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क्रमकम होत उदोत, सहजजिम शुक्लपक्ष शशि ॥ केवल रूप प्रकासि, भासि सुख रासि धरम धुव । करिपूरन थित आउ त्यागिगतभाव परम हुब ॥ इहविधि अनन्य प्रभुताधरत, प्रगाट बूंद सागर भयो । अविचल अखंड भनभय अखय, जीव दरव जगमहि जयो ॥ ४७ ॥
सवैया इकतीसा-ज्ञानावरनीके गये जानिये जु है सुसव, . दंसनावरनके गया सब देखिये । वेदनी करमके गयेते निरा वाध रस, मोहनीके गये शुद्ध चारित बिसेखिये ॥ आउकमें गये अवगाहन अटल होइ, नाम कर्म गयेते अमरतीक पे. खिये । अगुरुलअधुरूप होई गोत कर्मगये, अंतराय गयेतें अनंत वल लेखिये ॥ ४८ ॥
इति श्री नाटक समयसार विष नव्मो मोक्ष द्वार समाप्तः
१० अध्याय सरव विशुद्धि द्वार
दोहा-इति भिनाटिक ग्रंथमें,कह्योमोक्षअधिकार।
अव वरनों संक्षेपसों, सरब विशुद्धि द्वार ॥ ४६॥ सवैया इकतीसा-करमको करताहै भोगनिको भोगताहै, जाकी प्रभुतामें ऐसो कथन अहितहै । जामें एक इंद्रियादि पंचधा कथन नाहि, सदा निरदोष बंध मोक्षसों रहितहै। ज्ञानको समूह ज्ञान गम्य है सुभाउ जाको, लोक व्यापी लोकातीति लोकमें महितहै । शुद्ध वंस शुद्ध चेतना के रस अंश भयो, ऐसो हंस परम पुनीतता सहित ॥५०॥