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________________ ( ६७ ) दोहा - जो निहचे निरमलसदा, आदि मध्य अरु अंत । .. सो चिद्रूप बनारसी, जगतमांहि जय बंत ॥ ५१ ॥ चौपाई | जीव करमकरता नहि ऐसो । रस भोगता सुभाउ न जैसो ॥ मिथ्यामतिसों करताहोई । गये अज्ञान अकरतासोई ॥ ५२ ॥ सवैया इकतीसा - निचे निहारत सुभाउ जाहि श्रातमाको, आतमीक धरम परम परगासना । अतीत अनागत बरतमान काल जाको, केवल सरूप गुन लोकालोक भासना ॥ सोई जीव संसार अवस्थामांहि करमको, करतासो दीसे लिये भरम उपासना । यहे महा मोहके पसार यहे मिथ्याचार, यहे भौ विकार यहे व्यवहार घासना ॥ ५३ ॥ चौपाई | जथा जीव करता न कहावे । तथा भोगता नाउ न पावे ॥ हे भोगी मिथ्या मतिमांही । मिथ्यामती गयेतें नांही ॥५४॥ सवैया इकतीसा - जगवासी अज्ञानी त्रिकाल परजाय बुद्धी, सोतो विषे भोगनिको भोगता कहायो है । समकिती जीव जोग भोगसों उदासी तातें, सहज अभोगता गरंथनि में गायो है ॥ याही भांति वस्तुकी व्यवस्था अवधारे बुध, परभाउ त्यागि अपनो सुभाउ आयो है । निर त्रिकलप निरुपाधि आतमा अराधि, साधि जोग जुगति समाधि में समायो है ॥ ५५ ॥ सवैया इकतीसा - चिनमुद्रा धारी ध्रुव धर्म अधिकारी गुन, रतन भंडारी पहारी कर्म रोग को । प्यारो पंडितनिको हुस्यारो मोप मारग में, न्यारो पुद्गलसों उजियारो
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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