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( ५६ ) कीसी दसा है ॥ माया को झपटि गहै कायासों लपटि रहै, भूल्यो भ्रम भीर में बहीर कोसो ससा है। ऐसो मन चंचल पताका कसो अंचल, सु ज्ञानके जगे से निरवानपथ धसा है ॥ ८८॥ दोहा-जो मन विषय कषायमें, वरते चंचल सोइ । .
जोमनध्यान विचारसों, रुकेसुअविचलहोइ ।। ८९॥ ताते विषय कषायसों, फेरि सुमनकी यानि। .
शुद्धातम अनुभो विषे,कीजे अविचल आनि ॥९॥ सवैया इकतीसा-अलख अमूरति अरूपी अविनासी अज,निराधार निगम निरंजन निरंधहै। नानारूप भेष धरे मेंषको न लेसधरे, चेतन प्रदेसघरे चेतनाको षंधहै। मोहधरे मोहीसोविराजै तोमें तोहीसो,न तोहिसो न मोहीसो निरागी निरवंधहै। ऐसो चिदानंद याही घटमें निकट तेरे, ताही तूं विचार मन और सर्व धंधहे ॥ ९१ ॥ __ सवैया इकतीसा-प्रथम सु दृष्टिसों सरीररूप कीजे भिन्न तामै और सूछम शरीर भिन्न मानियें । अष्ट कर्मसावकी उ. पाधि सोई किज भिन्न ता में सुबुद्धिको बिलास भिन्न जानिये ॥ तामें प्रभु चेतन विराजित अखंडरूप, वहे श्रुत ज्ञान के प्रवान ठीक आनिये। वाहिको विचार करि वाहिमें गमन हुजे, वाको पद साधिवेकों ऐसी-विधि ठानिये ॥९२॥ ___ चोपाई-इहि विधि वस्तु व्यवस्था जाने। रागादिक निजरूप न माने । तातें ज्ञानवंत जगमांही। करम बंधको क.
रता नाहीं ॥ ९३ ॥ . सवैया इकतीसा-ज्ञानी भेद ज्ञानसों विलेछि पुदगलकर्म,