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________________ (६५) परम अनीति अधरम रीतिगहे है। होहि न नरम चितगरम घरमहते, चरमकी दृष्टिसों भरम भली रहै है॥श्रासन न खोले मुख बचनन केले सिर, नाएह न डौले मानो पाथरके चहे है । देखनके हाउ भव पंथके वटाउ ऐसें, मायाके खटाउ अभिमानी जीव कहे है ॥ ४० ॥ सवैया इकतीसा-धीरके धरैया भवनीरके तरैया भय,भीर के हरैया वर वीर ज्यो उमहे हैं । मारके मरैया सुवीचारके करैया सुख, ढारके ढरैया गुनलोसों लह लहेहैं ॥ रूपके रिभैया सर्वनके समुझेया सर,हीके लघुभैया सबके कुवोल सहे हैं । वामके वमैया दुखदाम के दमैया ऐसे, रामके रमैया नर ज्ञानी जीव कहे हैं ॥ ४१ ॥ चौपाई। जेसमकिती जीव समचेती। तिन्हिकी कथाकहोंतुमसती ।। जहांप्रमाद क्रियानहि कोई निर्विकल्पननुभौ पदसोई ४२॥ परिग्रहत्याग जोगथिरतीनो। करम बंध नहि होइ नवीनो॥ जहांन राग दोष रस मोहे।प्रगट मोखमारग सुख सोहे४३ पूरव वंध उदे नहि ब्यापे। जहां न भेद पुन्न अरु पापे ॥ दरवभाव गुन निर्मल धारा बोधविधानविविधिविस्तारा४४ जिन्हिके सहजअवस्था ऐसो। तिन्हिके हिरदे दुविधा केसी॥ जे मुनिक्षिपक श्रेणिचविधाये।ते केवलि भगवान कहाये४५॥ दोहा-इंहिविधि जे पूरन भये, अष्ट करम वनदाहि ॥ । तिन्हिकीमहिमाजोलखे,नवनारसिताहि॥ ४६॥ छप्पय छन्द-भयो शुद्ध अंकूर, गयो मिथ्यात्मर नशि।
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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