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हे मनको भर
स लहे चिनकोको त्रास सहे,
कोचनिकोसोच सोनिवेदे खेदतनको धाइवोही धंधाअरुकधामाहि लग्योजोत,वारवार आरसहै कायरहै मनको॥भूखसहे प्याससहे दुर्जनको त्रास सहे, थिरता न गहे न उसा स लहे छिनको। पराधीन घूमै जैसो कोल्हुको कमेरो वैलते सोइ स्वभाव भैया जगवासी जनको ॥ ७ ॥
सवैया इकतीसा-जगतमें डोले जगवासी नर रूप धरी, प्रेतकैसे दीप किधो रेत केसे धुहें है। दीसे पटभुखन आडंवरसों निके फिरे फीके छिनमामि सांझी अंवर ज्यों सु. हेहै ॥ मोहके अनल दगे मायाकी मनीसोंपगे,दाभकी अ. नीसों लगे ऊसकेसे फुहे है, धरमकी बुझि नाही उरझे भरम माही.नाचि नाचि मरजाहि मरीकेसे चुहेहै ॥ ८० ॥ — सवैया इकतीसा-जासों तूं कहत यह संपदा हमारीसोतो, साधनि अडारी ऐसे जैसे नाक सिनकी । जासों तूं कहत हम पुन्य जोग पाई सोतो, नरककी साई है बड़ाई देढ दिनकी ॥ घेरा मांहि पोतूं विचारै सुख आखिन्हि को, माखिनके चूंटत मिठाई जैसे भिनकी । एते परि होहि न उदासी जगवासी जीव, जगमें असाता है न साता एक छिनकी ॥ ८१ ॥ . . दोहा-यह जगवासी यहजगत,इनसों तोहि न काज।
तेरे घटमें जग वसै, तामें तेरो राज ॥ ८२॥ सवैया इकतीसा-याही नर पिंडमें विराजे त्रिभुवन धिति, याहिमें त्रिविध परिणाम रूप शृष्टि है । बाहिमें कर
मकी उपाधि दुःख दावानल, याहिमें समाधि सुख बा , · की वृष्टिं है ॥ यामें करतार करतूति याहि में बिभूति, या