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(६४) करमकरममारगविषै, शिवमारग शिवमाहि ॥३०॥
चौपाई। इहि विध बस्तुव्यवस्था जैसी । कही जिनिंद कहीमैं तैसी ॥ जे प्रमाद संयति मुनिराजा।तिन्हिकोशुभाचारसोंकाजा३१ जहांप्रमाद दसा नहि व्यापे। तहां अबलंव आपनो आपे॥ ता कारन प्रमाद उतपाती।प्रगटमोक्ष मारगकोघाती३२॥ जे प्रमाद संयुक्त गुसांई। ऊठाह गिरिहि गिदुककीनाई। जे प्रमादतजि उद्धत होही।तिन्हिकोमोषनिकटदृगसोही३३ घट में है प्रमाद जब तांई। पराधीन प्रानी तब ताई ॥ जव प्रमादकी प्रभुता नासै । तबप्रधान अनुभौपरगासै॥३४॥ दोहा-ता कारन जगपंथ इत,उत शिव मारग जोर ।
परमादी जग को ढुके, अपरमाद शिव ओर ॥३५॥ जे परमादी आलसी, जिन के विकलपभूरि। होहिसिाथिलअनुभौविषे,तिन्हिकोशिवपथदूरि॥३६॥ जे अविकलपी अनुभवी, शुद्ध चेतना युक्त। ते मुनिवर लघुकालमें, होहि करम सों मुक्त ॥३७॥ जे परमादी आलसी, ते अभिमानी जीव। .
जे अविकलपी अनुभवी, ते समरसी सदीय ॥३८॥ कवित्त छंद-जैसे पुरुष लखे पहार अढि, भूचर पुरुष तांहि लघु लग्ग । भूचर पुरुष लखे ताको लघु, उतर मिलै दुहुकोभ्रम भग्ग ॥ तैसें अभिमानी उन्नत गल, और जीव
कों लघुपद दग्ग । अभिमानीकों कहे तुच्छ सव, ज्ञान जगे - । समतारस जग्ग ॥३६॥
सवैया इकतीसा-करम के भारी समुझे न गुनको मरम