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________________ (५५) में गोग याही में वियोग यामें घृष्टि है । याहि में विलास सब गर्भित गुपतरूप, ताहिको प्रगट जाके अंतर सु दृष्टि है ॥ ८३ ॥ सवैया तेईसा-रे सचिवंत पचारि कहै गुरू, तं अपनोपद झत नाही । खोज हिये निज चेतन लक्षन है निज में निज गृझत नाही ॥ सिद्ध सुरूंद सदा अति उज्जल, मा यके फंद अरूझत नाहीं। तोर सरूप न वंदकि दोहिमें तो हिमें है तुहि सझत नाही ॥ ८ ॥ __ सवैया तेईसा-केइ उदासरहै प्रभु कारन, केइ कहीं उठि जाहि कहींक । केइ प्रनाम करे गदि मूरति, केइ पहार चढे चदि छीके । केड़ कहे असमान के ऊपरि, केइ कहे प्रभु हेठि जमीके । मरो धनी नहि दूरदिशांतर, मोमहि है मुहि सझतनीके ॥ ८५॥ दोहा-कहे सुगुरु जो समकिती, परमउदासी होइ। सुथिरचित्त अनुभी करे, यहपद परसे सोइ ।। ८६ ॥ सवैयाइकतीसा-छिनमें प्रवीन छिनहीं में मायासों म. लीन,छिनकम दीन छिनमाहि जैसोशकहै । लिये दोर धूप छिन छिनमें अनंतरूप,कोलाहल ठानत मथानकोसो तक है ॥ नट कोसोथार किधों हारहै रहटकोसो, नदी कोसो भौर कि कुंभारकोसो चक्रहै । ऐसो मन भ्रामक सुथिरमा. जु केसोहाइ, ओरहिको चंचल अनादिहीको वक्रहै ॥८७॥ सवैया इकतीसा-धायो सदा कालपे न पायो कहूँ सांचासुख, रूपसी विमुख दुख कृपवास वसाहे । धरसको घाती अधरमकासँघाती महा. कराफाती जाकी सन्निपाती
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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