त परिणाम, तेते विनासीक धर्मरूप है वहत हैं ॥ एकता न दुहों मांहि तातेवांछा फुरेनाही, ऐसे भ्रम कारजको मूरख वहत हैं । संतत रहे सचेत परसो न करे हेत याते ज्ञानवन्तको प्रबंधक कहत हैं ॥ ९ ॥ . सवैयाइकतीसा जैसे फिटकडी लोग हरडेकी पुटविना स्वेत वस्त्र डारिये मजीठरङ्ग नीरमें । भीग्योरहै चिरकाल सर्वथा न होइलाल, भेदे नहीं अंतर सपेतीरहे चीर में तैसे समकितवन्त रागदोष मोह विनु, रहे निशिवासर परिग्रह की भीरमें । पूरव करमहरे नूतनन बंध करेजाचे नजगत् सुख राचे नशरीरमें॥१०॥ सवैया इकतीसा-जैसे काहुदेसको वसैया वलवन्त नर, जंगलमें जाइ संधुछत्ताको गहतु है । वाको लपटाय चहुंओर मधुमक्षिकाप,कंवलीकीओट सोनडंकित रहतु है ॥ तैसे समकिती शिव सत्ताको सरूप साधे, उदेकी उपाधिकों स. माधिसी कहतु है। पहिरे सहजको सनाह मनमें उछाह,ठाने सुखराह उदवेगनलहतु है॥ ११ ॥ दोहा-ज्ञानी ज्ञान मगन रहै, रागादिक मल खोइ । चित उदास करनीकरे, करम बंधनाह होई ॥१२॥ मोह महातम मलहरे, धरे सुमति परगास । मुगति पंथ परगटकरे दीपक ज्ञान विलास ॥१३॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) सवैया इकतीसा-जामें धूमको न लेस बातको न परवेस, करम पतंगनिको नाशकरे पलमें । दसाको न भोगन सनेहको संयोग जामें, मोह अंधकारको विजोग जाके थलमें॥ जामें नतताइ नहीं रागरंक ताइरंच, लह लहे समता स. माधिजोग जलमें । ऐसी ज्ञानदीपकी सिखा जगी अभंग रूप, निराधार फुरीपेदुरी है पुदगलमें ॥ १४ ॥ सवैया इकतीसा-जैसोजो दरबतामें तैसोही सुभाउसधे, कोउ दर्ब काहुको सुभाउ न गहतु है । जैसे संख उज्वल विविध वर्णमाटीभखे, माटीसो न दीसे नितउज्वल रहतुहै ॥ तैसे ज्ञानवंत नाना भोग परिग्रह जोग, करतविलास न अज्ञानता लहतुहै । ज्ञानकला दूनी होइ दुन्द दसा सूनीहोइ ऊनी होई भौथिति बनारसी कहतुहै॥१५॥ सवैया इकतीसा-जोलोंज्ञानको उदोत तोलों नही बंधहोत, वरते मिथ्याततब नानाबंध होहिहै । ऐसोभेद सुनिके लग्योतूं विषै भोगनिसों, जोगनिसों उद्यमकी रीतितें बिछोहि है ॥ सुनो भैया संतत कहे में समकितवंत, यहुतो एकंत परमेसरकी दोहिहै । विषेसों विमुख होइ अनुभो दशा आराहि,मोषसुख ढोहि ऐसी तोहि मति सोहि है ॥ १६ ॥ चौपाई-ज्ञानकला जिनके घट जागी।तेजगमांहिसहज वैरागी॥ज्ञानी मगन विषै सुखमाही। यहु विपरीत संभवै नां ही ॥ १७ ॥ दोहा-ज्ञान सहित वैराग्य वल,शिव साधैसमकाल। __ ज्यों लोचन न्यारे रहैं, निरखै दोऊनाल ॥ १८॥ चौपाई-मूढ़ कर्मको कर्त्ता हो । फलमभिलाष धरै फल Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) नोवै ॥ज्ञानी क्रिया करै फल सूनी। लगैन लेप निर्जरा दूनी१९ दोहा-बधे कर्मसों मूढज्यों, पाट कीट तन पेम । खुलै कर्मसों समकिती, गोरख धंधा जेस ॥ २०॥ सवैया तेईसा-जे निज पूरबकर्म उदै सुख भुंजतभोग उदास रहेंगे। जे दुख में न बिलाप करें निरबैर हिये तन ताप सहेंगे॥ है जिनकेदृढ आतम ज्ञान क्रिया कारके फलंकों न चहेंगे। ते सुविचक्षन ज्ञायकहै तिनकों करता हमतो न कहेंगे ॥ २१ ॥ सवैया इकतीसा-जिनकी सुदृष्टि में अनिष्ट इष्ट दोउ सम, जिनको आचार सुविचार सुभ ध्यानहै । स्वारथको त्यागी जे लहेंगे परमारथकों, जिनके बनिजमें नफा न है न ज्यानहै । जिनकी समुझमें शरीर ऐसो मानीयतु, धानकोसो छीलक कृपानकोसोम्यानहै । पारखी पदारथ के साखी भ्रम भारथके तेई साधु तिनहीको जथारथ ज्ञान है ॥ २२ ॥ सवैया इकतीसा-जमकोसो भ्राता दुःखदाता है असाता कर्म, ताके उदै मूरख न साहस गहतुहै। सुरग निवासी भूमि वासी औ पतालवासी, सबहीको तन मन कंपत रहतु हैं। उरको उजारों न्यारो देखिये लपत भेसों,डोलतु निशंकभयो आनंद लहतु है। सहज सुबीर जाको सासुतो शरीर ऐसो, ज्ञानी जीव आरज आचारंज कहतुहँ ॥२३॥ दोहा-इह भव भय परलोक भय,मरन वेदना जात। अनरक्षा अनगुप्त भय, अकस्मात सय सात ॥ २४ ॥ . सबैया इकतीसा-दसधा परिग्रह बियोग चिंताइहभब, दुगति गमन परलोक भय सानिये । माननिको हरन सरन भै Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) कहावै सोई, रोगादिक कष्ट यह वेदना बखानिये ॥ रक्षक हमारो कोउ नांही अनरक्षा भय, चौरमै विचार अनुगत मन आनिये।अन चिंत्यो अबाह अचानक कहांधों होइ, ऐसो भय अकस्मात जगतमें जानिये ॥ २५ ॥ ..... छप्पय छंद-तख शिख मित परवान; ज्ञान अवगाह निरक्खत। आतमअंग अभंग,संग परधनइम अक्खताछिनभंगुर संसार, विभव परिवार भारजसु । जहां उतपत्ति तहां प्रलय, जालु संयोग बिरह तसु॥परिग्रह प्रपंच परगट परखि,इहभव भय उपजै नचित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरू पनिरखंत नित ॥ २६ ॥ . . . . . . . । छप्पय छंद-ज्ञानचक्र ममलोक,जासुअवलोक मोख सुख। इतरलोक मम नाहि, नाहिं जिसमाहिंदोष दुख ॥पुन्न सुगति दातार,पाप दुरगति पद दायका दोखंडित खानिमें, अखंडित है शिवनायक ॥इह विधि विचार परलोक भय, नाहि व्यापक, वरतें सुखितः । ज्ञानी निसंक निकलंक निज, ज्ञानरूपनि खंतनित ॥ २७ ॥ ......... ' छप्पय छंद-फरस जीम नाशिका, नैन अरु श्रवन अक्ष इति। मन बच तनवल तीन, लास उत्सास आउथिताए द सप्राणविनाश, ताहि.जगमरण कहीजे ज्ञान प्राण संयुक्त जीव तिहु काल न छीजे॥ यह चिंत करत नहि मरण भय, नय प्रमाण जिनवर कथित । ज्ञानी निसंक निकलंक निज,ज्ञान रूप निरखंत नित ॥ २८ ॥ ...... .. छप्पय छंद-वेदनवारो जीव, जांहि वेदंत सोउ जिय। • यह वेदना अभंग,सुतो मम अंगनांहि व्ययं ॥ करम वेदना . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) द्विविध, एक सुखमय दुतीय दुख । दोऊ मोह विकार, पुद्गलाकार बाहिरसुख ॥ जव यह पिनेक मनमहि धरत, तव न वेदना अय विक्ति।ज्ञानी निसंकलिकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥२९॥ छप्पय छंद-जो स्वबस्तु सत्ता सरूप, जगमहि निकाल गत । तासु बिनास न होइ, सहज निहचे प्रमाण मत ॥ सो मम आतम दरव, लरवथा नहि सहाय घर । तिहि कारन रक्षक न होइ, भक्षक न कोइपर ॥ जब यहि प्रकार निरधार किय, तव अनरक्षा भय नसिताज्ञानीनिसंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित॥३०॥ छप्पयछंद-परमरूप परतक्ष, जासु लक्षन चिन सण्डित । पर प्रवेश तहां नाहि, जाहिं नहि अगम अखंडित ॥ सोनम रूप अनूप, अछत अनलित अलूट धन।ताहिं चोर किसगहै, ठोर नहिं लहे और जन ॥ चितवंत एस धरि ध्यान जव, तघ अगुप्तभय उपललिताज्ञानीनिशंक निकलंक निज, ज्ञान रूप निरखंत नित ॥३१॥ छप्पय छंद-शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, सहज सु समृद्ध सिद्ध सस । अलख अनादि अनंत असुल अविचल सरूप मम ॥ चिदविलास परगाल, वीत विकलर सुख थानक । जहां दुविधा नहिं कोइ, होइ तहाँ कछु न अचानक ॥जब यह विचार उपजंत तव, अकस्मात भय नहि उदित । ज्ञानी निसंक निकलंक निज ज्ञानरूप निरखंत नित ॥३२॥ छप्पयछंद-जो परमुन त्यागंत, शुद्ध निजगुन गहंतधुव । विमल ज्ञान अंकृर, जासु घट महि प्रकास हुव ॥ जो पूरक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतकर्न, निर्जराधार वहायत । जो नव बंध निरोध, मोप मारन सुख धावत ॥ निसंकतादि जस अष्टगुन, अष्टकर्म अरि सहरत । सो पुरुष विचरा तासु पप, बनारसी वन्दन करत ॥ ३३ ॥ सोरठा-प्रथम निसंतजानि,बुतिय अवछिनपरिनमना तृतिय अंगअगिलानि, निलदृष्टिचतुर्थगुन ॥३४॥ पंचअकथपरदोष, थिरीकरन छट्ठमसहज । सत्तम वच्छलपोप, अट्ठम अङ्ग प्रभावना ॥३५॥ सदैया इकतीला-धसमें न संसै शुभकर्म फलफोन इच्छा अशुभ को देखिन गिलानि आनै चित्त में सांचि दृष्टिगत काडू प्रानीको न दाप भारदे, चंचलताभानि थिति वाघटाने चित्त में। प्यारे निजरूपसा उछाहक तरंग उठे, एइआठो अंग जव जागे लमकिप्तमें। ताहि समकितकों धरेसो समकित वंत, बहे मोखपाव उन आवै फिर इत में ।।३६॥ । सवैया इकतीसा-पूर्व बंध नासे सोतो संगित कला प्र. काशे, नव वंध रुंधी ताल तोरत उछरिक । निसंकित आदि अष्ट अंग संग सखा जोरी, समता अलाप चारि करे सुख भरिके ॥ निरजरा नादगाजे ध्यान मिरदिंग वाजे, छक्यो महानंद में समाधि रीति करिके । सन्तारंग भूमि में मुकत भयो तिहूंकाल, नाचे शुद्ध दृष्टि नट ज्ञान स्वांग धरिक ॥३७॥ इतिश्रीसमयसारनायकत्रिपेनिनवादारसप्तमसंपूर्ण । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) ८ अध्याय बंधद्वार । दोहा - कही निर्जरा की कथा, शिवपथ साधनहार । अव कछु बंध प्रबंधको, कहूं अल्प विस्तार ॥ ३८॥ सवैया इकतीसा - मोहमद पाई जिन संसारी विकल कीने, याहिते अजानुबाहुविरद वहतु है । ऐसो वंधवीर विकराल महाजाल सम, ज्ञानमंद करे चंदराहु ज्यों गहतु है ॥ ताको वल संजिवेकों घटमें प्रगट भयो, उद्धत उदार जाको उस मह है । तो है समकित सूर आनंद अंकूर ताही, निरखि बनारसी नमो नमो कहतु है ॥ ३९ ॥ सवैया इकतीसा - जहां परमातम कलाको परगास तहां, धरम धरा में सत्य सूरजको धूपहै । जहां शुभ अशुभ करमको गढास तहां, मोहके विलास में महाअंधेर कूप है | फेळी फिरै छटासी घटासी घटघनवीच, चेतनकी चेतना दु धागुपचूप है । वुद्धिसों न गहीजाय वेनसों न कहीजाय पानी की तरंग जैसे पानीमें गुडूप है ॥ ४० ॥ सवैया इकतीसा - कर्मजाल वर्गनासों जगमें न बंधे जीव, वंधे न कदापिमन वच काय जोगसों । चेतन अचेतन की हिंसासों न बंधेजीव, बंधे न अलख पंचविषे दिखरोगसों ॥ कर्मों अवध सिद्ध जोगसों अबंध जिन हिंसासों अबंध साधु ज्ञाता विषै भोगसों । इत्यादिक वस्तु के मिलापसों न बंधे जीव, बंधे एक रागादि अशुद्ध उपजोगसों ॥ ४१ ॥ सवैया इकतीसा - कर्मजाल वर्गनाको वास लोकाकाश माहिं, मनवच कायको निवास गति आउमें । चेतन अ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) चेतनकी हिंसा से पुलमें, बिषेभोग वरते उदके उरनाउ में ॥ रागादिक शुद्धता अशुद्धता है अलखकी यहे उपादान हेतु बंध बढाउ | याहिते विचक्षन अबंध कक्षो तिहूँ काल, रागदोष मोहनादि सम्यक् सुभाउ में ॥ ४२ ॥ सवैया इकतीसा - कर्मजाल जोग हिंसा भोगसों न बंधे पै तथापि ज्ञाता उद्यमीवखान्यो जिन बैनमें | ज्ञानदृष्टि दे तु विषै भोगनिसों हेतु दोउ, क्रियाएकखेत यों तो बने नांहि जैनमें ॥ उदैबल उद्यम गर्दै पै फलकौं न चहे निरदै दसा न होई हिरदेके नैनमें । आलस निरुद्यमकी भूमिका मिथ्यात मांहि, जहां न संभरै जीव मोहनींद सैनमें ॥ ४३ ॥ दोहा - जब जाकौ जैसे उदै, तबसो है तिहि थान । सकति मरोरै जीवकी, उदै महा बलवान ॥ ४४ ॥ सवैया इकतीसा - जैसे गजराज पन्यो कर्दमके कुंडबीच उद्यम अहूटै नपै छूटै दुःख द्वंदसें । जैसे लोह कंटक की कोरसों उरम्यो मीन, चेतन असाता लहै साताल है संदसों ॥ जैसे महाताप सिरवाहिसों गरास्यो नर, तकै निजकाज उठी सकै न सुछंदसों । तैसे ज्ञानवंत सब जाने न बसाई कछु, बंध्यो फिरैपूरब करमफल फंदसों ॥ ४५ ॥ चौपाई - जे जिय मोहनींद में सोवै, तै आलसी निरुद्यमि होवै ॥ दृष्टिखो लिजे जगै प्रवीना । तिन्हि आलस तजिउद्यम कीना ॥ ४६ ॥ सवैया इकतीसा - काच बांधै सिरसों सुमनी बांधें पायनि सों, जाने न गंवार कैसी मनी कैसो काच है । योंहीमूढ़ जूठमें A Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगन जूठहिकों दारे, जूठं बात मानै पै न जाने कहा सांच है ॥ मनीको परखि जान जोहरी जगत् मांहि, साचकी समुझी ज्ञान लोचनकी जाच है, जहांको जु वासीसो तो तहांको मरम जाने, जाको जैलो स्वांग ताको तैसरूप नाच है ॥ ४७ ॥ दोहा-बंध बंधावे अंध व्हे, ते आलसी अजान । मुक्ति हेतु करनी करें, ते नर उद्यमवान ॥४८॥ सवैया इकतीसा-जवलगुजीव शुद्ध वस्तुको विचारै ध्या तवलगु भोगसों उदासीसरवंग है । भोगमें मगन तब ज्ञानकी जगन नाहि, भोग अभिलाषकी दशा मिथ्यात अंग है ॥ ताते विपै भोगमें भगन तो मिथ्याति जीव, भोग सों उदासि सो समकिति असंग है। ऐसी जानि भोगसों उदासि है मुगति साथै, यह मन चंग तो कठोतमांहि गंग है ॥१९॥ दोहा-धरम अरथ अरु काम शिव, पुरुषारथ चतुरंग। कुधी कलपना गहि रहै, सुधी गहै सरवंग ॥५०॥ सबैया इकतीसा-कुलको आचार ताहि सूरख धरम कहै पंडित धरम कहै वस्तुके सुभाउको । खेहको अज्ञानी अरथक है, ज्ञानीकहै अरथ दरन दरताउको ॥दंपति को भोग ताहि दुरवुद्धि काम कहै, सुधी कास कहै अभिलाप चित आउको, इन्द्रलोक थानको अजानलोक कहै मोक्ष, मतिमान मोक्ष कहे बंधके अभाउको ॥ ५१ ॥ __ सवैया इकतीसा-धरमको साधन जुबस्तुको लुभाउ लाथै, अरथको साधन विलेछ दर्वषटमें।यह काम साधनाजु संगहै निरास पद, सहज स्त्ररूपमोख सुद्धता प्रगटमें ॥ अंतर सु. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) दृष्टिसों निरंतर विलोकै वुध, धरम अरथ काम मोक्ष निजघः टमें । साधन आराधनकी.सोज रहै जाके संग, भूलों फिरै : मूरख मिथ्यातकी अलटमें ॥ ५२. ॥.....: : सवैयाइकतीसा-तिहूं लोकमांहि तिहूंकाल लप जीवनि कों, पूरब करम उदै आइ रस देतुहैं । कोउदीरघाउ धरै को । उ अलपाउमरै, कोउ दुखी कोउसुखी कोउसमवेतहै ॥ या.. हीमेंजीवायो याही मान्यो याहि सुखी कन्यो दुखों कन्यो एसी मूढ़ आपु मानी लेतु है । याही अहं बुद्धिसों न विलसै भरम मूल यहै मिथ्या धरम करम बंध हेतुहै ॥ ५३ ॥ सबैया इकतीसा-जहांलो जगतके निवासीजी जगत में, सबैअसहाय कोऊ काहुको न धनीहै।जैसीर पूरब करमसत्ता :: बांधिजिन, तैसी तैसी उदै में अवस्था आइ वनी हैं ॥ एते परिजो कोउ कहै कि मैं जीवावोंमारों इत्यादि अनेक विकलप बात धनी है।सोतो अहं बुद्धिसों विकल भयो तिहूंकाल, डोले.. निज आतम सकति तिन हनी है ॥ ५४॥.... सवैया इकतीसा-उत्तम पुरुषकी दशा ज्यों किसमिस दाख, बाहिज़ अभिंतर विरागीमृदु अंग है । मध्यम पुरुष ना- : रियर केसी भांति लिये, वाहिज कठिन हिय कोमल तरंग है ॥ अधम पुरुष बदरीफल समान जाके वाहिरसों दिसै न'रमाइ दिल संगहै । अधमतों अधम पुरुष पुंगीफल सम, . अंतरंग बाहिर कठोर सरवंग हैः ॥ ५५ ॥:... सवैया इकतीसा-झीच सो कनक जाके नीचसा नरेशपद, ... मीचसी मिताई गरवाई जाके गारसी।जहरसी जोग जानि । कहरसी करामाति,हहरसीहाँस पुद्गल छवि छारसी। मालसो. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) जग बिलास भालसो भुवनबास,काल सो कुटंब काज लोक लाजलारसी।सीठ सो सुजस जानै बीठसोबखतमान, ऐसी जाकी रीति ताहि बंदत बनारसी॥५६॥ __सवैया इकतीसा-जैसे कोउ सुभट सुभाय ठग सूर• खाय, चेरा भयो ठगनीके घेरामें रहतु है । ठगोरी उतरिगई तबतांहि सुधिभई, पन्यो परवस नाना संकट सहतु है. ॥ तैसही अनादिको मिथ्याति जीव जगतमें, डोले आठौं जास विसराम न गहतुहै । ज्ञान कला भाली भयो अंतर उदासी पै तथापि उदै व्याधिसों समाधिन स “सवैया इकतीसा-जैसें रांक पुरुषके भाये कानी कोड़ी धन, उलूवाके भाय जैसे संझाई विहान है । कुकरके भाये ज्यों पिडोर जिरवानी मठा, सकरके भाय ज्यों पुरीष पकवानहै। वायसके भाये जैसे नींदकी निवोरी दाखं, वालकके सायें दंत कथाज्यों पुरानहै । हिंसकके भाये जैसे हिलामें धरम तैसे, मूरखके भाये सुभ बंध निरवानहै ॥ ५८ ।। सवैया इकतीसा-कुंजरकों देखि जैले रोष करी सुंसे स्वान, रोष करै निर्धन विलोकि धनवंतकों । रैनके जगैयाको विलोकि चोर रोष करै, मिथ्यमति रोषकर सुनतसिद्धंतको ॥ हं-. 'सकों. बिलोकि जैसे काग मनि रोष करे, अभिमानी रोष करै देखत महंतकों। सुकविकों देखि ज्यों कुकवि मन रोष करै, त्योंही दुरजन रोष करै देखि संतकों ॥ ५९ ॥ - ... सवैया इकतीसा-सरलकों सठ कहै बकताको धीठ कहै, बिनो करै तासों कहै धनको अधीनहै। छमीको निबल कहै. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) दमीकों अदत्ती कहै, अधुर वचन बोले तासोंकहै दीनहै॥धरमीकों दंभी निसपहीकों गुमानी कहै, तिशना घटावै तासों कहै भागहीन है । जहां साधु गुण देखै तिन्हकों लगावै दोष, ऐसो कछु दुर्जनको हिरदो मलीनहै ॥ ६ ॥ . चौपाई-में करता में कीन्ही कैसी । अब यों करों कही जो ऐसी ॥ ए विपरीत भाव है जामें । सो बरतै मिथ्यात दसा में ॥ ६१ ॥ दोहा-अहंबुद्धि मिथ्यादसा, धरै सु मिथ्यावन्त। विकल भयो संसार में, करै विलाप अनन्त ॥६॥ सवैया इकतीसा-रविके उदोत अस्त होत दिन २ प्रति, अंजुलीके जीवन ज्यों जीवन घटतु है। कालके ग्रसत छिन छिन होत छीन तन, और के चलत मानो काठसो कटतु है ॥ एते परि मूरख न खोजै परमारथकों, स्वारथ के हेतु भ्रम भारत ठटतुहै। लग्यो फिर लोगनिसों पग्यो परिजोगनिसों, विषे रसभोगनिसों नेकुन हटतु है ॥ ६३ ॥ सवैया इकतीसा-जैसे भृग मत्त वृषादित्य की तपति मांहि, तृषावन्त मुषा जल कारण अटतु है। तैसे भववासी मायाही सों हित मानि मानि, ठानि ठानि भ्रम भूमि नाटक नटतुहै॥आगेको ढुकत धायपाछे बछरा चराय, जैसे दृगहीन नर जेवरी वटतु है। तैसे मूढ़ चेतन सुकृत करतूति करै, रोवत हसतफल खोवतखटतु है ॥ ६४ __ सवैया इकतीसा-लिये दृढ़ पेच फिरै लोटन कबूतर सो उलटो अनादि को न कहो सु लटतु है । जाको फल दुःख -- ताही साता सो कहत सुख, सहित लपेटी असी धारासी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) चटतु है ॥ ऐसे मूढ़ जन निज संपती न लखे क्योंही, मेरी मेरी मेरी निशि बासर स्टतु है । याही ममता सों परमारथ बिनसी जाइ, कांजी को फरस पाई दूध ज्यों . फटतु है ॥ ६५ ॥ · सवैया इकतीसा-रूपकी न झांक हिये करम को डांक पिये, ज्ञान दवि रह्यो मिरगांक जैसे धन में । लोचन की ढांक सों न मानै सदगुरु हांक, डोलै पराधीन मूढ़ रांक तिहूं पन में ॥ टांक इक मांस की डलीसी तामें तीन फांक, तीनि को सो अंक लिखि राख्यों काहु तन में । तासों कहै नांक ताके राखिबेको करे कांक, लोकसो खरग बांधि वांक धरै मनमें ॥ ६६ ॥ __ सवैया इकतीसा-जैसे कोउ कूकर क्षुधित सूके हाडचावे हाडनिकी कोर चिहू ओर चुभे मुख में । गाल तालू रस मांस मूढ़निको मांस फाटे, चाटै निज रुधिर मगन स्वाद मुख में ॥ तैसे मूढ़ बिसयी पुरुष रति रीत ठाने तामें चित साने हित. माने खेद दुख में । देखै परतक्ष बल हानी मलमूतखानी, गहेन गिलानी पगी रहे रागरुख में॥६७॥ .. अडिल्ल छंद-सदा करमसों भिन्न सहज चेतन कह्यो । मोह विकलता. मानि मिथ्याती है रह्यो । करै विकल्प अनन्त, अहंमति धारिके । सो मुनि जो थिर होइ ममत्त .. निवारि के ॥ ६८॥ सवैया इकतीसा-असंख्यात लोक परवान जो मिथ्यात भाव, तेई ब्यवहार भाव केवली उकत है। जिन्ह के मिथ्यात गयो सम्यक दरस भयो, ते नियत लीन विवहार Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) लो सुकतहै ॥ निर विकलप निरूपाधि प्रातमा समाधि, साधि जे सगुन मोक्ष पंधको दुरुतहै । तेई जीव परमदशा में थिररूप है के, धरम बुके न करमसों रुकत है ॥६९॥.. ___ कवित्तछंद-जे जे सोह करमकी परिनति, वंध निदान कही तुम सजा संतत भिन्न शुद्ध चेतन सो, तिन्हि । सूल हेतु कह अव्य ॥ कै यह सहज जीव को कौतुक, के निमित्त पुदल दव्व । लील नवाइ शिष्य इमपूछत, कहै. सुगुरु उत्तर सुतु भव ॥७॥ . सवैया इकतीसा-जैले नानावरन पुरी बनाइदीजै हेठि उज्जल विमल मनु सूरज करांति है । उज्जलता भास जब वस्तुको विचार कीजै, पुरीकी झलकसों वरन भांति भांति है ॥ लैले जीव दरवको पुग्गल निमित्त रूप; ताकी ममतासो मोह मदिराकी सांति है । भेद ज्ञान दृष्टिसों सुभाव लाधि लीजे तहां, साचि शुद्ध चेतना अवाची सुख शांति है ॥ ७१ ॥ लवैया इकतीला-जैले महिमंडल में नदीको प्रवाह एक, ताहीसें अनेक भांति नीरकी दरनि है । पाथरको जोर तहां धारकी सरोरि होति,कांकरिकी खाति तहां झांगकी झरनि है ॥ पौनकी अकोर तहां चंचल तरंग उठे, भूमिकी निचानि तहां भौरकी परनि हैं। तैसे एक प्रातमा अनंत रस पुदगल,दुहकी संयोग में विभावकी भरनि है।।७२|| दोहा-चेतन लक्षन आतमा, जडलक्षन तन जाल । .. ... . तवकी मसता त्यागिक, लीजें चेतन चाल ॥७३॥ · सवैया तेईसा जो जगकी करनी सब ठानत; जो जग Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) जानत जोबत जोई । देह प्रमान पे देहसुँ दुसरो, देह अचेतन चेतन साई ॥ देह धरप्रभु देहसँ भिन्न, रहे परछन्न लखे नहि कोई । लक्षन वेदि विचक्षन बूझत, अक्षीनसों परतक्ष न होई ॥ ७४ ॥ सवैया तेईसा-दह अचेतन प्रेत दरी रज, रेतभरी मल खेतकी क्यारी । व्याधि की पाट अराधिकी आट उपाधि की जोट समाधिसों न्यारी ॥ रेजिय दह करे सुख हानि इते परि तोहि तु लागत प्यारी । बेहतु तोहि तगि निदान पि, हिल जे क्यु न दहकि यारी ॥ ७५ ॥ दोहा-मुनु प्रानी सदगुरु कहै, देह खेहकी खानि । धरै सहज दुख दोषकों, करें मोक्ष की हानि ॥ ७६ ॥ सवैया इक्तीला-रेतकीसी गढ़ी किधों मही है मसान के. सी, अंदर अंधेरी जैसी कंदराह ललकी । ऊपरकी चमक दन कपट भवनकी, धोख लागे भली जैसी कली हे कलेलकी ॥ औगुनकी ओंडी महा भोंडी मोहकी कनोंडी, मायाकी मसूरतिहे मरसिंह नेलकी । एली देह याहिके सनेह याकी संगतिसों, व्है रही हमारी मति कोल केसे वैलकी ॥७॥ ___ सर्वेया इकतीसा-ठोर टार रकतके कुंड केसनिके झंड, हाइनिसों भरी जैसे थरी है जुरेलकी । थोरे से पकाके लगे ऐसे फटजाय मानो,कागदकी पुरी निधों चादरहे बैल की ॥ सचे भ्रमा वानि ठानि मुद्रनिसों पहिचानि,करै सुख हानि अरुखानि बदफैलकी। ऐसी देह वाहिके सनेह यानी संगतिसों, व्हरही हमारी मति कोल केसे चलकी ॥ ७ ॥ सवैयाइकतीसा-पाटीबंधे लोचनसा संकचे दबोचनिसों, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे मनको भर स लहे चिनकोको त्रास सहे, कोचनिकोसोच सोनिवेदे खेदतनको धाइवोही धंधाअरुकधामाहि लग्योजोत,वारवार आरसहै कायरहै मनको॥भूखसहे प्याससहे दुर्जनको त्रास सहे, थिरता न गहे न उसा स लहे छिनको। पराधीन घूमै जैसो कोल्हुको कमेरो वैलते सोइ स्वभाव भैया जगवासी जनको ॥ ७ ॥ सवैया इकतीसा-जगतमें डोले जगवासी नर रूप धरी, प्रेतकैसे दीप किधो रेत केसे धुहें है। दीसे पटभुखन आडंवरसों निके फिरे फीके छिनमामि सांझी अंवर ज्यों सु. हेहै ॥ मोहके अनल दगे मायाकी मनीसोंपगे,दाभकी अ. नीसों लगे ऊसकेसे फुहे है, धरमकी बुझि नाही उरझे भरम माही.नाचि नाचि मरजाहि मरीकेसे चुहेहै ॥ ८० ॥ — सवैया इकतीसा-जासों तूं कहत यह संपदा हमारीसोतो, साधनि अडारी ऐसे जैसे नाक सिनकी । जासों तूं कहत हम पुन्य जोग पाई सोतो, नरककी साई है बड़ाई देढ दिनकी ॥ घेरा मांहि पोतूं विचारै सुख आखिन्हि को, माखिनके चूंटत मिठाई जैसे भिनकी । एते परि होहि न उदासी जगवासी जीव, जगमें असाता है न साता एक छिनकी ॥ ८१ ॥ . . दोहा-यह जगवासी यहजगत,इनसों तोहि न काज। तेरे घटमें जग वसै, तामें तेरो राज ॥ ८२॥ सवैया इकतीसा-याही नर पिंडमें विराजे त्रिभुवन धिति, याहिमें त्रिविध परिणाम रूप शृष्टि है । बाहिमें कर मकी उपाधि दुःख दावानल, याहिमें समाधि सुख बा , · की वृष्टिं है ॥ यामें करतार करतूति याहि में बिभूति, या Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) में गोग याही में वियोग यामें घृष्टि है । याहि में विलास सब गर्भित गुपतरूप, ताहिको प्रगट जाके अंतर सु दृष्टि है ॥ ८३ ॥ सवैया तेईसा-रे सचिवंत पचारि कहै गुरू, तं अपनोपद झत नाही । खोज हिये निज चेतन लक्षन है निज में निज गृझत नाही ॥ सिद्ध सुरूंद सदा अति उज्जल, मा यके फंद अरूझत नाहीं। तोर सरूप न वंदकि दोहिमें तो हिमें है तुहि सझत नाही ॥ ८ ॥ __ सवैया तेईसा-केइ उदासरहै प्रभु कारन, केइ कहीं उठि जाहि कहींक । केइ प्रनाम करे गदि मूरति, केइ पहार चढे चदि छीके । केड़ कहे असमान के ऊपरि, केइ कहे प्रभु हेठि जमीके । मरो धनी नहि दूरदिशांतर, मोमहि है मुहि सझतनीके ॥ ८५॥ दोहा-कहे सुगुरु जो समकिती, परमउदासी होइ। सुथिरचित्त अनुभी करे, यहपद परसे सोइ ।। ८६ ॥ सवैयाइकतीसा-छिनमें प्रवीन छिनहीं में मायासों म. लीन,छिनकम दीन छिनमाहि जैसोशकहै । लिये दोर धूप छिन छिनमें अनंतरूप,कोलाहल ठानत मथानकोसो तक है ॥ नट कोसोथार किधों हारहै रहटकोसो, नदी कोसो भौर कि कुंभारकोसो चक्रहै । ऐसो मन भ्रामक सुथिरमा. जु केसोहाइ, ओरहिको चंचल अनादिहीको वक्रहै ॥८७॥ सवैया इकतीसा-धायो सदा कालपे न पायो कहूँ सांचासुख, रूपसी विमुख दुख कृपवास वसाहे । धरसको घाती अधरमकासँघाती महा. कराफाती जाकी सन्निपाती Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) कीसी दसा है ॥ माया को झपटि गहै कायासों लपटि रहै, भूल्यो भ्रम भीर में बहीर कोसो ससा है। ऐसो मन चंचल पताका कसो अंचल, सु ज्ञानके जगे से निरवानपथ धसा है ॥ ८८॥ दोहा-जो मन विषय कषायमें, वरते चंचल सोइ । . जोमनध्यान विचारसों, रुकेसुअविचलहोइ ।। ८९॥ ताते विषय कषायसों, फेरि सुमनकी यानि। . शुद्धातम अनुभो विषे,कीजे अविचल आनि ॥९॥ सवैया इकतीसा-अलख अमूरति अरूपी अविनासी अज,निराधार निगम निरंजन निरंधहै। नानारूप भेष धरे मेंषको न लेसधरे, चेतन प्रदेसघरे चेतनाको षंधहै। मोहधरे मोहीसोविराजै तोमें तोहीसो,न तोहिसो न मोहीसो निरागी निरवंधहै। ऐसो चिदानंद याही घटमें निकट तेरे, ताही तूं विचार मन और सर्व धंधहे ॥ ९१ ॥ __ सवैया इकतीसा-प्रथम सु दृष्टिसों सरीररूप कीजे भिन्न तामै और सूछम शरीर भिन्न मानियें । अष्ट कर्मसावकी उ. पाधि सोई किज भिन्न ता में सुबुद्धिको बिलास भिन्न जानिये ॥ तामें प्रभु चेतन विराजित अखंडरूप, वहे श्रुत ज्ञान के प्रवान ठीक आनिये। वाहिको विचार करि वाहिमें गमन हुजे, वाको पद साधिवेकों ऐसी-विधि ठानिये ॥९२॥ ___ चोपाई-इहि विधि वस्तु व्यवस्था जाने। रागादिक निजरूप न माने । तातें ज्ञानवंत जगमांही। करम बंधको क. रता नाहीं ॥ ९३ ॥ . सवैया इकतीसा-ज्ञानी भेद ज्ञानसों विलेछि पुदगलकर्म, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) भातमाके धर्मसों निरालोकरि मानतो । ताको मूल कारण अशुद्ध रागभाव ताके, बासिषको शुद्ध अनुभौ अभ्यास ठानतो ॥ याही अनुक्रम पररूप सिन्न बंध त्यागि, आप मांहि अपनो सुभाव गहि आनतो । साधि शिषचालनिरबंध होहु तिहू काल, केवल विलोकि पाई लोका लोक जानतो॥९४॥ सवैया इकतीसा-जैसे कोउ हिंसक अजान महावलवान, खोदिमूल विरख उखारे गहिबाहुसों । तैसे मतिमान दर्व कर्म भावकर्म त्यागि, व्है रहै अतीत मति ज्ञानकी दसाङ्क सों ॥ याहि क्रिया अनुसार मिटे मोह अन्धकार, जगे ज्योति केवल प्रधान सवि ताहुसों । चुके न सकति सों लुके न पुद्गल मांहि, ढुके मोष थलकों रुके न फिरि काहुसों॥९५॥ इतिश्रीनारकसमयसारविपेवंधद्वारअष्टमसमाप्तः । ६ अध्याय मोक्षद्वार। दोहा-बंधद्वार पूरन भयो, जो दुख दोष निदान । अब बरनों संक्षेप सों, मोक्षद्वार सुख खान ॥ ९६ ॥ सवैया इकतीसा-भेद ज्ञान अरासों दुफारा करै ज्ञानी जीव, आतम करमधारा भिन्न २ चरचै । अनुभौ अभ्यास लहै परम धरम गहै, करम भरमको खजानो खोलि खरचै॥ योंही मोख मुख धावै केवल निकट आवै, पूरन समाधि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) लहै पूरनके परचै । भयो निरदोर याहि करनो न कछु और, ऐसो विश्वनाथ ताहि बनारसी अरचै ॥ ९७ ॥ सवैया इकतीसा-काहु एकजैनी सावधानव्हे परम पैनी, ऐसी बुद्धि छैनी घटमांहि डारिदीनी है। पैठी नौ करमभेदि दरक करस छेदि, सुसाउ विभाव ताकी संधि सोधि लीनी है ॥ तहां मध्य पातीहोइ लखी तिन्हि धारादोइ, एकमुधा सईएक सुधारस भीतीहै। सुधासों विरचिसुधा सिन्धुमें मगन भई, एती लव क्रिया एकससैवीच कीनी है ॥९८॥ दोहा-जैसी छैनी लोहकी, करै एकसों दोइ। . जड़ चेतन की भिन्नता, त्यों सुबुद्धिसों होइ ॥ ९९॥ सवैया इकतीसा-( सर्व दृस्वक्षर चित्रालङ्कार ) धरति धरम फल हरति करममल, मनवच तनवल करत समरपन । भवति असन सित चखाति रसन रित, लखति अमित वित करिचित दरपन ॥ कहति मरम धुर दहति भरमपुर, गहति परमगुर उर उपसरपन । रहति जगति हति लहाति भगति रति, चहात अगतिगति यह मति परपन ॥३०॥ सवैया इकतीसा-(सर्व गुरुअक्षर चित्रालङ्कार)रानाकोसो वाना लीने आपा साधे थाना चीने, दाना अंगी नाना रंगी खाना जंगी जोधाहै। मायावेली जेतीतेती रेतेमें धारेतीसेती, फंदाहीको कंदाखादे खेती कोलो लोधाहै ।। वाधा सेती हाता लोरे राधा सेतीतांता जोरे, वादीसेती नांता तोरै चांदीकोसो सोधा है। जानैजाही ताही नीक मानेराही पाही पीके, ठाने वातै डाही ऐसो धारावाही बोधा है॥१॥ सवैया इकतीसा-जिन्हिके दरब मिति साधत छ खंड.थि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ति, विनसै विभाव अरिपंकति पतन है । जिन्हिके भगतिको विधान पईनो निधान, निगुनके भेदमान चौदह रतन है ॥ जिन्हिक सुबुद्धि रानी चूरि सहा गोह वज, पूरेमंगलीक जे जे मोखके जतनहै । जिन्हिके प्रमान अंग सोहै चसू चतुरंग, तेई चक्रवर्ति तनु धरै पै अतनहै ॥ २ ॥ दोहा-श्रवन कीरत्न चितवन, सेवन वंदन ध्यान । लघुतासमता एकता, नौधा भक्ति प्रमान ॥ ३॥ ' सवैया इकतीसा-कोई अनुभदी जीद कहै मेरे अनुभौमें, लक्षन विभेद भिन्न करमको जाल है । जाने आप आपुनों जुआपुकरी आपुविषे, उत्पति माल भुव धारा असराल है। सारे विकलप मोसों न्यारे सरवथा भेरो, निहाचे सुसाट यह विवहार चाल है । मैं तो शुद्ध चेतन अनंतचिन सुद्रा धारी, प्रभुता हमारी एक रूप तिहूं काल है ॥ ४ ॥ सवैया इकतीसा-निराकार चेतना कहावै दरसल भुन, साकार चेतना शुद्ध ज्ञान गुण सार है। चेतना अद्वैत दोउ चेतन दरवमांहि, सामान विशेप सत्ताही को विसतारहै। कोउपहै चेतना चिनह नाही आत्मामें । चेतनाके नाल होत त्रिविधि विकारहै । लक्षनको नास सत्ता नास मूल वस्तुमाल, तातें जीव दरवको चेतनाआधार है ॥ ५ ॥ दोहा-चेतन लनन आत्मा, आतम सत्ता मांहि । सत्ता परिमित वस्तु है, भेद तिहमें नाहि ॥ ६ ॥ सवैया तेईसा-ज्यों कलधौत सुनारकि संगति, भूपन नांउ कहै सब कोई । कंचनता न मिटी तिहिं हेतु,वहै फिर औटि तु कंचन होई ॥ त्यों यह जीव अजीव संयोग भयो, बहुरूप Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयोनहि दोई।चेतनता न गई कबहु तिहिं,कारनब्रह्मकहावत सोई ॥ ७॥ · सवैयातेईसा-देखुसखी यह आपुविराजत,याकिदसा सब वाहिकुंसोहै । एकमें एक अनेक अनेकमें, द्वंद लिये दुविधा महि दो है॥आपु सँभारि लखै अपनो पद,आपु विसारके आ. पुहि मोहै।व्यापकरूप यहै घट अंतर, ज्ञानमें कौन अज्ञानु में कोहै!॥८॥ सदैया इकतीसा-ज्यों नट एकधरै बहु भेष कला प्रगटै जगौतुक देखै।आपु लखै अपनी करतूति वहै नट भिन्न वि. लोकत ऐवै॥ त्यों घटमेंनटचेतन राउ,विभाउदसाधरि रूप विलेखै। खोलि सुदृष्टि लखै अपनो पद, दुंद बिचार दसा नहि लेखै ॥९॥ अडिल्ल छंद-जाके चैतनभाव चिदातम सोइ है।औरभाव जो धरे सु और कोईहै। यों चिनमंडित भाव उपादे जानते । त्याग जोग परभाव पराये मानते ॥१०॥ ___ सबैया इकतीसा-जिन्हके सुमति जागी भोगों भये विरागी, परसंग त्यागी जे पुरुष त्रिभुवनमें । रागादिक भादलिसों जिन्हकी रहनि न्यारी, कबहू मगन व्है न रहै धाम धनमें ॥ जे लदीव आपको विचारै सरवंग सुद्ध, जिन्हके विकलता न ब्यापै कब मनसें । तेई मोक्ष मारम के.सा. धक कहावें जीव,सावै रहो मंदिरोभावे रहो बनमें॥११॥ __ सवैया तेईसा-चेतन मंडित अंग अखंडित,शुद्ध पवित्र पदारथ मेरो । राग विरोध विमोह दशा, समुझे भ्रम नाटिक पुग्गल केरो ॥ भोग सँयोग वियोग व्यथा, अविलो. . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) कि कहै यह कर्मज घेरो । है जिन्हकों अनुभौ इहि भांति, सदा तिन्हिकों परमारथ नेरो ॥ १२ ॥ दोहा - जो पुमान परधन हरै, सो अपराधी अज्ञ । · · जो अपनो धन विवहरै, सो धनपति धरमज्ञ ॥ १३ ॥ परकी संगति जो रचै, बंध बडावे सोइ । जो निजसत्ता में मगन, सहज मुक्त सो होइ ॥ १४ ॥ उपजे विनसे थिर रहै, यहतो वस्तु बखान । जो मरजादा बस्तुकी, सो सत्ता परवान ॥ १५ ॥ सवैया इकतीसा - लोकालोक मान एक सत्ताहै आकाश दर्द, धर्म दर्ष एक सत्ता लोक परिमिति है । लोक परवान एक सत्ता है अधर्म दर्व, कालके अणु संख सत्ता अगनिति है ॥ पुदगल शुद्ध परवानकी अनंत सत्ता; जीवकी अनंत सत्ता न्यारी न्यारी थिति है । कोउ सत्ता काहुसों न मिले एकमेक होइ, सवे अस हाय यों अनादिही की थिति है ॥ १६ ॥ सवैया इकतीसा - एड़ छहो द्रव्य इन्हहीको है जगत जाल, तामें पांच जड एक चेतन सुजान है । काहुकी अनंत सत्ता काहुस न मिले कोई, एक एक सत्ता में अनंत गुन गान है | एक एक सतामें अनंत परजाय फिरे, एक में अनेक इह भांति परवान है । यहे स्यादबाद यह संतनिकी मरजाद, यहे सुख पोषय है मोक्षको निदान है ॥१७॥ सवैया इकतीसा - साधि दधि मंथनि अराधि रसपंथनि में, जहां तहां ग्रंथनिमें सत्ताही को सोर है । ज्ञान भानु सतामें सुधा निधान सत्ताही में, सत्ता की दुरनि साँझ सत्ता " Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) मुख भोर है ॥ सत्ताको सरूप मोख सत्ता भूलै यहै दोष, सत्ताके उलंधै धूम धाम चिहू ओर है । सत्ताकी समाधि में विराजि रहेसोई साहु, सत्तातें निकसि और गहे सोई चोर है ॥ १८ ॥ सवैया इकतीसा-जामें लोक वेद नांहि थापना उछेद नांहि, पाप पुन्य खेद नांहि क्रिया नाहि करनी। जामें राग दोष नांहि जामें बंध मोख नाहि, जामें प्रभु दास न अकास नाहि धरनी ॥ जामें कुलरीत नांहि जामें हारजीत नाहिं जामें गुरु शिख नांहि विष नाहि भरनी । आश्रम बरन नांहि काहुकी सरनि नाहि, ऐसी सुद्ध सत्ताकी समाधि भूमि वरनी ॥ १९ ॥ दोहा-जाके घट समता नही, ममता मगनसदीव ।। रमता राम न जानही, सो अपराधी जीव ॥२०॥ अपराधी मिथ्यामती, निरदै हिरदै अंध । •परकों माने आतमा, करे करम को वंध ॥ २१ ॥ झूठी करनी आचरे, झूठ सुखकी आस । झूठी भगती हिय धरे, झूठो प्रभुको दास ॥ २२ ॥ सवैयाइकतीसा-माटीभूमी सैलकीसुसंपदा वखाने निज, कर्ममें अमृत जाने ज्ञानमें जहरहै। अपनोन रूप गहै औरही सों आपुकहै,सातातोसमाधिजाके असाताकहरहै। कोपको कृपान लियेमान मदपान किये,मायाकी मरोरि हिये लोभकी लहरहै। याहीभांति चेतन अचेतनकी संगतिसों, साचसोवि. मुखभयोझूठमें बहरहै ॥२३॥ , सवैया इकतीसा-तीनकाल अतीत अनागत वरतमान, ज. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) गमें अखंडित प्रवाहको डहरहै। तासों कहै यह मेरो.दिन यह मेरी घरी, यह मेरोई परोई मेरोई पहर है । खहको खजानो जोरे तासों कहे मेरोगेह, जहां वसे तासों कहे मेरोही सहरहै। याहि भांति चेतन अचेतनकी संगतिसों,सांचसों विमुख भयो झूठमें बहरहै ॥ २४॥ - दोहा-जिन्हके मिथ्या मति नहीं,ज्ञानकला घटमांहि। . परचे आतम रामसों, ते अपराधी नांहि ॥२५॥ सवैयाइकतीसा-जिन्हके धरमध्यानपावकप्रगटभयो,संसे मोह विभ्रम विरष तीन्यो वढेहैं। जिनकी चितौनि आगे उदे स्वान भैसि.भागे,लागेन करमरज ज्ञानगज चढ़े हैं। जिन्हिकी समुझिकी तरंग अंग अगममे,आगममें निपुन अध्यातम मे कढ़ेहैं। तेई परमारथी पुनीत नर आठो जाम, राम रस गाढ़ करे यहै पाढ़ पढ़े हैं ॥ २६ ॥ सबैया इकतीसा-जिन्हकी चिहुंटी चिमटासी गुन चूनवे कों, कुकथाके सुनवेकों दोउ कान मढ़े हैं । जिन्हको सरल चितकोमल वचनबोले, सोम दृष्टि लिये डोले मोम कैसे गढेह।। जिन्हिकेसगति जगिअलख अराधिबेंकों;परम समाधि साधि वेगो मन बढ़ेहैं। तेई परमारथी पुनीत नर आठोंजाम, राम रस गाद करे यहै पाढ़ पढ़े हैं ॥ २७॥ दोहा-राम रसिक अरु रामरस, कहन सुननकोंदोइ। जवसमाधि परगटभई, तब दुबिधानहिंकोइ ॥२८॥ : नंदन बंदन थुति करन,श्रवन चिन्तवन जाप । पढन पढावनउपदिसन,बहुबिधक्रिया कलाप॥२९॥ शुद्धातम अनुभौ जहां, सुभाचार तिहिनांहि । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) करमकरममारगविषै, शिवमारग शिवमाहि ॥३०॥ चौपाई। इहि विध बस्तुव्यवस्था जैसी । कही जिनिंद कहीमैं तैसी ॥ जे प्रमाद संयति मुनिराजा।तिन्हिकोशुभाचारसोंकाजा३१ जहांप्रमाद दसा नहि व्यापे। तहां अबलंव आपनो आपे॥ ता कारन प्रमाद उतपाती।प्रगटमोक्ष मारगकोघाती३२॥ जे प्रमाद संयुक्त गुसांई। ऊठाह गिरिहि गिदुककीनाई। जे प्रमादतजि उद्धत होही।तिन्हिकोमोषनिकटदृगसोही३३ घट में है प्रमाद जब तांई। पराधीन प्रानी तब ताई ॥ जव प्रमादकी प्रभुता नासै । तबप्रधान अनुभौपरगासै॥३४॥ दोहा-ता कारन जगपंथ इत,उत शिव मारग जोर । परमादी जग को ढुके, अपरमाद शिव ओर ॥३५॥ जे परमादी आलसी, जिन के विकलपभूरि। होहिसिाथिलअनुभौविषे,तिन्हिकोशिवपथदूरि॥३६॥ जे अविकलपी अनुभवी, शुद्ध चेतना युक्त। ते मुनिवर लघुकालमें, होहि करम सों मुक्त ॥३७॥ जे परमादी आलसी, ते अभिमानी जीव। . जे अविकलपी अनुभवी, ते समरसी सदीय ॥३८॥ कवित्त छंद-जैसे पुरुष लखे पहार अढि, भूचर पुरुष तांहि लघु लग्ग । भूचर पुरुष लखे ताको लघु, उतर मिलै दुहुकोभ्रम भग्ग ॥ तैसें अभिमानी उन्नत गल, और जीव कों लघुपद दग्ग । अभिमानीकों कहे तुच्छ सव, ज्ञान जगे - । समतारस जग्ग ॥३६॥ सवैया इकतीसा-करम के भारी समुझे न गुनको मरम Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) परम अनीति अधरम रीतिगहे है। होहि न नरम चितगरम घरमहते, चरमकी दृष्टिसों भरम भली रहै है॥श्रासन न खोले मुख बचनन केले सिर, नाएह न डौले मानो पाथरके चहे है । देखनके हाउ भव पंथके वटाउ ऐसें, मायाके खटाउ अभिमानी जीव कहे है ॥ ४० ॥ सवैया इकतीसा-धीरके धरैया भवनीरके तरैया भय,भीर के हरैया वर वीर ज्यो उमहे हैं । मारके मरैया सुवीचारके करैया सुख, ढारके ढरैया गुनलोसों लह लहेहैं ॥ रूपके रिभैया सर्वनके समुझेया सर,हीके लघुभैया सबके कुवोल सहे हैं । वामके वमैया दुखदाम के दमैया ऐसे, रामके रमैया नर ज्ञानी जीव कहे हैं ॥ ४१ ॥ चौपाई। जेसमकिती जीव समचेती। तिन्हिकी कथाकहोंतुमसती ।। जहांप्रमाद क्रियानहि कोई निर्विकल्पननुभौ पदसोई ४२॥ परिग्रहत्याग जोगथिरतीनो। करम बंध नहि होइ नवीनो॥ जहांन राग दोष रस मोहे।प्रगट मोखमारग सुख सोहे४३ पूरव वंध उदे नहि ब्यापे। जहां न भेद पुन्न अरु पापे ॥ दरवभाव गुन निर्मल धारा बोधविधानविविधिविस्तारा४४ जिन्हिके सहजअवस्था ऐसो। तिन्हिके हिरदे दुविधा केसी॥ जे मुनिक्षिपक श्रेणिचविधाये।ते केवलि भगवान कहाये४५॥ दोहा-इंहिविधि जे पूरन भये, अष्ट करम वनदाहि ॥ । तिन्हिकीमहिमाजोलखे,नवनारसिताहि॥ ४६॥ छप्पय छन्द-भयो शुद्ध अंकूर, गयो मिथ्यात्मर नशि। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमकम होत उदोत, सहजजिम शुक्लपक्ष शशि ॥ केवल रूप प्रकासि, भासि सुख रासि धरम धुव । करिपूरन थित आउ त्यागिगतभाव परम हुब ॥ इहविधि अनन्य प्रभुताधरत, प्रगाट बूंद सागर भयो । अविचल अखंड भनभय अखय, जीव दरव जगमहि जयो ॥ ४७ ॥ सवैया इकतीसा-ज्ञानावरनीके गये जानिये जु है सुसव, . दंसनावरनके गया सब देखिये । वेदनी करमके गयेते निरा वाध रस, मोहनीके गये शुद्ध चारित बिसेखिये ॥ आउकमें गये अवगाहन अटल होइ, नाम कर्म गयेते अमरतीक पे. खिये । अगुरुलअधुरूप होई गोत कर्मगये, अंतराय गयेतें अनंत वल लेखिये ॥ ४८ ॥ इति श्री नाटक समयसार विष नव्मो मोक्ष द्वार समाप्तः १० अध्याय सरव विशुद्धि द्वार दोहा-इति भिनाटिक ग्रंथमें,कह्योमोक्षअधिकार। अव वरनों संक्षेपसों, सरब विशुद्धि द्वार ॥ ४६॥ सवैया इकतीसा-करमको करताहै भोगनिको भोगताहै, जाकी प्रभुतामें ऐसो कथन अहितहै । जामें एक इंद्रियादि पंचधा कथन नाहि, सदा निरदोष बंध मोक्षसों रहितहै। ज्ञानको समूह ज्ञान गम्य है सुभाउ जाको, लोक व्यापी लोकातीति लोकमें महितहै । शुद्ध वंस शुद्ध चेतना के रस अंश भयो, ऐसो हंस परम पुनीतता सहित ॥५०॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) दोहा - जो निहचे निरमलसदा, आदि मध्य अरु अंत । .. सो चिद्रूप बनारसी, जगतमांहि जय बंत ॥ ५१ ॥ चौपाई | जीव करमकरता नहि ऐसो । रस भोगता सुभाउ न जैसो ॥ मिथ्यामतिसों करताहोई । गये अज्ञान अकरतासोई ॥ ५२ ॥ सवैया इकतीसा - निचे निहारत सुभाउ जाहि श्रातमाको, आतमीक धरम परम परगासना । अतीत अनागत बरतमान काल जाको, केवल सरूप गुन लोकालोक भासना ॥ सोई जीव संसार अवस्थामांहि करमको, करतासो दीसे लिये भरम उपासना । यहे महा मोहके पसार यहे मिथ्याचार, यहे भौ विकार यहे व्यवहार घासना ॥ ५३ ॥ चौपाई | जथा जीव करता न कहावे । तथा भोगता नाउ न पावे ॥ हे भोगी मिथ्या मतिमांही । मिथ्यामती गयेतें नांही ॥५४॥ सवैया इकतीसा - जगवासी अज्ञानी त्रिकाल परजाय बुद्धी, सोतो विषे भोगनिको भोगता कहायो है । समकिती जीव जोग भोगसों उदासी तातें, सहज अभोगता गरंथनि में गायो है ॥ याही भांति वस्तुकी व्यवस्था अवधारे बुध, परभाउ त्यागि अपनो सुभाउ आयो है । निर त्रिकलप निरुपाधि आतमा अराधि, साधि जोग जुगति समाधि में समायो है ॥ ५५ ॥ सवैया इकतीसा - चिनमुद्रा धारी ध्रुव धर्म अधिकारी गुन, रतन भंडारी पहारी कर्म रोग को । प्यारो पंडितनिको हुस्यारो मोप मारग में, न्यारो पुद्गलसों उजियारो Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) उपयोगको । जाने निज पर तत्त रहे जग में विरत्त, गहे न ममत्त मन वच काय जोगको । ता कारन ज्ञानी ज्ञाना. वरनादि करम को, करता न होइ भोगता न होइ भोग को ॥ ५६ ॥ दोहा-निरभिलाष करनीकरे, भोग अरुचिघटमांहि । तातें साधक सिद्ध सम, करताभुगता नांहि ॥१७॥ कवित्त छंद-ज्यों हिय अंध विकल मिथ्या धर, मृषा सकल विकलप उपजावत । गहि एकन्त पक्ष आतमको, करता मानि अधोमुख धावत ॥ त्यों जिनमती दरव चारित कर, करनी करि करतार कहावत । वंछित मुक्ति तथापि मूह मति, विनु ससक्तिभवपारन पावत ॥ ५८॥ चौपाई। चेतनक जीव लखि लीन्हा । पुद्गलकरमचननचीन्हा ।। वासी एक खेत के दोऊ । यदापितथापि मिलेनस्किोऊ॥५९॥ दोहा-निज निज भाउक्रिया सहित,व्यापक व्यापिनकोड़। करता पुगलकरमको, जीव कहांसो होइ ॥ ६० ॥ सवैया इकतीसा-जीव अरु पुद्गल करम रहे एक खत, जद्यपि तथापि सत्ता न्यारी न्यारी कही है । लक्षन सरूप गुन परजे प्रकृति भेद, दुहमें अनादिहीकी दुविधा म्है रही है ॥ एते परि भिन्नता न भासे जीव करमकी, जौलों मिथ्या भाउ तोलों ओंधी वाउ वही है । ज्ञान के उदोत होत ऐसी सूधी दृष्टि भई, जीव कर्म पिण्ड कोअकरतार सही है ॥ ६१॥ दोहा-एक वस्तु जैसी जुहे, तातों मिले न आन। . Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९) जीव अकर्ता करमको, यह अनुभो परवान ॥६२॥ . .. . चौपाई। · । जे दुरमती विकल अज्ञानी । जिन्हिसुरीतिपररीतिनजानी । मायामगनभरमके' भरता। ते जियभावकरमकेकरता॥६॥ दोहा-जे मिथ्यामतितिमरसों, लखे नजीव अजीव ।' तेई भावित करम के, करता होइ सदीव ॥६४॥ जे अशुद्ध परिनति धरे, करे अहं परवानं । ते अशुद्ध परिनाम के, करता होइ अजान ॥६५॥ शिष्य कहै प्रभु तुम्हकह्यो, दुविधकरमकोरूप। दर्व कर्म पुद्गल मई, भाव कर्म चिद्रूप ॥६६॥ करता दरवित करमको, जीवनहोइ त्रिकाल। अबइहभावितकरमतुम, कहो कौनकीचाल ॥६७॥ करता याको कौनहै, कौन करै फल भोग। के पुद्गलं के आतमा, के दुहुको संयोग ॥६८॥ क्रियाएक करतायुगल, यों न-जिनागममांहि । 'अथवा करनी औरकी, और करै यों नांहि ॥१९॥ करे और फल भोगवे, और बने नहि एम । जो करता सो भोगता, यहे यथावत जेम ॥७॥ भाव कर्म कर्तव्यता, स्वयं सिद्ध नहि होइ। जो जगकी करनी करे, जगवासी जियसोई॥७१॥ जियंकरता जियभोगता,भावकम जियचालि। पुदगल करे न भोगवे,दुविधा मिथ्या जालि ॥७२॥. • तातें भावित करमकों, करे मिथ्याती जीव । सुख दुखं आपद-संपदा, भूजे सहज संदीव ॥ ७३॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) सवैया इकतीसा - केई मूढ़ विकल एकंत पक्ष गहे कहै, आतमा अकरतार पूरन परम है । तिन्हसों जु कोउकहै जीव करता है तासों, फेरी है करमको करता करम है ॥ ऐसे मिथ्यामगन मिथ्याती ब्रह्म घाती जीव, जिन्हके हिये अना दि मोह को भरम है । तिन्हको मिध्यात दूरि करिवको कहै गुरु स्यादवाद परवान आतम धरम है ॥ ७४ ॥ दोहा - चेतन करता भोगता, मिथ्या मगन अजान । नहिकरता नहि भोगता, निहचे सम्यकवान ॥ ७५ ॥ सवैया इकतीसा - जैसे सांख्यमति कहे अलख अकरता है, सर्वथा प्रकार करता न होइ कवही । तैसें जिनमति गुरु मुख एक पक्ष सुन, याही भांति मानै सो एकंत तजो अबही || जोलों दुरमति तौलों करमको करता है, सुमती सदा करतार कह्यों सबही । जाके घट ज्ञायक सुभाउ जग्यो जव ही. सो, सोतो जग जालसों निरालो भयोतवही ॥ ७६ ॥ दोहा-बोध छिनक वादी कहै, छिनु भंगुर तनुमांहि । प्रथम समे जो जीव है, दुतिय समे सोनांहि ॥ ७७ ॥ ताते मेरे मतविषे करे करमजो कोइ | सो न भोगवे सरवथा, और भोगता होइ ॥ ७८ ॥ यह एकंत मिथ्यात पख, दूरि करनके काज । चिदविलास अविचलकथा, भाषैश्रीजिनराज ॥ ७९ ॥ बालापन काहू पुरुष, देख्यो पुर कइ कोइ । तरुन भये फिरिके लख्यो, कहे नगर यह सोइ ॥ ८० ॥ जो दुहुपनमें एकथो, तो तिन्हि सुमिरन कीय । और पुरुषको अनुयो, और न जाने जीय ॥ ८१ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) जबयह वचन प्रगटसुन्यो,सुन्यो जैनमतशुद्ध। · . . तब इकांत वादी पुरुष, जैन भयो प्रति बुद्ध ॥ ८२॥ .सवैया इकतीसा-एक परजाय एक समैमें विनसिं जाइ, दूजी परजाय दूजै समै उपजति है। ताको छल पकार के बोध कहै.समै समे, नवो.जीव-उपजे पुरातन की पति है। . ताते मानै करमको करता है और जीव, भोगता है और वाके हिए. ऐसी मतिहै । परजै प्रधानको सरवथा दरबजाने, ऐसे दुरबुद्धिको अवश्य दुरगति है ॥ ८३॥ दोहा-दुर्बुद्धी मिथ्यामती, दुर्गति मिथ्या चालः । ... गहि एकंत दुर्बुद्धिसों,मुकति न होइत्रिकाल ॥ ८४॥ ..कहै अनातमकी कथा, चहै न आतम शुद्धि। " रहै अध्यातमसो विमुख, दुराराधि दुर्बुद्धि ॥८५॥ सवैया इकतीसा-कायासे विचार प्रीति मायाहि में हारि जीति, लिये हठशीत जैसे हारिलकी लकरी। चूंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि, त्योंही पाई गाडे में न .. छांडे टेक पकरी ॥ मोहकी: मरोरसों भरमको न ठोरपावे, धाव चिहु और ज्यों बढावै जाल मकरी । ऐसी दुर्बुद्धि भूलि मूठ के झरोखे झूलि, फूली फिरे ममता जंजीरनि सों जकरी॥८६॥ .... :.:. . ... सवैया इकतीसा-बात सुनि चौकउठे बातहिसों भौकी उठे, बातसो नरम होइ बातहींसोअकरी । निंदा करेसाधुंकी प्रशंसा करे हिंसककी, साता माने प्रभुता असाता माने फकरी मोखन सहाइ दोख देखै तहां पेंठि जाई, कालसो डराई जैसे नाहरसों बकरी । ऐसी दुरबुद्धिः भूलि Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) जूठके झरोखेझूलि,फूलीफिरेममताजंजीरनिसों जकरी८७॥ कवित्त छन्द-केई कहै जीव छिन भंगुर, केई कहै करम करतार । केई कर्म रहित नित जंपहि, नय अनंत नाना परकार ॥ जे एकंत गहै ते मूरख, पंडित अनेकांत पखधारं । जैसे भिन्न भिन्न. मुक्तागन, गुनसों गहत कहावे हार ॥ ८८ ॥ . दोहा-जथा सूतसंग्रहविना, मुक्तमाल नाह होइ। . तथा स्याद्वादी विना, मोख न साधे कोई ॥ ८९ ॥ पद सुभाउ पूरबउदे, निहचे उदिम काल। . पक्षपात मिथ्यातपथ, सरवंगी शिव चाल ॥ ९०॥ सवैया इकतीसा-एक जीव वस्तु के अनेक रूप गुन नाम, निरजोग शुद्ध पर जोग सो अशुद्ध है । वेद पाठी ब्रह्म कहै मीमांसक कर्म कहै, शिवमति शिव कहै 'वोध कहे बुद्ध है ॥ जैनी कहे जिन न्यायवादी करतार कहै,छहाँ दरसनमें बचनको विरुद्ध है। वस्तुको सरूप पहिचाने सोइ परबीन, बचनके भेदभेद मानेसोइ शुद्ध है ॥ ९१॥ . सवैया इकतीसा-वेदपाठी ब्रह्म माने निहचै स्वरूप गहै, मीमांसक कर्म माने उदैमें रहतुहै । बोधमति बुद्धमाने सूक्षम सुभाउ साथै, शिवमती शिवरूप कालको हरतुहै ।। न्याय ग्रंथके पढैया थापे करतार रूप, उदिम उदीरी उर आनंद लहतुहै । पांचो दरसनी तेतो पोषे एक एक अंग, जैनी जिनपंथी सरवंगी नै गहतुहै ॥ ९२ ॥ सवैया इकतीसा-निहचै अभेद अंग उदै गुनकी तरंग, उद्यम की रीति लिये उद्धता सकति है । परजाय रूपको Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) प्रवान सूक्षम सुभाउ,काल कीसी ढाल परिनाम चक्रगति है । याही भांति मातम दरवके अनेक अंग,एक माने एक कों न माने सो कुमति है। टेक डारि एकमें अनेक खोजे सो सुबुद्धि, खोजी जीवे वादी मरे साची कहवतिहै॥९३॥ सवैया इकतीसा-एकमें अनेक है अनेकही में एकहै सु, एक न अनेक कछु कह्यो न परतु है । करता अकरता है भोगता अभोगता है, उपजे न उपजिति मूए न मरतु है। बोलत विचारत न बोले न विचारे कछु, भेषको न भाजन पै भेखसो धरत है। ऐसो प्रभु चेतन अचेतन की संगती सो, उलट पलट नट वाजी सी करतु है ॥ ९ ॥ दोहा-नटबाजी विकलपदसा, नाही अनुभौ जोग । केवल अनुभौ करनको,निरविकलप उपयोग ॥ ९५॥ सवैया इकतीसा जैसे काहु चतुर संवारी हे मुगतमाल, मालाकी क्रियामें नाना भांतिको विज्ञान है । क्रियाको वि. कलप न देखे पहिरन वालो, मोतीन की शोभमें मगन सुख वान है ॥ तैसें न करे न भुजे अथवा करे सु भुजे, ओर करे ओर भुजे सव नै प्रधान है । यद्यपि तथापि विकलप विधि त्याग जोग, निरविकलप अनुभो अमृत पानहै ॥ ९६ ॥ दोहा-दरव करम करता अलख,यहुविवहार कहाउ। निहचे जोजे सोदरच, तैसो ताको भाउ ॥९७॥ सवैया इकतीसा-ज्ञानको सहज ज्ञेयाकाररूप परिनमे, यद्यपि तथापि ज्ञान ज्ञानरूप कह्यो है । क्षेयजय रूप यों अनादिहीकी मरजाद, काहु वस्तु काहुको सुभाउनहि गह्यो है ॥ एते परि कोउ मिथ्या मति कहे ज्ञेयकार, प्रति भा. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तु जाने ज गव, जीव होइ॥ ४० (७४) सनिलों ज्ञान अशुद्ध व्है रह्यो है । याहि दुरबुद्धिसों विकल भयोडोलत है, समुझे न धरमयों भर्ममाहि वह्योहै ॥ ९८॥ . .. . चौपाई।। सकल वस्तु जगमें असुहाई । वस्तु वस्तुसों सिले न काई ॥ जीव वस्तु जाने जग जेती। सोऊ भिन्न रहे सबसेती९९॥ दोहा-करम करै फल भोगवे, जीव अज्ञानी कोइ।। . . यहकथनी व्यवहारकी, वस्तु स्वरूप न होइ॥ ४०॥ कवित्त छंद-आकारज्ञानकी परिनति, पैं वह ज्ञान ज्ञेय लहि होइ । ज्ञेय रूप षट दरव भिन्न पद, ज्ञानरूप पातम पदसोइ ॥ जाने भेद भाउ सुविचक्षनगुन लक्षन सम्यक ' दृग जोइ । मूरख कहे ज्ञान महि आकृति, प्रगट कलंक लखे नाहि कोइ ॥ १ ॥ चौपाई। निराकार जो ब्रह्म कहावे । सो साकार नाम क्यों पावे ॥ क्षेयाकार जान जब ताई। पूरन ब्रह्म नाहि तवताई ॥२॥ जेयाकार ब्रह्म मल माने । नास करनको उदिम ठाने । वस्तु सुभाउमिटे नहिक्योंही। ताते खेद करे सठयोंही॥३॥ दाहा-मूढ मरम जाने नही, गहे इकांत कुपक्ष। .. स्यादवाद सरबंग में, माने दक्ष प्रतक्ष ॥४॥ : शुद्ध दरब अनुभौकरे, शुद्ध दृष्टि घट मांहि। ताते सम्यकदन्तनर, सहज उछेदक नाहि ॥ ५॥ - सवैया इकतीसा-जैसें चन्दकिरन प्रगटि भूमि सेतकरे, . भूमि सीत होति सदा जोतिसी रहति है । तैसें ज्ञान स.. कति प्रकासे हेय उपादेय, ज्ञेयाकार दीसे पेन ज्ञेयकों ग Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) गहति है ॥ शुद्ध वस्तु शुद्ध परजाय रूप परिनमै, सत्ता परवान मांहि ढाहे न ढहति है । सो तो औररूप कवहो न होइ सरबथा, हिचे अनादि जिन बानी यों कहति है ॥ ६ ॥ सवैया तेईसा - राग विरोध उदे तवलों जवलों यह जीव मृषामग धावे । ज्ञान जग्यो जव चेतनको तव कर्म दशा पररूप कहावे ॥ कर्म विलेछि करे अनुभो तब मोह मियात प्रवेश न पावे | मोह गये उपजे सुख केवल सिद्ध भयो जगमांहि न आवे ॥ ७ ॥ छप्पय छन्द - जीव करम संयोग, सहज मिथ्यात रूप घर | राग दोष परिनति, प्रभाव जाने न आपपर ॥ तम मिथ्यात मिटिगयो, भयो समकित उदोत सशि । राग दोष कछु वस्तु नाहि छिनु माहि गये नसि ॥ अनुभो - भ्यासि सुखराशिरमि, भयो निपुन तारन तरन । पूरन प्रकाश निहचलि निरखि, वनारसी बंदत चरन ॥ ८ ॥ सवैया इकतीसा - कोउ शिष्य कहे स्वामी राग दोष परिनाम, ताको मूल प्रेरक कहहु तुम कोन है । पुग्गल करम जोग किधों इन्द्रिनिको भोग, किधों धन कधों परिजन किधों भोन है | गुरु कहे छहों दर्व अपने अपनेरूप, 'सबको सदा सहाई परीनोन है । कोउ दर्द काहु को न प्रेरक कदाचि ताते, राग दोष मोह मृषा मदिरा अचोन है ॥ ९ ॥ दोहा - कोऊ मूरख यों कहै, राग दोष परिनाम । पुगलकी जोगवरी, वरते आतम राम ॥ १० ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) ज्योज्योंपुग्गल वलकरे, धरिधरि कर्मज भेष। राग दोषको परिलमन, त्यो त्यो होइ विशेष ॥ ११ ॥ इहविधि जो विपरीतिपख, गहे सहहे कोइ । सो नर राग विरोधलों, कचहूं भिन्नन होइ ॥१२॥ सुगुरु कहै जगमें रहे, पुग्गल संग सदीव । सहज शुद्ध परिनमनको, औसर लहेन जीव ॥ १३॥ तात चिदभावन विष, समरथ चेतन राउ। राग विरोध सिथ्यातमें सम्यक सिवभाउ ॥१४॥ ज्यों दीपक रजनीसमै, चिहदिसिकरे उदोत। प्रगटे घट पट रूपमें, घट पट रूप न होत ॥१५॥ त्यों सु ज्ञान जाने सकल, ज्ञेय वस्तुको मर्म । ज्ञेयाकृति परिनमनपे, तजै न आतम धर्म ॥१६॥ ज्ञानधर्म अविचल सदा, गहे विकार न कोइ। राग विरोध विमोहमय, कबहूं भूलि न होई ॥ १७ ॥ ऐसी महिमा ज्ञानकी, निहचै है घट मांहि । मूरख मिथ्या दृष्टिसों, सहज विलोके नांहि ॥१८॥ परसुभाव में मगन है, ठाने राग विरोध । धरै परिग्रह धारना, करे न आतम सोध ॥ १९॥ चौपाई। मूरख के घट दुरमति भासी । पंडितहिए सुमति परगासी॥ दुरमति कुबजा करमकमावे । सुमतिराधिकारामरमाव॥२०॥ दोहा-कुबजा कारी कुबरी, करे जगत में खेद । - अलख अराधे राधिका, जाने निजपर भेद ॥२१॥ सवैया इकतीसा-कुटिल कुरूप अंग लगीहै पराए संग, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) अपनो प्रवान करि आपुहि विकाई है । गहे गति अंधकीसी सकती कमंधकीसी, बंधको बढ़ाउ करे धंधहीमें धाईहै। रांडकीसी रीति लिए मांडकीसी मतवारी, सांड ज्यों सुछंद डोले भांडकीसी जाई । घरको न जाने भेद कर पराधनी खेद. यात दुवुन्द्रि दासी कुत्रजा कहाई है ॥ २२ ॥ सवैया इकतीसा-रूपकी रसीली भ्रम कुलफकी कीली सील, सुधाक समुद्र मीली सीली सुखदाईहे । प्राची ज्ञान भानकी अजाची है निदानकी सु.राची नरवाची ठोर साची ठकुराई है ॥ धामकी खबरदार रामकी रमन हार, राधारस पंथनिमें ग्रंथनिमें गाइह । संतनिकी मानी निरवानी नरकी निसानी, यात सदन्धि रानी राधिका कहाईह ॥ २३ ॥ दोहा-यह कुवजा वह राधिका, दोऊगति मति मान। यह अधिकारनि करमकी, यह विवेककीखान॥२४॥ दरव करम पुद्गल दसा,भाव कर्म मति वक। जोलुलानकोपरि नमन,सो विवेक गुनचक्र ॥२५॥ कवित्त छंद-जैसे नर खलार चोपरको, लाभ विचार करे चित बाउ । धरि सवारि सावुद्धी वलसों, पासाको कुछ परे सुदाउ॥ तैसें जगत जीव स्वास्थको, करि उद्यमचिंतवे उपाउ।लिख्यो ललाट होइ सोई फल कर्म चक्रको यही सुभाउ२६ कायत्त छंद-जैसे नर खिलार सतरंजको, सतुझे सब सतरंजकी घात। चले चाल निरख दोऊदल, मोह रागन विचारे मात तिले साधुनिपुन शिव पथम,लक्षन लखे तजे उतपात। साधे पुन्य चिंतने अभ पद, यह सुविबेक की बात ॥२७॥ दोहा-लतरंज खेले राधिका, कुबजाखले सारि । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८) याकेनिसिदिनजीवो, वाकेनिसिदिनहारि ॥ २८ ॥ जाके उर कुबजा बसे, सोई अलख अजान । जाकै हिरदे राधिका, सो बुधसम्यकवान ॥ २६ ॥ सवैयाइकतीसा - जहांशुद्ध ज्ञानकी कलाउद्योत दीसे तहां, शुद्ध परबान शुद्ध चारित्रको अंस है । ता कारन ज्ञानी सव जाने ज्ञेय वस्तु मर्म, वैराग विलास धर्म बाको सरवंस है ॥ राग दोष मोहकी दसासों भिन्न रहे याते, सर्वथा त्रिकाल कर्मजालको विध्वंस है । निरूपाधि आतम समाधिमें विराजे ताते, कहिये प्रगट घूरन परमहंस है ॥ ३० ॥ दोहा - ज्ञायक भाव जहां तहां, शुद्ध वरनकी चाल । ताते ज्ञान विराग मल, सिवसाधे समकाल ॥ ३१ ॥ यथा अंधके कंध परि, चढ़े पंगु नर कोइ | वाके दृग वा चरण, होहिपथिकमिलिदोइ ॥ ३२ ॥ जहां ज्ञान किरिया मिले, तहां मोक्षमग सोइ । बह जाने पदको मरम, वह पद में थिरहोइ ॥ ३३ ॥ ज्ञान जीवकी सजगता, करम जीवकी भूल । ज्ञान मोक्ष अंकूर है, करम जगतको मूल ॥ ३४ ॥ ज्ञान चेतनाके जगे, प्रगटे केबल राम । कर्म चेतनायें वसे, कर्म बंध परिनाम ॥ ३५ ॥ चौपाई | जबलग ज्ञान चेतना भारी । तबलगु जीव विकल संसारी ॥ जबघट ज्ञान चेतना जागी । तबसम किती सहज वैरागी ॥ ३६ ॥ सिद्ध समान रूप निज जाने । पर संजोग भाव परमाने ॥ - शुद्धतम अनुभौ अभ्यासे । त्रिविधकरमकी ममतानासे ॥३७॥ . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा-ज्ञानवंत अपनी कथा, कहै आपसों आप । . . ___ मैं मिथ्यात दसाविषे, कीने बहुविधि पाप ॥३८॥ सवैया इकतीसा-हिरदे हमारे महा मोहकी विकलंताही. ताते हम करुना न कीनी जीव घातकी । आप पाप कीने ओरनकों उपदेश दीने, हूती अनमोदना हमारे याही वातकी ।। मन वच कायमें मगन है कमाए कर्म, धाए भ्रम जालमें कहाए हम पातकी । ज्ञानके उदे भए हमारी दशा ऐसी भई, जेसी भान भासत अवस्था होत प्रातकी ॥ ३९ ॥ सवैया इकतीसा-ज्ञान भान भासत प्रवान ज्ञानवान कहे, करुना निधान अमलान मेरो रूप है । कालसों अतीत कर्म चालसों अभीत जोग, जालसों अजीत जाकी महिमा अनूप है ॥ मोहको विलास यह जगतको वासमें तो,जगतसों अन्य पाप पुन्य अंधकूप है । पाप किन कियो कौन करे करिहै स कोन, क्रियाको विचारलुपनेकी धौरधूपहै ४०॥ दोहा-मैं यों कोनो यौं करों, अब यह मेरो काम । मन वच कायामें वसे, ए मिथ्या परिनाम ॥ ११ ॥ मनवच काया करमफल, करमदशा जडशंग। दरवित पुदल पिंडमें, भावित भरम तरंग ॥४२॥ तांते भावित धरमसो, करम सुभाव अपृठ। कोंन करावे को करे, कोसर लहे सब जूठ ॥४३ ॥ करनी हितहरनी सदा,मुकति वितरनीनांहि । गनी बंध पद्धति विषे, सनी महा दुख मांहि ॥४४॥ सवैया इकतीसा-करनी की धरनी में महा मोह राजा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (८०) वसे, करनी अज्ञानभाव राकसकी पुरी है। करनी करम काया पुग्गल की प्रती छाया करनी प्रगट माया मिसरीकी छुरी है ॥ करनी के जालमें उरझि रहो चिदानंद करनीकी उट ज्ञान भान दुति दुरीहै । आचारज कहै करनीसो विव.. हारी जीव करनी सदीव निहचै सरूप बुरी है ।। ४५॥ • . चौपाई। मृषा मोहकी परिनति फैली। तातें करम चेतना मैली ॥ ज्ञान होत हम समुझी एती । जीवसदीवभिन्नपरसेती॥४६॥ दोहा-जीवअनादिसरूपमम, करम रहित निरुपाधि । अविनाशीमशरनसदा, सुखमयसिद्धसमाधि॥४७॥ चौपाई। मैं त्रिकाल करणीसों न्यारा।चिदविलासपदजगतउज्यारा! रागविरोधमोह ममनांही । मेरो अवलंवन मुझमाही ॥४ सवैया तेईसा-सम्यकवन्त कहे अपने गुन, में नित राग विरोध सोंरीतो। में करतूति करों निरवंछक, मोह चिरंस लागत तीतो ॥ सुद्ध सुचेतनको अनुभौ करि, में जग मोह महाभड़ जीतो । मोप समीप भयो अव मोकहुं, कालअनंत इहीविधि बीतो॥ ४९॥ दोहा-कहे विचक्षनमेंसदा, रह्यो ज्ञानरस राचि। सुद्धातम अनुभूतिसों,खलितनहोइ कदाचि॥ ५० ॥ पूर्व करमविष तरुभये, उदे भाग फल फूल । में इन्हको नहिं भोगता, सहजहाडं निरमूल ॥ ५१ ।। जो पूरव कृत कर्म फल, रुचिसोझुंजे नाहि । मगन रहे आठो पहुर, शुद्धातम पदमाहि. ॥ ५२ ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) सो बुध कर्मदसा रहित, पाबे मोख तुरंत । भुंजे परम समाधि सुख, आगम काल अनंत ॥ ५३ ॥ छप्पय छंद - जो पूरब कृतकर्म, विरष विषफल नहिभुंजे । जोग जुगति कारज करंत ममता न प्रजुंजे ॥ राम विरोध निरोध संग;विकलप सवि छंडे । शुद्धातम अनुभौ अभ्यासि, शिव नाटक मंडे ॥ जो ज्ञान वंत इहमग चलत, पूरन व्है केवल लहे । सो परम अतींद्रिय सुख विषे, मगनरूप संतत रहे ॥ ५४ ॥ सवैया इकतीसा - निरभै निराकुल निगमवेद निरभेद, जाके परगासमें जगत माइयतु है । रूप रसगंध फास पुदगल को विलास, तासों उदबंशजाको जरा गाइयतु है ॥ विग्रहसों विरत परिग्रहसें न्यारो सदा, जामें जोग निग्रहको चिन्ह पाइतु है । सो हे ज्ञान परवान चेतन निधान ताहि, अविनाशी ईश मानी सीस नाइयतु है ॥ ५५ ॥ सवैया इकतीसा - जैसो नर भेदरूप निहचें अतीत हुतो, तैसो निरभेद अब भेदको न गहैगो । दीसे कर्म रहित सहिल सुख समाधान, पायो निज थान फिर बाहिर न वहैगो ॥ कवहु कदाचि अपनो सुभाउ त्यागि करि, राग रस राचिके न परवस्तु गहेगो । अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयो, याही भांति श्रागम अनंत काल रहेगो ॥ ५६ ॥ सवैया इकतीसा - जबहितें चेतन विभाउसों उलटि आपु, समौ पाइ अपनो सुआउ गहि लीनो है । तबहीते जो जो लेन जोग सो सो सब लीनो, जो जो त्याग जोग सो सो सब छांडि दीनाहै ॥ लेवेकौ नरही ठोर त्यागिवेकों नांही और, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) बाकी कहा उबन्यो जु कारज नवीनो है । संग त्यागि अंग त्यागि वचन तरंग त्यागि, मन त्यागि बुद्धि त्यागि आपा शुद्ध कीन है ॥ ५७ ॥ दोहा - शुद्ध ज्ञानके देह नहिं, मुद्रा भेषन कोइ । ताते कारन मोखको, दरवलिंगि नहिहोइ ॥ ५८ ॥ द्रव्य लिंग न्यारो प्रगट, कला वचन विन्यान | अष्टमहारिधि अष्टसिधि, एऊ होहि न ज्ञान ॥ ५९ ॥ सवैया इकतीसा - भेषमें न ज्ञान नहि ज्ञानगुरु वर्त्तनमें, मंत्र तंत्र तंत्रमें न ज्ञानकी कहानी है । ग्रंथमें न ज्ञान नहिं ज्ञान कवि चातुरी में, वातनिमें ज्ञान नहीं ज्ञान कहा वानी है ॥ तातें भेष गुरुता कवित्त ग्रंथ मंत्र बात, इनतें अतीत ज्ञान चेतना निसानीहै। ज्ञानहीमें ज्ञाननही ज्ञान ओरठोर कहू, जाके घट ज्ञान सोइ ज्ञानको निदानी है ॥ ६० ॥ सवैया इकतीसा - भेष धरे लोगनिकों बच सो धरम ठग, गुरुलो कहावे गुरुबाई जाते चहियें | मंत्र तंत्र साधक कहावे गुनी जादूगर, पंडित कहांवे पंडिताई जामें लहिये ॥ कवित्तकी कला में प्रवीन सो कहावे कवि, बात कही जाने सो पवारगीर कहिये । एतो सब विषेके भिखारी माया धारी जीव, इन्हकों विलोकिकेँ दयालरूप रहिये ॥ ६१ ॥ दोहा - जो दयालता भाव सो, प्रगट ज्ञानको अंग । पें तथापि अनुभौ दशा, वरतै विगत तरंग ॥ ६२ ॥ दरशन ज्ञानचरण दशा, करे एक जो कोइ | थिर व्है साधे मोखमग, सुधी अनुभवी सोइ ॥ ६३ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवैया इकतीसा-जोइ दृग ज्ञान चरणांतममें ठटि ठोर - भयो निरंदोर परवंस्तुकों नपरले । सुद्धता विचारे ध्यावे शुद्धतामें केलि करे, शुद्धतामें थिर है अमृत धारा वरसे ॥ त्यागी तने कष्ट है सपष्ट अष्ट करमको, करेथान अष्ट नष्ट करे और करसे । सोइ विकलप विजई अलप कालमांहि, त्याग भो विधान निरवान पद दरसे ॥ ६४ ॥ चौपाई। गुन परजे में दृष्टि न दीजे । निरविकलपअनुभारसपीजे॥ आपसमाइ आपमें लीजे । तनपा मेटि अपनपौकीजे ॥६५॥ दोहा-तजिविभावहुइजे मगन, सुद्धातम पदमाहि। . : एकं मोष मारगयहे, और दूसरो नांहि ॥६६॥ सवैया इकतीसा-कइ मिथ्या दृष्टि जीव धारेजिन मुद्रा भेष, क्रिया में मगन रहे कहे हम जती हैं । अतुल अखंड मल रहित सदा उदोत, ऐसे ज्ञान भाव सो विमुख सूद मति हैं ॥ आगम सँभाले दोष टाले विवहार भाले, पाले वृत्त यद्यपि तथापि अविरती हैं । आपुकों कहाबे मोष मारग के अधिकारी, मोष सों सदीब रुष्ट दुष्ट दुरगति हैं ॥ ६७ ॥ दोहा-जे विवहारी मढ़ नर, परजे बुद्धी जीव । . . तिनको वाहिज क्रीयको, है अवलम्बसदीय ॥६॥ . चौपाई। जैसे मुगंध धान पहिचाने । तुष तंदुलको भेद नजाने ॥ तैसेमूढमती व्यवहारी । लखेन बंधमोष विधिन्यारी॥६९ ।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) दोहा-कुमती बाहिज दृष्टिसों, वाहिज़ क्रिया करंत। ... . माने मोष परंपरा, मन में हरष धरंत ॥७० ॥ शुद्धातम अनुभो कथा, कहे समकितीकोइ।. ... . सो सुनिके तासोंकहे, यह शिवपंथ न होइ ॥ ७ ॥ कवित्त-जिन्हके देह बुद्धि घट अंतर, मुनि मुद्रा धरि क्रिया प्रवानहि । ते हिय अंध वंध के करता, परमतत्व को भेद न जानहि ॥ जिन्ह के हिये सुमतिकी कनिका, बाहिज क्रिया भेष परमानहि। ते समकिती मोष मारगमुख, करि प्र. स्थान भवं स्थिति भानहि ॥७२॥: .... सवैया इकतीसा-आचारिजकहे जिन बचनको विसतार, अगम अपार है कहेंगे हम कितनो । बहुत बोलबे सों न मकसूद चुप भली, बोलिये सु बचन प्रयोजनहै जितनो॥ नाना रूप जलपं सों नाना विकलप उठे, ताते जेतों का.. रिंज कथन भलो तितनो। शुद्धपरमातमको अनुभौ अभ्यास कीजें, यहे मोषपंथ परमारथ है इतनों॥७३॥ . . . दोहा-सुद्धातम अनुभौ क्रिया, सुद्ध ज्ञान दृग दौर। मुकतिपंथ साधन वहै, वाग जाल सबऔर ॥७४॥ जगत चक्षु आनन्दमय, ज्ञानं चेतना भास । निर्विकल्प साश्वतसुथिर; कीजेअनुभौ तास।७५॥ अचल अखंडित ज्ञानमय, पूरन वीत ममत्व। . ज्ञानगम्य बांधा रहित सो है आतम तत्व ॥ ७६ ॥ . . . इतिश्रीनाटकसमयसारविर्षे दशमसरवविसुद्धिद्वारसंपूर्ण । ... . ... Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) ११ अध्याय स्याद्वादद्वार । दोहा - सरख विसुद्धीद्वारयह, कह्यो प्रगट शिवपंथ । कुंद कुंद सुनिराज कृत, पूरन भयो गरंथ ॥ ७७ ॥ चौपाई | कुंद कुंद मुनिराज प्रवीना । तिन्ह यह ग्रंथ इहांलोंकीना ॥ गाथा बद्ध सुप्राकृतबानी। गुरु परंपरा रीति वखानी ॥७८॥ भयो ग्रंथ जगमें विख्याता । सुनत महासुख पावहिज्ञाता ॥ जे नवरस जगमोहि वखाने । ते सवरसमें सारसमाने ॥७९॥ दोहा - प्रगटरूप संसार में, नवरस नाटक होइ । नवरस गर्वित ज्ञान में, विरला जानै कोइ ॥ ८० ॥ सवैया इकतीसा - सोभा में सिंगार बसै बीर पुरुषारथ में, हिये में कोमल करुनारस बखानिये | आनन्द में हास्य रुंड मुंड में बिराजे रुद्र, बीभछ तहां जहां गिलान मन आनिये | चिन्ता में भयानक अथाहता में अदभुत, माया की अरुचि तामें शान्त रस मानिये । येई नव रस भव रूप येई भाव रूप इन्ह को विलेक्षण सु दृष्टि जग जानिये ॥ ८१ ॥ छप्पय छंद - गुन विचार सिंगार, वीर उद्दिम उदार रुष । करुना सम रसरीति, हासहिरदे उछाह सुख ॥ अष्ट करम दल मलन, रुद्र बरते तिहि थानक । तन विलेछ बीभक्ष, बुंद दुखदसा भयानक । अद्भुत अनंत वल चिंतवत, शांत सहज बैराग धुव ॥ नवरस विलास परगास तब, जब सुवोध घट प्रगट हुव ॥ ८२ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौपाई। जब सुबोध घटमें परकासे । तंव रस विरस विषमता नासे ।। नबरल लखे एकरस मांही। तातेंविरसभाव मिटिजाही८३॥ दोहा-सवरस गर्भित मूलरस, नाटक नाम गरंथ । __ जाके सुनत प्रवान जिय, समुझे पंथ कुपंथ ॥ ८४ ॥ चौपाई। . . बरते ग्रंथ जगत हितकाजा। प्रगटे अमृतचंद मुनिराज ॥ तब तिन्हग्रंथ जानिअति नीकारचीबनाइसंस्कृतटीका॥८॥ दोहा-सर्व विशुद्धि द्वारलों, आए करत. वखान । तव आचारज भक्तिसों,करे ग्रंथ गुन गान ॥ ८६ .॥ . . . . चौपाई। . . . . : अदभुत ग्रंथ अध्यातम बानी। समुझे कोऊ बिरलाज्ञानी ॥ यामें स्यादनाद अधिकाराताकाजो कीजेविसतारा॥८॥ तोगरंथ अति शोभा पावे । बह मंदिर यहकलसकहावे ॥ तबचितअमृतवचनगढखोले। अमृतचंदआचारजवोले।८८ दोहा-कुंदकुंद नाटकविषे, कह्यो दरब अधिकार। . :. .. .स्थादबादने साधि, कहाँ अबस्था द्वार ।। ८९, ॥ कहों मुकतिपदकीकथा, कहों मुकतिकोपंथ। ... जैसे.घृत कारज जहां, तहाँ कारन दधिपंथ ॥१०॥ : . . . . . अर्थ स्पष्ट । चौपाई।. . . . . अमृतचन्द वोले मुदृवानी । स्यादवादकी सुनो कहानी ॥ कोंऊ कहै जीव जगमांही। कोऊकहैजीवहनांही॥९१॥ दोहा-एक रूप कोऊ कहै, कोऊ अगनित अंग। . . ___ छिन भंगुर कोऊ कहै, कोऊ कहै अभंग ॥ ९२॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) अनंत इहबिधि कही, मिले न काहू कोइ । जो सब नय साधन करे, स्यादवाद है सोइ ॥ ९३ ॥ स्थादवाद अधिकार अब, कहीं जैनकोमूल । जाके जाने जगतजन, लहै जगत जलकूल ॥ ९४ ॥ सवैया इकतीसा - शिष्य कहे स्वामी जीब स्वाधीन के पराधीन, जीव एक है किधौ अनेक मानि लीजिये । जीव हे सदी किधौ नाहि है जगतमांहि, जीव अवि नस्वर के नस्वर कही कीजिये ॥ सतगुरु कहे जीव है सदीव निजाधीन, एक अविस्वर दरव दृष्टि दीजिये । जीव पराधीन छिन भंगुर अनेक रूप, नांहि तहां जहां परजे प्रवान कीजिए ॥ ६५ ॥ सवैया इकतीसा - दर्व खेत्र काल भाव चारो भेद वस्तुही में, अपने चतुष्क बस्तु अस्तिरूप मानियें । परके चतुष्क वस्तु नासति नियत अंग, ताको भेद दर्ब परजाय मध्य जानिये ॥ दरवतो वस्तु खेत्र सत्ता भूमिकाल चाल, सुभाव सहज मूल सकति वखानिये । याही भांती परविकलप बुद्धि कलपना, विवहार दृष्टि अंशभेद परवानिये ॥ ९६ ॥ दोहा - है नाही नाही सु है, है है नाही नाहि । 1 यह सरवंगी नयधनी, सबमाने सब मांहि ॥ ९७ ॥ सवैया इकतीसा - ज्ञानको कारन ज्ञेय आतमा त्रिलोक मेय, ज्ञेयंसों अनेक ज्ञान मेल ज्ञेय छाही है । जोलों ज्ञेय तोलों ज्ञान सर्व दर्ब में विनाज्ञेय छेत्र ज्ञानजीव वस्तु नांही है || देह नसे जीव नसें देह उपजत लसें, आमा अचेतन है, सत्ता असमांही है । जीव छिन भंगुर अज्ञायक सरूपी ज्ञान, ऐसी ऐसी एकंत अवस्था मूढ पाही है ॥ ९८ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) सवैया इकतीसा-कोउ मूढ कहै जैसे प्रथम समारिभीति, पीछे ताके उपर सु चित्र आछो लेखिये । तैसे मूल कारन प्रगट घट पट जैसो, तैसो तहां ज्ञान रूप कारज विशेषिये। ज्ञानी कहे जैसी वस्तु तैसोई सुभाव ताको, ताते ज्ञान ज्ञेय भिन्न भिन्न पद पोखिये । कारन कारज दोउ एकहीमें निहचे पें,तेरो मत साचो विवहार दृष्टि देखिये ॥ ९९॥ सवैया इकतीसा-कोउ मिथ्यामति लोकालोक व्यापि जान मानि, समुझे त्रिलोक पिंड आतम दरव है। याहितें सुछंद भयौ डोले मुख हू न बोले, कहे याजगतमें हमारोई खरब है । तासों ज्ञाता कहे जीव जमतसों भिन्न पै,जगत को विकासी तोहि याहीतें गरवहै ।जोवस्तुसो वस्तु पररूप सों निराली सदा,निहचे प्रमान स्यादवादमें सरवहै ॥ ५०० ॥ __सवैया इकतीसा-कोउ पशु जानकी अनन्त विचित्राई देखे, ज्ञेय को आकार नाना रूप विसतन्यो है । ताहीकों विचारी कहे ज्ञान की अनेक सत्ता, गहिके एकन्त पक्ष लोकनि सो लन्यो है ॥ ताको भ्रम भंज को ज्ञानवन्त कहे ज्ञान, अगम अगाध निराबाध रस भयो है। ज्ञायक सु भाई परजाई सो अनेक भयो, जद्यपि तथापि एकतासों नहिं टग्यो है ॥ १॥ सवैया इकतीसा-कोउ कुधी कहे ज्ञानमांहि ज्ञेय को अंकार, प्रति भासि रह्यो हे कलंक ताहि धोइए । जब ध्यान जल सों पखारि के धवल कीजे, सब निराकार शुद्ध ज्ञान मई होइए । तासों स्याद्वादी कहे ज्ञान को सुभाव यहे, ज्ञेय को आकार वस्तु नाहि कहा खोइए । जैसे Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ . ) नानारूप प्रतिबिंवकी झलक दीसे जदपि तथापि आरसी बिमल जोइए ॥ २ ॥ सवैया इकतीसा - कोउ अज्ञ कहे ज्ञेयाकार ज्ञान परिनाम, जोलों विद्यमान तौलों ज्ञान परगट है । ज्ञेय के विनाश होत ज्ञानको विनास होइ, ऐसी बाके हिरदे मि यात की अलट है ॥ तासों समकित वत कहे अनुभौ कंहान, परजे प्रवान ज्ञान नानाकार नट है । निरविकलप अविस्वर दरब रूप, ज्ञान ज्ञेय वस्तु सों अव्यापक अघट है ॥ ३ ॥ * י; + 'सवैया इकतीसा - कोउ मन्द कहे धर्म अधर्म आकास. काल, पुदगल जीव सब मेरो रूप जग में । जाने न मरम .. निज मानें आपा पर बस्तु, बंधे दिढ़ करम धरम खोवे डग में ॥ समकिती जीव सुद्ध अनुभौ अभ्बासें तातें, परको ममत्व त्याग करें पगपग में। अपने सुभावमें मगनरहे आठों जाम, धारावाही पथिक करावे मोख मगमें ॥ ४ ॥ .. सवैया इकतीसा - कोउ, सठ कहे जेतो ज्ञेयरूप परवान, तेतो ज्ञान तातें कहुं अधिक न और है । तिहूं कालपर क्षेत्र व्यापी परनयो माने, आपा न पिछाने ऐसी सिथ्या दृग दौर है ॥ जैन मती कहे जीव सत्ता परवान ज्ञान, ज्ञेयसों अव्यापक जगत सिर मोर है । ज्ञानकी प्रभामें प्रतिबिंबित विविध ज्ञेय, जदपि तथापि थित न्यारी न्यारी ठौर है. ॥ ५ ॥ सवैया इकतीसा - कोउ शून्यबादी कहे ज्ञेयके विनास होत, ज्ञानको विनाश होइ कहो कैसे जीजियें । तातें. जीवितव्यता. की थिरता निमित्त अब, ज्ञेयाकार परिनमनिको नास की Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) जिये ॥ सत्यवादी कहे भैया हूर्जे नाही खेद खिन, ज्ञेयसो विरचि ज्ञान भिन्न मानि लीजियें । ज्ञानकी शकति साधि अनुभौ दशा अराधि, करमकों त्यागिके परम रस पीजिये ॥६॥ सवैया इकतीसा - कोउ क्रूरकहे कायाजीव दोउ एक पिंड, Made avidasi जीव मरेगो । छायाको सो छल किधों. मायाको सो परपंच, कायामे समाइ फिरि कायाको न धरेगी ॥ सुधी कहे देहसों अव्यापक सदीब जीव, समोपाइ परको ममत्व परिहरेगो । अपने सुभाउ आइ धारना घरामे धाइ, आमें मगनव्हे आपा शुद्ध करेगो ॥ ७ ॥ दोहा -ज्यों तन कंचुकि त्यागसों, विनसे नांहि भुयंग । त्यों शरीरके नासतें, अलख अखंडित अंग ॥ ८ ॥ सवैया इकतीसा - कोउ दुरबुद्धि कहे पहिले न छूतो जीव, देह उपजत उपज्यो हे अब आइके । जोलों देह तोलों देहधा री फिर देह नसे, रहेगो अलख ज्योति ज्योतिमें समाइके ॥ सदबुद्धी कहे जीब अनादिको देह धारी, जब ज्ञान होइगो कवहीं काल पाइके । तबही सो पर तजि अपनो सरूप भजि, पावैगो परम पद करम नसाइके ॥ ६ ॥ सबैया इकतीसा - कोउ पक्षपाती जीव कहे ज्ञेय के आकार, परिनयो ज्ञान तातें चेतना असतहै । ज्ञेयके नसत चेतनाको नासता कारन, आतमा अचेतन त्रिकाल मेरे मत है ॥ पंडित कहत ज्ञान सहज अखंडित है, ज्ञेयको आकार धरे ज्ञेयसी बिरतहै । चेतनाके नाश होत सत्ताको विनाश होय, याते ज्ञान चेतना प्रवान जीवतत है ॥ १० ॥ सवैया इकतीसा - कोउ महा मूरख कहत एक पिंडमांहि, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१ ) जहांलों अचित चित अंग लहलहे है । जोगरूप भोगरूप नानाकारज्ञेयरूप, जेतेभेद करमके तेतेजीव कहेहै।मतिमान कहे एक पिंडमांहि एक जीव, ताहीके अनंत भाव अंस फैलि रहेहै।पुग्गलसें भिन्नकर्म जोगसों अखिन्नसदा, उपजे विनसे थिरता सुभाव गहे है ॥ ११॥ सवैयाइकतीसा-कोउ एकछिनवादी कहे एक पिंडमांहि, एक जीव उपजत एक विनसतुहै । जाही समै अंतर नवीन उतपति हुइ, ताही समै प्रथम पुरातन वसतुहै। सरबंगवादी कहे जैसे जलवस्तु एक, सौंई जलविविध तरंगनि लसतुहै। तैसें एक आतम दरब गुनपरजेसों, अनेक भयो में एक रूप दरसतु है ॥ १२॥ संवैया इकतीसा-कोउ वालवुद्धि कहे ज्ञायकसकतिजोलों, तोलों ज्ञान अशुद्ध जगत मध्य जानिये। ज्ञायक सकति काल पाई मिटि जाई जब,तवं अविरोध बोध बिमल बखानिये ॥ परम प्रवीन कहे ऐसीन तो बनें बाही,जैसे बिनु परगास सूरजन मानिये । तैसें विनु ज्ञायक सकति न कहावे ज्ञान, यहतो न पक्ष परतक्ष परबानिये॥१३॥ दोहा-इहविधि आतम ज्ञानहित, स्यादबाद परवान। जाके बचन विचार सों, मूरख होइसुजान॥ १४ ॥ स्यादबाद आतम सदा, ताकारन बलवान । शिव साधक वाधा रहित,अखअखंडित आंन॥१५॥ स्यादवाद अधिकारयह,कह्योअलपविसतार। अमृत चंद मुनिवर कहे,साधक साधि दुवार ॥ १६ ॥ इति श्री नाटक समयसार विषै ग्यारवां स्याद्वाद द्वार समाप्तः । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) १२ अध्याय साध्य साधक द्वार PAURAT PARATI सवैया इकतीसा-जोइ जीव वस्तु अस्ति प्रमेय अगुरु लघु, अजोगी अमूरतिक परदेशवंतहै । उतपतिरूप नाश रूप अविचल रूप, रतनत्रयादि गुणभेदसों अनंत है ॥ सोई जीव दरव प्रवान सदा एकरूप, ऐसो शुद्ध निह, सुभाउ बिरतंत है । स्यादवाद माहि साधि पद अधिकार कह्यो,अव आगे कहिवेकों साधक सिधंत है ॥ १७ ॥ ... दोहा-साधि शुद्ध केवल दशा, अथवा सिद्ध महंत। . साधक अविरत आदि वुध,छीन मोह परजंत ॥१८॥ . सवैया इकतीसा-जाको अधो अपूरव अनवर्ति करनको, भयो लाभ भई गुरु वचनकी बोहनी । जाके अनंतानुबंध क्रोध मान माया लोभ, अनादि मिथ्यात मिश्र समकित मोहनी ॥ सातों पराकति खपी किंवा उपसमी जाके, जगी उरमांही समकित- कला सोहनी । सोइ मोक्ष साधक कहायो ताके सरवंग,प्रगटीशगतिगुन थानक आरोहनी ॥१९॥ सोरठा-जाको सुगति समीप, भई भव स्थिति घट गई। ताकी मनसा सीप, सुगुरु मेघ मुकता वचन ॥२०॥ दोहा-ज्यों बरषे बरषा समे, मेघ अखंडित' धार । . त्यों सदगुरु बानी खिरें, जगत् जीव हितकार ॥२१॥ सवैया तेईसा-चेतनजी तुमजागि विलोकहूं, लाग रहे कहांमाया कि तांई।आय कहींसु कहींतुमजाउगे,माया रहेगि जहां कि तहांई।मायातुह्मारिनजाति नपातिन सकिवेल Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) न अस कि झांई । दासि किए बिनु लाताने मारत, ऐसि अनीति न कीजे गुसांई ॥ २२ ॥ - दोहा - माया छाया एक हैं, घटे बढ़े छिनमांहि ।:: 'इन्हकी संगति जे लगे, तिनहिंकहूं सुखनांहि ॥ २३ ॥ " सवैया तेईसा - लोगनिसों कछु नांतों न तेरों, न तोसों कछू इह लोगों नांतो । ए तो रहे रमि स्वार्थ के रस, तूं परमारथ के रस मातो ॥ ए तनः सों तन में तन से जड़, चेतन तूं तनसों नित होतो । होहि सुखी अपनो बल तोरिकें, रागविराग विरोधकों तांतों ॥ २४ ॥ सोरठा - जे दुरबुद्धी जीव, ते उतंग पदवी चहे । . जे समरसी सदीव, तिन्हको कळू न चाहिये ॥ २५॥ सवैया इकतीसा - हांसी में विषाद वसे विद्या में विवाद वसे, कायामें मरन गुरुवत्र्तन में हीनता । सुचि में गिलान बसे प्रापति में हानि बसें, जैसें हारि सुंदर दशा में छबि छीनता || रोग बसे भोग में संयोग में वियोग बसें, गुन में गरवं बसे सेवा मांहि दीनता । और जगरीति जेती गर्वित असाता सेती, सातांकी सहेली है अकेली उदासीनता ॥ २६ ॥ दोहा-जिंहिउतंगचढ़ि फिरिपतन, नहिंउतंगवहिकूप । जिहिसुख अंतरभयं बसे, सो सुख है दुखरूप ॥ २७ ॥ जो विलसे सुख संपदा, गये ताहि दुख होइ । जोधरती बहु त्रिणवती, जरे अगनिसों सोइ ॥ २८ ॥ इति गुरुः उपदेश समाप्तः । सपदमांहि सतगुरु कहे, प्रगटरूप जिन धर्म |. सुनत विचक्षण सदहै, मूढ़ न जाने मर्म ॥ २९ ॥ ; Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) सवैया तेईसा - जैसे काहू नगरके वासी द्वे पुरुष भूले, तामें एक नर सुष्ट एक दुष्ट उरको । दोउ फिरे पुरके समीप परे कुवटमें, काहू ओर पंथिककों पृछे पंथपुरको ॥ सोतो कहे तुह्मारो नगर हे तुमारे ढिग, मारग दिखावे समुझावे खोज पुरको । एते पर सुष्ट पहिचाने में न माने दुष्ट, हिरदे प्रवान तैसे उपदेश गुरुको ॥ ३० ॥ सवैया इकतीसा - जैसे काहू जंगल में पावसको समो पाई अपने सुभाई महा मेघ वरषतु है । आमल कषाय कटु तीन मधुर बार, तैसो रस वाढें जहां जैसो दरषतु है ॥ तैसो ज्ञान वंत नर ज्ञानको बखान करे, रसको उमाहो है न काहू परपतु है । वहे धुनि सुनि कोउ गह कोउ रहे, सोई, काहू को विषाद होई कोउ हरषतु है ॥ ३१ ॥ दोहा - गुरु उपदेश कहा करे, दुराराधि संसार | वसे सदा जाके उदर, जीव पंच परकार ॥ ३२ ॥ डूंघा प्रभु घूंघा चतुर, सूंघा रोचक शुद्ध । उघा दुरबुद्धी विकल, घूंघा घोर अबुद्ध ॥ ३३ ॥ जाकी परम दशाविषे, करम कलंक न होइ । डूंघा अगम अगाध पद, वचन अगोचर सोइ ॥ ३४ ॥ जे उदास व्है जगतसों, गहे परम रस पेम । सो चूंघा गुरुके बचन, चूधे बालक जेम ॥ ३५ ॥ जो सुबचन रुचिसों सुन, हिए दुष्टता नांहि । परमारथ समुझे नही, सो संघा जगमांहि ॥ ३६ ॥ जाकों विकथा हित लगे, आगम अंग अनिष्ट । सो उंघा विषई विकल, दुष्ट रिष्ट पापिष्ट || ३७ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५) जाकेश्रवनबचननही,नहिमनसुरति विराम। जडता सो जंडवत भयो, बूंथा ताको नाम ॥३८॥ चौपाई। डूंघा सिद्ध कहे सब कोऊ। सुंघा उंघा मूरख दोऊ । बूंघा घोर बिकल संसारी। चूंघा जीव मोख अधिकारी ॥३९॥ दोहा-चूंधा साधक मोक्षको, करे दोष दुख नास । लहे पोष संतोष सों, वरनो लक्षन तास ॥४०॥ कृपा प्रसम संवेग दम, अस्ति भाव वैराग । ए लक्षन जाके हिये, सप्त व्यसनको त्याग ॥४१॥ ' ' चौपाई। जूवा आमिष मदिरा दारी। आषेटक चोरी पर नारी ॥ एई सात व्यसन दुखदाई । दुरितमूलदुर्गतिके भाई॥४२॥ दोहा-दर्वित ए सातों व्यसन, दुराचार दुखधाम । भावित अंतर कलपना, मृषा मोह परिनाम ॥४३॥ सवैया इकतीसा-अशुभमें हारि शुभ जीति यह दूतकर्म देहकी मगनताई यहे मांस भखिबो। मोहकी गहलसों अ. जाने यहै सुरापान, कुमतिकीरीति गनिकाको रस चखिबो॥ निरदे व्हे प्राण घात करिवो यहे सिकार, परनारी संग पर बुद्धिको परखिबो । प्यारसों पराई सोजगहिबेकीचाह चोरी, येई सातोंव्यसन बिडारि ब्रह्म लखिबो॥४४॥ दोहा-विसनं भाव जामें नहीं, पौरुष अगम अपार। कियेप्रकट घटसिंधुमथि, चौदहरतनउदार ॥४५॥ - सवैया इकतीसा-लक्षमी, सबुद्धि, अनुभूति, कौस्तुभमणि, वैराग कलपवृक्ष, संत सुबचन है । ऐरावत, उधिम Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ( ९६ ) प्रतीति रंभा, उदैविष, कामधेनु, निर्भरा सुधाप्रमोद धन है। ध्यान चाप प्रेम रीति मदिरा विवेक वैद्य शुद्धभाव चन्द्रमा तुरंगरूप मन है । चौदह रतन ये प्रकट होइ जहां तहां, ज्ञान के उदोत घट सिन्धुको मथन है ॥ ४६॥... दोहा-किये अवस्थामें प्रकट, चौदह रतन रसाल । कछु त्यागे कछु संग्रह, विधि निषेधकीचाल ॥४७॥ रमा संष विष धनुः सुरा, वेद धेनु हय हेय। : . .नतिरंभा गज कल्पतरु, सुधा सोम आदेय ।। ४८ ॥.. इह विधिजो परभाव विष, वमे रमे निजरूप। .... सो साधक शिवपंथको, चिदविवेक चिद्रूप ॥ ४९ । .. कवित्त छन्द-ज्ञानदृष्टि जिन्हके घट अंतर, निरखे दरव सुगुन परजाइ । जिन्हके सहजरूप दिनदिन प्रति, स्यादवाद. साधन अधिकाइ ॥जे केवल प्रतीत मारग मुख, चिते चरन . राखें ठहराइ । ते प्रवीन करि छिन्न मोह मल, अविचल. होइ परमपद पाई ॥ ५० ॥ , सवैया इकतीसा-चाकसो फिरत जाको संसार निकट आयो, पायो जिनि सम्यक मिथ्यात नाश करिके । निरदुंद मनसा सुभूमि साधि लीनी जिनि, कीनी. मोख कारन अवस्था ध्यान धरिके।सोई शुद्ध अनुभौ अभ्यासी अविना-. शी भयो, गयो ताको करम भरम रोग गारिके । मिथ्यामति आपनो सरूप न पिछाने तामें, डाले जगजालमें अनंत काल भारके ॥५१॥ . ::::: सवैया इकतीसा-जे जीव दरबरूप तथा परजायरूप, दोउ नै प्रवान वस्तु शुद्धता गहतहै । जे अशुद्धभावनिके त्यागी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भए सरबथा, विषेसों विमुख व्है बिरागता चहत है ॥ जो ग्राहजभाव त्यागभाव दुहूं भावनिको, अनुभौ अभ्यासविषे एकता कहत है । तेई ज्ञान क्रियाके आराधक सहज मोख, मारगके साधक अबाधक महतहै ॥ ५२ ॥ दोहा-विनसि अनादि अशुद्धता,होइ शुद्धता पोष । । ता परनतिकौं बुध कहे, ज्ञान क्रियासों मोष ॥ ५३॥ - जगी शुद्ध समकित कला,बगी मोखमग जोइ। - बहे करम चूरन करे, क्रम क्रम पूरन होइ ॥५४॥ जाके घट ऐसी दशा, साधक ताको नाम । जैसे दीपक जो धरे, सो उजियारो धाम ॥५५॥ सबैया इकतीसा-जाके घट अंतर मिथ्यात अंधकारगयो, भयो परगास सुंद्ध समकित भानको । जाकी मोह निद्रा घटी ममता पलक फटी, जान्यो जिन मरम अबाचीभगवानको ॥ जाको ज्ञान तेज बग्यो उदिम उदार जग्यो, लग्यो सुखं पोष-समरस सधा पानको। ताहीस विचक्षन को संसार निकट आयो,पायोतिति मारग सुगमनिरवानको॥५६॥ सवैया इकतीसा-जाके हिरदेमें स्थाबाद साधना करत, शुद्ध आत्माको अनुभौ प्रगट भयो है । जाकों संकलप वि. कलंपके विकार मिटि,सदा काल एकीभाव रस परिनयोहै। जिनिबंध बिधि परिहार मोख अंगीकार,ऐसो सुविचार पक्ष सोउ छांडि दयो है ॥ जाकी ज्ञानमहिमा उदोत दिन दिन प्रति, सोइ भवसागर उलंधि पार गयो है ५७ ॥ सवैया इकतीसा-अस्तिरूप नालात अनेक एकाधिररूप, आथिर इत्यादि नानारूप जीव कहिये। दीसे एक नैशी प्र. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिक्षनी अपर दूजी, नैकों ने दिखाइ बाद विवादमें रहिये । थिरता न होइ विकलपकी तरंगनिमें, चंचलता बढ़े अनुभौं ।' दशा न लहिये । तालें जीव अचल अबाधित अखंड एक, ऐसो पद साधिके समाधि सुख गहिये ॥ ५८ ॥.. सवैया इकतीसा-जैसे एक पाको आंवफल ताके चारि अंस, रसजाली गुठली छीलक. जव मानिये । यों तो न बनें पें ऐसे बने जैसें दहेफल, रूपरस गंध फास.अखंड प्रवानिये ।। . . तैसें एक जीवकों दरव क्षेत्र कालभाव, अंस भद करिः भिन्न . भिन्न न वखानिये। दवं रूप क्षेत्ररूप कालरूप भावरूप,चारोंरूप अलख अखंड लत्ता मानिये ॥ ५९ ॥ ...... __ सवैया इकतीसा-कोउ ज्ञानवान कहे ज्ञानतो हमारोरूप, ज्ञेयषटदर्ब सो हमारो रूप नाही है। एकनै प्रबान ऐसें दूजी अब कहों जैसे,सरस्वती अक्षर अरथ एक ठांही है ॥ तैसे ज्ञाता मेरो नाम ज्ञान चेतना विराम, ज्ञेयरूप सकति अ नंत मुझ पाही है। ता कारण वचनके भेद भेद कहों कोउ, ज्ञाता ज्ञान ज्ञेयको बिलास सत्ता माहीं है ॥ ६०. ॥ :.. . . चौपाई : स्वपर प्रकाशक सकति हमारी। तातें बचन भेदभ्रमभारी॥ ज्ञेयदसा द्विविधा परगासी।निजरूपा पररूपा भासी॥ ६१॥ . 'दोहा-निजरूपा आतम सकति, पररूपा परवस्त।. जिनि लखि लीनो पेच यह,तिनिलिखलियो समस्तः॥१२॥ सवैया इकतीसा-करम अवस्थामें अशुद्धसो विलोकियत,... करम कलंकसों रहित शुद्ध अंगहै । उभे नै प्रवान समका. .. ल सुद्धासुद्धरूप, ऐसो परजाइ धारी जीव नाना रंग. हैं: ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) एकही समेमें त्रिधारूप में तथापि याकी, अखंडित चेतना सकति सरवंग है । यहे स्याद्वाद याको भेद स्याद्वादी जाने, मूरख न मानें जाको हियो दृग भंगहै ॥ ६३ ॥ 1 सवैया इकतीसा - निचे दरव दृष्टि दीजें तब एकरूप, गुनपरनति भेद भावसों बहुत है । असंख प्रदेश संयुगल सत्ता परबान, ज्ञानकी प्रभासों लोकालोक मानजुत है ॥ परजे तरंगनिके अंग छिन भंगुर है, चेतना सकति सो अखंडित अचुत है । सोहे जीव जगति विनायक जगत सार, जाकी मौज महिमा अपार अदभुत है ॥ ६४ ॥ सवैया इकतीसा - विभाव सकति परिनतिसों विकल दीसें, सुद्ध चेतना विचारतें सहज संतहै । करम संयोग सों कTa fast निवासी, निहवें सरूप सदा मुकत महंतहै ॥ ज्ञायक सुभाउ घरे लोकालोक परगासी, सत्ता परवान सत्ता परगाव है | सोहे जीव जानत जहां न कौतुकी महान, जाके कीरति कहान अनादि अनंत है ॥ ६५ ॥ सवैया इकतीसा - पंच परकार ज्ञानावरनको नास करि, प्रगटी प्रसिद्ध जग मांहि जगमगी है । ज्ञायक प्रभामें नाना ज्ञेय की अवस्था धरि, अनेक भई पें एकतामें रसपगी है ॥ याही भांति रहेगी अनंत काल परजंत, अनंत शकति फोरिअनंतसों लगी है । नरदेह देवलमें केवलमें रूप सुद्ध, ऐसी ज्ञान ज्योतिकी सिखा समाधि जगी है ॥ ६६ ॥ सवैया इकतीसा - अक्षर अरथ में मगन रहे सदा काल, महा सुख देवा जैसी सेवा काम गविकी । अमल अबाधित अलख गुन गावना है, पावना परमशुद्ध भावना है भविकी ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) मिथ्यात तिमर अपहार वर्द्धमान धारा, जैसी उभै जाम लों किरन दीपे रविकी । ऐसीहै अमृत चंदकला त्रिधारूपधरे, अनुसौ दशा गरंथ टीका बुद्धि कविकी॥६७॥ दोहा-नाम साधि साधक कह्यो, द्वार द्वादसमठीक। .. समयसार नाटक सकल पूरन भयो सटीक.॥६॥ इतिश्रीवाटकसमयसारविर्षेसाध्यसाधकनामावारमांद्वारसंपूर्णम् । दोहा-अव कविजन पूरनदशा, कहै आपसों आप। सहज हरष मन में धरै, करैं न पश्चाताप ॥.६९॥ सवैया इकतीसा जो मैं आप छोड़ि दीनो पररूप गहि लीनो, कीलोन क्लेरो तहां जहां सेरो थल है। भोगनि को भोगी राहि करमको कर्ता भयो, हिरदे हमारे राग दोष मोह मल है। ऐसी विपरीति चाल भई जो अतीति काल, सोतो मेरी क्रिया की ममत्वताको फल है । ज्ञान दृष्टि भासी भयो क्रिया सों उदासी वह, मिथ्या मोह निद्रा में सुपन को सो छल है ॥ ७॥ दोहा-अमृतचन्द मुनिराज कृत, पूरन भयो गरंथ।...: समयसार नाटक प्रकट पंचमगतिको पंथ ॥७१॥ . इतिश्रीसमयसारनाटकग्रंथअमृतचंदआचार्यकृत्तसंपूर्णम् । .. दोहा-जाकी भगति प्रभावलो; कीनोग्रंथ निवाहि। :: जिनप्रतिमाजिनसारखी,नभेबनारसिताहि ॥७२॥. ::, सवैया इकतीसा-जाके सुख दरस सों भगत के नैननि. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) कों, थिरता की बानी चढ़ी चंचलता बिनसी । मुद्रा देखे केवलीकी मुद्रा यादि आवे जहां, जाके आगे इंद्रकी विभूति दिसे तिनसी ॥ जाको जस जंपत प्रकास जगे हिरदेमें, सोई सुद्ध मती होइ हुती जो मलिनसी । कहत बनारसी सुमहिमा प्रकट जाकी, सोहे जिन की सबी हे विद्यमान जिनसी ॥७३॥ . __ सवैया इकतीसा-जाके उर अंतर सुदृष्टिकी लहरिलसी, बिनसी मिथ्यात मोह निद्राकी समारषी । सैली जिन सा. सनकी फैली जाके घट भयो, गरवको त्यागी षट दरवको पारषी॥आगम के अक्षर परे है जाके श्रवणमें, हिरदेभंडार में समानी बानी आरषी । कहत बनारसी अलप भवस्थित जाकी, सोइजिनप्रतिमा प्रवाने जिन सारषी॥७४॥ चौपाई। . . जिन प्रतिमाजन दोष निकदे। सीस नमाइ बनारसि बंदे फिरिमनमांहि विचारे ऐसा । नाटकग्रंथ परमपद जैसा॥७५॥ परम तत्व परचे इस मांही । गुन थानककी रचनानांही॥ यामें गुनथानक रस आवे।तो गरंथ अतिशोभापावे॥७६॥ दोहा-यह विचारि संक्षेपसों, गुनथानक रस योज। बरनन करे बनारसी, कारन शिव पथ खोज ॥७७॥ 'नियत एक विवहारसों, जीव चतुर्दश भेद । रंग जोग बहुबिधि भयो, ज्यूंपट सहजसुपेद ॥७॥ सवैया इकतीसा-प्रथम मिथ्यात दूजो सासादन तीजो मिश्र चतुरथो अबत पंचमोजतरंच है। छठो परमत्त सातमो अपरमतनाम, आठमो अपूरब करनसुख संचहै ॥ नौमो Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२) अनिवर्त भाव दशमो सूक्षमलोभ, एकादशमो सु उपसंत मोह वंचहै । द्वादशमो क्षीन मोह तेरहों सजोगी जिन, चौदहों अजोगी जाकी थिति अंक पंच है ॥ ७९ ॥ दोहा-वरने सबगुन थानके, नाम चतुर्दश सार । __अब वरनों मिथ्यातके, भेद पंच परकार ॥ ८॥ सवैया इकतीसा-प्रथम एकंत नाम मिथ्यात अभिग्रहीक, दूजो विपरित अभिनिवेसिक गोत है। तीजो विनै मिथ्यात अनाभिग्रह नाम जाको, चौथो संसे जहां चित भोरकोसो पोत है ॥ पंचमो अज्ञान अनाभोगिक गहलरूप, जाके उदे चेतन अचेतनसो होत है । ए पांचो मिथ्यात भ्रमावे जीवको.जगतमें, इन्हके विनास समकितको उदोत है ॥ ८१ ॥ . दोहा-जो इकत नय पक्ष गहि, छके करावे दक्ष । . सो इकंत वादी पुरुष, मृषावंत परतक्ष ॥ ८२॥ ग्रंथ उकति पथ उक्षपे, थापे कुमत सुकीयः। सुजस हेत गुरुता आहे, सो विपरीती जीय ॥ ८३ ॥ देव कुदेव सुगुरु कुगुरु, गिनें समान जु कोइ । नमेंभगतियों सवनिको,विनयमिथ्यातीसोइ ॥ ८४॥ जो नाना विकलप गहे, रहे 'हिए हैरान । थिर व्हे तत्व न सबहे, सोजिय संसयवान ॥ ८५॥ जाको तन दुखदहलसों, सुरतिहोति नहिरंच। गहलरूप वरते सदा, सो अज्ञान तिरयंच ॥८६॥ पंचभेद मिथ्यातके, कहे जिनागम जोइ। - सादिअनादि सरूपअव, कहों अवस्थादोइ ॥ ८७॥ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) जो मिथ्या दल उपसमे, ग्रंथ भेद बुधि होइ। । फिरिआवे मिथ्यातमें, सादि मिथ्याती सोइ ॥ ८८॥ जिनि गरंथि भेदी नही,ममता मगनसदीव। . सोअनादि मिथ्यामती,बिकल बहिर्मुखजीव॥८९॥ कोप्रथमगुणथानंयह मिथ्यामतअभिधान। अलप रूप अवबरनवू, सासादन गुन थान ॥ ९० ॥ सवैया इकतीसा-जैसे कोउ क्षुधित पुरुष खाइ खीर खांड, बोन करे पीछे के लगार स्वाद पाबे है । तैसे चाढ़ चौथे पांचएके छडे गुनथान, काहु उपसमीको कषाइ उदे आवे है ॥ ताहि समे तहां गिरें परधान दशा त्यागी, मिथ्यात अवस्थाको अधोमुखव्हे धावे है। वीच एक समे वा छ आवली प्रमान रहै, सोइ सासादन गुनथानक कहावे है।। ९१ ॥ दोहा-सासादन गुन थान यह, भयो समापत बीय । - मिश्र नाम गुन थानअब, बरनन करों त्रितीय ॥९२॥ सवैया इकतीसा-उपसमी समकितीकेतो सादि मिथ्यामती, दुहनिको मिश्रित मिथ्यात आइंगहे है। अनंतानु बंधी चोकरीको उदे नांही जामे, मिथ्यात समे प्रकृति मिथ्यात न रहेहै ।। जहां सबहन सत्यासत्यरूप समकाल, ज्ञान भाव मिथ्याभाव मिश्र धारावहहै । जाकीथिति अंतर मुहूरत वा एक समे, ऐसो मिश्र गुन थान आचारज कहहै ॥१३॥ दोहा-मिश्र दशा पूरनभई, कही यथा मति भाषि । __ अथ चतुर्थगुनथानविधि,कहोंजिनागम साषि॥ ९४ ॥ सवैया इकतीसा केई जीव समकितपाय अर्ध पुद्गल, परावर्त्त काल ताई चोखे होइ चित्त के । कोई एक अंतर Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) मुहरत में ग्रंथि भेदि, मारग उलंघि सुखवेदे मोख वितके ।। तातें अंतर मुहूरतसों अर्द्ध पुद्गललों, जत समें होही तेते भेद समकितके । जाही समे जाको जब समकित होई सोई, त बहसों गुन गहे दोष दहे इतके ॥ ९५ ॥ दोहा - अथ पूर्व अनवर्त्ति त्रिक, करन करे जो कोइ । मिथ्या ग्रंथि बिंदार गुन, प्रगटे समकित सोइ ॥ ९६ ॥ समकित उतपति चिन्हगुन, भूषनदोपविनास । छातीचार जुतअष्ट विधि, वरनों विवरन तास ॥ ९७ ॥ चौपाई | सत्य प्रतीति अवस्था जाकी । दिनदिन रीतिगहे समता की। छिन छिन करेसत्यको साको। समकितनां उकहा वेताको ९८ ॥ दोहा - केतो सहज सुभाउको, उपदेशे गुरु कोइ । चिहुँ गतिसंती जीवकों, सम्यक् दरशन होइ ॥ ९९ ॥ आपा पर परचे विषे, उपजे नहिं संदेह | सहज प्रपंचरहित दशा, समकित लक्षण एह ॥ ६०० ॥ करुना वछल सुजनता, आतमनिंदा पाठ । समता भगति विरागता, धरमराग गुनआठ ॥ १ ॥ चित प्रभावना भावजुत, हेय उपादयधानि । धीरज हरष प्रवनिता, भूषन पंच वखानि ॥ २ ॥ अष्ट महामद अष्ट मल, षट आयतन विशेष । तीन मूढता संजगत, दोष पचीसी एष ॥ ३ ॥ जाति लाभकुल रूपतप, वलविद्या अधिकार । * इन्हकोगरबजु कीजिये, यह मद अष्ट प्रकार ॥ ४ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) ....................... चौपाई। आसंका अस्थिरता बांछा। ममता दृष्टि दशा दुरगंछा। बत्सल रहित दोष परभाले। चित्तप्रभाबनामांहि नराष॥ ५ ॥ दोहा-कुगुरु कुदेव कुधर्म धर, कुगुरु कुदेव कुधर्म। ...इनकी करे सराहना, यह षडायतन कर्मः ॥ ६ ॥ :: देव मूढ़ गुरु मूढता, धर्म मूढता पोष। .. आठआठ षटतीनिमिलि,एपचीससबदोष॥ ७ ॥ ....: ज्ञान गर्व मतिमंदता; निठुर वचन उदगार। ... रुद्रभाव आलस दला, नास पंच परकार ॥ ८ ॥ ... ... लोग हासभय भोगरुचि,अनसोचथितचेव। - मिथ्या आयमकी भगति,भूषा दरसनी सेव॥ ६ ॥ . . . . . चौपाई।................ अतीचार ए पंच प्रकारा । समलकरहि समकितकी धारा ॥ दूषनभूषनगतिअनुसरनी। दसाआठसमकितकी बरनी॥१०॥ दोहा-प्रकृति सात अब मोहकी,कहों जिनागम जोई। ...:.:. जिन्हको उदै निवारिक, सम्यक दरशन होइ॥ ११ ॥ . . सवैया इकतीसा-चारित मोहकी चारि मिथ्यातकी तीनि तामें, प्रथम प्रकृति अनंतानबंधी कोहनी। बीजी महामान रस भीजी मायां भई तीजी, चौथी महालोभ दसा परिगह पोहनी॥पांचइ मिथ्यातमति छठी मिश्र परनति, सातई समें , प्रकृति समेकित मोहनी । एई षट विंग बनितासी एक कु. तियासी, सातो मोहप्रकृति कहावे सत्ता रोहनी ॥ १२॥.. छप्पय छन्द-सात प्रक्चति उपसमहि, जासु सो उपसम मंडित । सातप्रकृति छय करन, हारछायकी अखंडितासात Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) मांहि कछु षिपहि, कछुक उपसम करि रक्खे । सो छय उपसमवंत, मिश्र समकित रस चक्ख । पट प्रकृति उपशमइवाषिपइ, अथवा छय उपशम करे। सातई प्रकृति जाके उदय, सो वेदक समकित धरे ॥ १३ ॥ . दोहा-छय उपसम वरते त्रिविध, वेदक चार प्रकार । छायक उपशम जुगलयुत,नौधासमकितधार ।। १४ ॥ चारिषिपहित्रय उपसमाह,पणषयउपसमदोइ। बै षट उपसम एक यों,षय उपसम त्रिकहोइ॥ १५ ॥ जहांचारिप्रकरती षिपहि, द्वे उपसम इकवेद। षय उपसमवेदक दशा, तासु प्रथम यह भेद॥ १६ ॥ पंच षिपे इक उपसमै, इक वेदे जिहि ठौर । सो पय उपसम वेदकी, दशादुतिय यह और ॥१७॥ षय षट वेदे एक जो, व्यायक वेदक सोइ । षटउपसमइकप्रक्रतिविद,उपसमवेदकहोइ॥ १८॥ खायक उपसमकी दशा,पूरव पट पदमांहि । कहीप्रगट अब पुनरुकति,कारन वरनीनांहि ॥ १९ ॥ षयउपसमवेदकषिपक,उपसमसमकितचारि। तीनचारिइकइकमिलत,सव नवभेदविचारि॥२०॥ सोरठा-अवनिहचे विवहार,अरुसामान्य विशेषविधि। ____कहों चारि परकार, रचना समकित भूमिकी ॥२१॥ सवैया इकतीसा-मिथ्या मति गांठि भेद जगी निरमल ज्योति, जोगसों अतीत सोतो निहचे प्रवानिये, वहे दुन्द दसासों कहा जोग मुद्रा धरे, मति श्रुति ज्ञान भेद विवहार मानिये ॥ चेतना चिहन पहिचान आपपर वेदे, पौरुष Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) अलप ताते समान बखानिये | करे भेदाभेदको विचार विसताररूप, हेय गेय उपादेयसों विशेष जानिये ॥ २२ ॥ सोरठा - थिंति सागरते तीस, अन्तरमुहुरत एकवा | 1 अविरति समकिति रीस, यहचतुर्थ गुनथानइति ॥२३॥ दोहा - अव बरनो इक्वीलगुन, अरु बावीसअभष्य । जिन्ह के संग्रह त्यागसों, सोहे श्रावक पप्य ॥ २४ ॥ सवैया इकतीसा - लज्जावन्त दयावन्त प्रसन्त प्रतीतवन्त, परदोषको ढकैया पर उपकारी है । सोम दृष्टि गुन ग्राही गरिष्ट सबको इष्ट, सिष्ट पक्षी मिष्टवादी दीरग.वि. चारी है ॥ विशेषज्ञ रसज्ञ कृतज्ञ तज्ञ धरमज्ञ, नदीन न अभिमानी मध्य विवहारी है । सहजै विनीत पाप किया सोती ऐसो, श्रावक पुनीत इकवीस गुनधारी है ॥ २५ ॥ कवित्त छन्द - प्रोरा घोरवरा निसभोजन, बहु बीजा वेंगन सन्धान । पीपर वर उँबरि कटूंबरी, पाकर जो फल होइ अजान || कन्दमूल माटी विष आमिष, मधु माखन अरु मदिरापान । फल अति तुच्छ तुसार चलित रस, जिनमत ए बावीस अखान ॥ २६ ॥ दोहा - अब पंचम गुनथानकी, रचना बरनो अल्प | जामें एकादश दशा, प्रतिमा नाम विकल्प ॥ २७ ॥ 1 : सवैया इकतीसा - दंसन विशुद्धकारी बारह विरतधारी, सामाचारी पर्व पोसह विधि वहे । सचित्तको परिहारी दिवा अपरस नारी, आठोजाम ब्रह्मचारी निरारम्भी व्है रहे । पाप परिग्रह छंडे पापकी नं शिक्षा मंडे, कोउ याके निमिस Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे सो वस्त न गहे । एते देस बसके धरैया समकिती जीव, • ग्यारह प्रतिमा तिन्हे भगवन्तजी कहे ॥२८॥ दोहा-संयम अंसजग्योजहाँ; लोग अरुचि परनाम। उदे प्रतिज्ञाको भयो, प्रतिमा ताको नाम ॥ २६॥ आठ मूलगुण संग्रह, कुवसन क्रिया न कोइ। दर्शन गुन निर्मल करे, दर्शन प्रतिमा सोइ ॥३०॥ '. पंच अनुजत आदरे, तीन गुण ब्रत पाल । .... लिक्षात च्यारो धरे, यह ब्रत प्रतिमा चाल ॥ ३१॥ .. दर्वभाव विधि संजुगत, हिये प्रतिज्ञा टेक।.:.. ताज समता समता गह, अतर मुहुरत एक.॥.३२।। ........ चौपाई। जोआरमिन्न समान विचारें। आरत रुद्र कुध्यान निवारै। संजमसहित भावना भाके । सो सामायकवंतकहाचे ॥३॥ दोहा-सामाचक कीसी दला, चार पहर लो होइ । अथवा आठपहररहे, पासह प्रतिमा सोइ ॥३४॥ जो सचित्त भोजन तजे, पीवे प्रासुक नीर । सो सचित्त त्यागी पुरुष, पंच प्रतिज्ञा गीर ॥ . चौपाई। जो दिन ब्रह्मचर्य व्रतपाले । तिथिमायेनिशिौस सँभाले। गहिनौवाडीकरै ब्रत रक्षा । सोषटप्रतिमासाधकअक्षा॥३६॥ जोनवाडिसहितविधि साधे । निशिदिन ब्रह्मचर्याराधे॥ सोसतमप्रतिमारज्ञाता।शीलशिरामनिजगतविख्याता३७ .. कवित्त छंद-तिय थल बाल.प्रेम: रुचिःनिरखन, दे परीक्ष भाषन मधु वेन । पूरबभोग केलि रसचिन्तन, गुरु आहार ... .. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेत चित चेन ॥ करिसुचितन श्रृंगार वनावत, तिय परयंक: मध्य सुखसेन । मन मथ कथा उदर भरि भोजन, ए नव " वाडि जान मतजेनः ॥ ३८॥ . दोहा-जो विवेक विधि आदरे, करे न पापा रंभ। ....... ! सो अष्टम प्रतिमाधनी कुगति विजेरनथंभ॥३९॥ ... .........चौपाई। • जो दसंधा:परिग्रहको त्यागी । सुख संतोषःसहज बैरागी.॥ . समरसचिंतितकिंचितग्राही। सोश्रावकनौप्रतिमावाही॥४०॥ दोहा-परकों पापा रंभ को, जो न देइ उपदेश। ....... ..सोदशमीप्रतिमासहित, श्रावकविगतकलेश॥४१॥ ::..: .. चौपाई :.:... . जो सुछन्द बरतें तजिं डेरा। मठ मंडप महिकरे बसेरा ॥ उचित अहार उदंड बिहारी। सोएकादश प्रतिमाधारी॥४२॥ . दोहा-एकादश प्रतिमादशा, कही देशव्रत-माहि ... ...... वही अनुक्रम मूलसों, गही सु छूटी नाहि ॥४३॥ षट प्रतिमा ताई जघन, मध्यम नब परजंत । उत्तम दशमी ग्यारमी, इति प्रतिमा विरतंत ॥४४॥ .... चौपाई।............ - एक कोट पूरव गनिलीजें । तामें आठ बरष घट कीजै ॥ यहउत्कृष्टकाल थिति जाकी। अंत मुहूर्त जघन्य दसाकी४५॥ : दोहा-सत्तरिलाख करोड़मिति,छप्पन सहस कराोड़ी . एते वरष मिलाइ करि, पूरब संख्या जोड़ि ॥४६॥ . . . अंतर मुहुरत है. घडी, कछुक घाटि उतकृष्ट । एक समें एकाउली, अंत मुहूर्त कनिष्ट ॥४७॥ .. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०) यह पंचम गुनथानकी, रचना कही विचित्र । '' अब छट्टम गुनथानकी, दसा कहूं सुनु मित्र ॥४८॥ पंचप्रमाद दशा धरे, अट्ठाइस गुनवान । थविर कल्पजिन कल्पजुत, हेप्रमत्त गुनथान ॥१९॥ धरमराग बिकथावचन, निद्राविपय कपाइ । पंच प्रमाद दसासहित, परमादी मुनि राइ ॥५०॥ सवैया- इकतीसा-पंच महाव्रत पाले पंच सुमती संभाले, पंच इंद्रि जीति भयो भोगी चित चेनको । पट आवशक क्रिया दर्वित भावित साधे, प्रासुक धरामें एक आसन हे सेनको । मंजन न करे केसढुंचे तन वस्त्र सुंचे, त्यागे दंत घन में सुगंध स्वास चेनको ॥ ठाढो कर अहारलघु भुंजी एकवार, अठाइस मूल गुनधारी जती जैनको ॥ ५१ ॥ दोहा-हिंसा मृषाअदत्त धन, मैथुन परिग्रह साज।। किंचित त्यागीअनुव्रती,सवित्यागीमुनिराज।। ५२ ।। चले निरखि भाषे उचित, भपे अदोष अहार। लेइ निरखि डारे निरखि, सुमतिपंच परकार ॥ ५३॥ समता वंदन थुति करन, पडिकमनो सज्जाउ । काउसग्ग मुद्राधरन ए पडावसिक भाउ ॥५॥ सवैया इकतीसा-थविर कलपी जिनकलपी दुविधिमुनि, दोउ वनवासी दोउ नगन रहतहं । दाड अठाइस मुलगनके धरैया दोड, सरव तियागी व्ह विरागता गहन हैं। थविर कलपितेजिन्हके शिष्य साया होई, बैठक सभा धर्म देसना कहतह । एकाकी सहज जिन कलपी नपत्री घार, उडेकी मरोरखं परिसह सहतह ॥ १५॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११) सवैया इकतीसा-ग्रीषममें धूप थितसीतमें अक पचीत,भूखेधरेधीर प्यासे नीरन चहतु है। डंस मसकादिसों न डरें भूमि सैन करें, वध बंध बिथामें अडोल व्है रहतु है ॥ चर्या दुखभरे तिन फाससों न थरहरें, मल दुरगंधकी गिलान न गहतुहै। रोगनको न करें इलाज एसो मुनिराज, वेदनीफे उदे ए परीसह सहतुहै ॥ ५६ ॥ ___ कुंडलिया-एते संकट मुनि लहे, चारित मोह उदोत । लज्जा संकुच दुख धरे, नगन दिगंवर होत॥नगन दिगंबर होत, श्रोत रति स्वाद न सेवे । त्रियसनमुख दृग रोकि, मान अपमान न बेवे॥थिर व्हे निर्भय रहे, सहे कुवचन जग जेते।भिक्षुक पद संग्रहे, लहे मुनि संकट एते ॥ ५७॥ दोहा-अल्प ज्ञाने लघुता लखे, मति उतकरष विलोइ।। ज्ञानाबरन उदोत मुनि, सहे परीसह दोइ ॥५८॥ सहे अदरसन दुरदसा, दरसन मोह उदोत । रोके उमग अलाभ की, अंतराय के होत ॥ ५९॥ सवैयाइकतीसा-एकादश वेदनीकी चारितमोहकीसात, ज्ञानावरनी की दोइ एक अंतरायकी। दंसन मोहकी एक द्वाविंसति बाधा सब, केई मनसाकी केइ वाकी केई कायकी । कारकों अलप काहसों वहोत उनी साता, एकहीं समेमें उदे आवे असहायकी । चर्याथित सय्यामांहि एक सीत उस्नमांहि, एकदोइहोहि तीनि नांही समुदायकी॥६॥ दोहा-नानाविध संकटदशा, सहिसाधे शिव पंथ । थिविरकल्प जिनकल्पधर,दोऊसम निगरंथ॥ ६१ ॥ . जो मुनि संगतिमें रहे, थविरकल्पिसोजानि। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२ ) . एकाकीनाकी दशा, सो जिनकल्प वखानि ॥ ६ ॥ .. .: चौपाई। थविरकलपमुनिकछुकसरागी । जिनकलपी महांत विरागी॥ इति प्रमत्त गुनथानकं धरनी। पूरनभईजथारथवरनी॥ ६३॥ अब बरनो सत्तम विसरामा । अप्रमत्त गुनथानक नामा ॥.. जहां प्रमादक्रिया विधिनासे । धर्मध्यान थिरतापरगाले६४॥ दोहा-प्रथम करनचारित्रको, जासु अंत पद होई। - जहां अहार बिहारनहि, अप्रमत्त हे सोइ ॥६५ ॥ ......... . चौपाई। . अव वरनो अष्टम गुन थाना । नाम अपूरब करन वखाना ॥ . कछुकमोहउपसमकरिराखे । अथवाकिंचितक्षयकरिनाखोक्षा जो परिनाम भये नहिकबहीं । तिन्हको उदो देखिएजबहीं ॥ . तब अष्टम गुनथानक होई । चारितकरन दूसरोसोई॥६॥ अब अनवर्तिकरन सुनु भाई। जहां भाव थिरताअधिकाई॥ पूरवभाव चलाचल जेते। सहजअडोलभयेसवतेते॥६॥ . जहांनभाव उलटिअधश्रावे । सो नवमो गुनथान कहावै ॥ चारित मोहजहां बहुछीजा । सोहेचरनकरनपदतीजा ॥६९॥ कहों दशमगुनथानदुसाखा । जहांसूक्ष्मशिवकीअभिलाषा ॥ सूक्षमलोभदशाजहांलहिये। सूक्षम संपरायलोकहिये ॥७॥ अब उपसंत मोहगुन थाना । कहों तातु प्रभुता परवानाः ।। जहांमोहउपसमै न भासे । जथाख्यातचारितपरगासा७॥ दोहा-जाहि फरसके जीव गिरि, परै करै गुन रद्द। . ... सो एकादसमी दसा, उपसमकी सरहद्द ।। ७२॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३) चौपाई। .:. ... ... ... . केवल ज्ञान निकट जहँ आवे। तहां जीव सब मोहषि पावे॥ प्रगटे यथाख्यात परधाना।सोद्वादशम छीनगुनथाना ॥७३॥ दोहा--षट लत्तम अट्ठम नबन, दश एकादश बार। ... अंतर मुहुरत एक वा, एकसमै थितधार ॥७४ ॥ * . छीन मोह पूरन भयो, करि चूरन चित चाल। - अब सजोग गुनथानकी, बरनों दला रसाल ॥७५॥ .. सबैया इकतीसा-जाकी दुःखदाता घाली बोकरी बिनसगई, चोकरी अघाती जरी जेवरी समान है । प्रगटभयो अनंत दंसन अनंत ज्ञान, बीरज अनंत लुख सत्ता समाधान है ॥ जामें आउ नाम गोंत वेदनी प्रकृति ऐसी, एक्यासी चोरासी वा पंचासी परवान है । सो हे जिन केवली जगत • वासी भगवान, ताकी जो अवस्था सो सजोगी गुन थानहै।७६। सवैया इकतीसा-जो अडोल परजंक मुद्रा धारी सरवथा, अथवा सुकाउसग्ग मुद्रा थिरपालहै । खेत लपरल कर्मभ कृतिके उदे पाए; बिना डग भरे अंतरिक्ष जाकी चाल है ॥ .. जाकी थिंत पूरब करोडि आठवर्ष घाट, अंतरमुहूरति जघन्य . 'जग जालहै । सो है देव अठारह दूषन रहित ताकौं,बनारसी कहे मेरी वंदना निकाल है ॥ ७७ ॥ ...... कुंडलिया-दूषन अद्वारह रहितं, सो. केवलि संजोग । जनम मरण जाके नहीं, नहिं निद्रा भय रोग ॥ नहिं निद्रा.भय रोग, लोग विस्मय नमोहमति । जराखेद परस्वेद, नांहि मद वैर विषै रति ॥ चिंता नांही सनेह, नाहिं जह प्यास न भूखन । थिर समाधि सुख सहित, रहित अटार:: ह दूषन ॥ ७८॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) कुंडलिया-बानी जहां निरक्षरी, सप्तधातुमलनाहि केस रोमनखनहि वढ़े,परमउदारिक माहि॥ परमउदारिक माहिं जांहि इंद्रिय विकार नसि, जथाख्यात चारित प्रधान थिर सुकल ध्यान ससि । लोकालोक प्रकास,करन केवल रजधानी॥ सो तेरम गुनथान,जहां अतिशयमयवानी॥७९॥ दोहा-यह सजोग गुनथानकी, रचना कही अनूप ।' अब अयोग केवल कथा, कहों यथारथरूप ॥ ८॥ सवैया इकतीसा-जहां काहू जीबकौं असाता उदे साता नाहि, काहूको असाता नांहि साता उदे पाइये । मन वच कायलों अतीत भयो जहां जीव,जाको जस गीत जगजीत रूप गाइये ॥ जामें कर्म प्रकृतिकी सत्ता जांगी जिनकीसी, अतकाल द्वेसमे में सकल खिपाइये । जाकी थिति पंचलघु अक्षर प्रधानसोइ,चौदहो अयोगी गुन थाना ठहराइयो।८१॥ दोहा-चौदह गुनथानक दशा, जगवासी जियसूल। आश्रब संवर भाव द्वे, बंध मोक्ष के मूल ॥ ८२॥ . चौपाई। आश्रय संबर परनतिजोलों। जगत निवासि चेतनातोलों॥ आश्रव संवरविधि विवहारा।दोऊभवपथ शिवपथधारा८३॥ आश्रव रूप बंध उतपाता। संबर ज्ञान मोष पद दाता ॥ जा संवरसों आश्रय छीजे । ताको नमस्कार अवकीजे८४॥ सर्वया इकतीसा-जगतकं प्रानी जीव व्है रह्यो गुमानी ऐसो, आश्रव असुर दुःख दानी महा भीम है । ताको परताप खडिवको परगट भयो, धर्मको धरैया कर्म रोगको 'हकीम है ॥ जाके परभाव आगे भागे परभाव सब, ना Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५) गर नवल सुख सागरकी सीम है ॥ संवर को रूपधरे साधे शिवराह ऐसो ज्ञानी पातसाह ताकों मेरी तस लीम है ॥ ८५ ॥ इतिश्रीसमयसार नाटक पालावबोधरूप समाप्त । चौपाई। भयो ग्रंथ संपूरन भाषा । बरनी गुनथानककी साषा ॥ वरनन और कहांलों कहिये । जथासकतिकहिचुपंव्हेरहिये। लिहए ऊरन ग्रंथ उदधिका । ज्योज्योंकहियेत्योंत्योंअधिका। ताते नाटक अगम अपारा । अलपकबीसुरकीमतिधारा८७ दोहा-समयसारनाटक अकथ,कविकीमतिलघुहाई। तातें कहत बनारसी, पूरन कथे न कोइ ॥८॥ सवैया इकतीसा-जैसे कोउ एकाकी सुभट पराक्रम करि, जीते केही भांति चक्री कटक सों लरनो। जैसे कोउ परविन तारू भुज भारु नर, तरे केले स्वयंभूरमन सिंधु तरनो ॥ जैसे कोउ उद्दिमी उछाह मनमांहि धरे, करे केसें कारज विधाता को सो करनो। तैसे तुच्छ मती मोरी तामें कविकला थोरी, नाटक अपार में कहां लों याहि वरनो ॥ ८९ ॥ अथ जीव महिमा कथन। सवैया इकतीसा-जैसे वटवृक्ष एक तामें फल हैं अ-: नेक फल फल बहू वीज बीज बीज क्ट है। क्टमाहि. फल फलमांहि वीज तामे. बट कीजे जो विचार तो .. तता अघट है ॥ तैसे एक सत्ता में अनंत गुण प्रजा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) जा में अनंत नृत्य नृत्य में अनंत ठट है । ठट में अनंत कला कला में अनंत रूप रूपमें अनंत सत्ता ऐसो जीव नट है ॥ १० ॥ दोहा-ब्रह्म ज्ञान आकाश, उडे समति षग होड। जथा लकति उहिसघरे, पार न पावे कोइ ॥९१ ॥ चौपाई। ब्रह्मा ज्ञान नभ अंत न पाये । लमति परोक्ष कहालों धावे ।। जिहिविधिसमयलारजिनिकीनोतिन्हकेनासधरेअवतीनो९२ अथ कवि त्रयी कथन नाम। सवैया इकतीसा-कुंद कुंदाचारज प्रथम गाथा वद्ध करे, सोलार नाटक विचारी नाम दयो है । ताही के परंपरा अस्कृतचंद भये तिन्ह, संसकृत कलस सलारि सुख लयो । है ॥ प्रगट्यो बनारसी गृहस्थ लिरी माल अवकिये हैं कवित्त हिए बोध वीज वयो है। शवद अनादि तामें अरथ अनादि जीव नाटक अनादियों अनादिहि को भयो है ॥ ९३ ॥ . अथ कविव्यवस्था कथन । चौपाई। अथ कछु कहूं यथास्थ बानी । सुकवि कुकविकीकथाकहानी। प्रथम सुकवी कहानै सोई। परमारथ रसबरने जोई॥९४॥ कलपित वातहिएनहिंसाने। गुरु परंपरा रीति बखाने । . सत्यारथ लैली नहि छडे । वृषाबादसोंप्रीतिन मंडे९५॥ दोहा-छंद शब्द अक्षर प्ररथ, कहे सिद्धांत श्वान। . जोइहि विधि रचनारचे सोहै सुकवि सुजान ॥९६॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) चौपाई | अब सुन कुकवि कहूं है जैसा । अपराधीहिय अंध अनैसा ॥ मृषा भावरसवरने हितसों । नईउकतिनहिंउपजेचितसों ९७ व्याति लाभ पूजा मन आने । परमारथ पथ भेद न जाने ॥ बानी जीव एक करि बूके । जाकोचितजड़ग्रंथिनसूझे ९८ बानी लीन भयो जग डोले । बानी ममतात्यागि न बोले ॥ है अनादि बानी जगमाहीं । कुकविबातयहसमुझेनाहीं ९९ 'अथ वानी व्यवस्था कथन । सवैया इकतीसा - जैसे काहू देस में सलिल धार कारंज की, नदी लोंनिकसि फिरि नदी में समानी है । नगर में ठौर ठौर फैली रही हूं ओर, जाके ढिग दहे सोई कहे मेरो पानी है । त्यों ही घट सदन सदन में अनादि ब्रह्म, बदन बदन में अनादिहीं की बाणी है । करम कलोल सों उसास की बयारि बाजे, तासो कहे मेरी धुनि ऐसो मूढ़ प्राणी है ॥ ७०० ॥ दोहा - ऐसे मूढ़ कुकवि कुधी, गहे मृषा पथ दौर । रहे मगन अभिमान में, कहे और की और ॥ १ ॥ वस्तु सरूप लखे नहीं, बाहिन दृष्टि प्रमान । मृषा बिलास बिलोकके, करे मृषा गुनज्ञान ॥ २॥ अथ मृषा गुनज्ञान यथा । सवैया इकतीसा -मांस की गरंथि कुच कंचन कलस कहे, कहे सुख चंद जो सलेखमाको घरुहै । हाड़के दश आहि हीरा मोती कहे ताहि, मांस के अधर ओठ.. बिंब फर्रु है !! हाइ दंभ भुजा कहै कौल नाल - ক Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) जुधा, हाड़ही के थंभा जंघा कहे रंभा तरु है । यही झूठी जुगति बनावै कहावै कवि एते पर कहे हम सारदाको वरु है ॥ ३ ॥ चौपाई | मिथ्या वंत कुकवि जे प्रानी । मिथ्यातिनकी भापितवानी। मिथ्यावंत सुकवि जो होई । वचनप्रवान करेसच कोई दोहा - बचन प्रवान करे सुकवि, पुरुष हृदे परवान | दोऊ अंग प्रवान जो, सोहै, सहज सुजान ॥ अथ नाटक समयसार व्यवस्था कथन । चौपाई | अव यह बात कहौं है जैसें । नाटक भाषा भयो सु ऐसे कुंद कुंद मुनि मूल उधरता । अमृतचंद टीका के करता ॥६॥ समयसारनाटक सुख दानी । टीका सहित संसकृतवानी ॥ पंडित पढ़े दृढ़मती वूके । अलपमतीको अरथ नसू. ७ पांड़े राजमल्ल जिन धर्मी । समयसार नाटक के मम ॥ तिन्ह गरंथ की टीका कीनी । बालाबोध मुगमकरिदीनी | ८| इहि विधिबोध वचनिकाफैली । समौपाइ अध्यातम सेली ॥ प्रकटी जंगतमांहि जिनवानी । घरघरनाटक कथा बखानी९ नगर आगरा मांहि विख्याता । कारन पाइ भये बहु ज्ञाता ॥ पंच पुरुषअतिनिपुन प्रवीने । निशिदिनज्ञानकथारसभीने १० नेहा - रूपचंद पंडित प्रथम, दुतिय चतुर्भुज नाम | तृतिय भगौती दास नर, कौरपालगुनधाम ॥ ११ ॥ धर्मदास ए पंच जन, मिलि बेसें इक ठौरा दो. परमारथं चरचा करे, इन्हके कथा न और ॥ १२ ॥ "& 13 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) कबहूं नाटकरस सुने, कबहुं और सिद्धांत । कबहूं बिंग बनाइके, कहे बोध विर तांत ॥ १३ ॥ ___ अथ विंगयथा। हा-चितचकारकरुधरमधरु,सुमतिभौतीदास । चतुरभाव थिरता भये, रूपचन्द परगास ॥१४॥ साहिविधिज्ञान प्रकटभयो, नगरमागरेमाहि। का देस महिबिस्तन्यो, मृषादेशमहिनाहि ॥१५॥ . चौपाई। ... रजनबाणी फैली। लखे न सोजाकी मतिमैली॥ तबोध उतपाता। सोततकाललखे यहबाता१६ पर संजन-जिन बसे, घटघट अंतर जैन। त मदिराके पानसों, मतवाला समुझेनं ॥ १७॥ ।। . चौपाई। वहुत बढ़ाउ कहांलों कीजें । कारज रूपबात कहिलीजें। नगर आगरामांहि विख्याता । बनारसीनामेलघुज्ञाशा॥१८॥ त कवित कलां चतुराई । कृपा करे ए पंचो भाई सुपरपंच रहित हिय खोले। ते बनारसीसोहसिबोले : , नाटक समैसार हित जीका । सुगमरूप राजमली/ कवितः बद्ध रचना जो होई। भाषाग्रंथ पढ़े सबको तब बनारसी मनमाहि आनी । कीजे तो प्रकटे जिनके पुरुष की आज्ञा लीनी । कवितबंधकीरचना सोरह सें- तिरीनवे "बीते । आसुमाससितपक्ष वितीते : तिथि तेरसि रविवार प्रबीना। तादिन ग्रंथसमापतकीना माहा सुखनिधानसकर्वधनर.सानि हिकिरान।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . (१२०) सहससाहिसिरसुकुटमील,साहजहाँसुलतान । जाके राज सुचनलों, कीनो आगम सार। इति भीती व्यापी नहीं, यह उनको उपगार ।। .. अब सवका ठीक कथन । · सवैया इकतीला-तीनसें दसोत्तर सोरठा दोहा दोड, जुगलसें तेतालील इकतीसा आने हैं । छ। चौपाईये लेतील तेइसे लगे, होल छप्पै अठारह । वखाने हैं ॥ ललत हुनिही डिल्ले. चारि कुंडली सकल लातसे सत्ताईस ठीकाठाने हैं । बत्तील SM चलोक कीने ताके लेख अथ संख्या सत्रहसें सारी दोहा सायनारा तालहरन नाटक आव अनंत । लोह भागत नाम में, परमारथ विरतत ॥ ७२६ । इति परगागा वीच पारनाईक चाम तिब्दांत संपूर्णम् श्री रस्तु.. . . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- _