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(३१) सवैया इकतीसा-करमके चक्रमें फिरत जगवासाजीव हैरह्यो वहिर मुख व्यापत विषमता । अंतर सुमति आई विमल वडाई पाई, पुद्गल सोंप्रति टूटी छूटीमाया ममता। शुद्ध नै निवास कीन्हो अनुभौ अभ्यास लीन्हो, भ्रमभाव छांडि दीनो भिनो चित्त समता । अनादि अनंत अविकलप अचल ऐसो, पद अवलम्वी अवलोकेराम रमता॥६५॥
सवैया इकतीसा-जाके परगास में न दीसे रागदोष मोह आश्रय मिटत नहिं बंधको तरस है । तिहुंकाल जामें प्रतिविवत अनंतरूप, आपुहू अनंत सत्तानंततें सरस है । भाव श्रुत ज्ञान परवान जो विचारि वस्तु, अनुभौ करे जहां न बानीको परस है। अतुल अखंड अविचल अविनासी धाम, चिदानन्द नाम ऐसो सम्यक दरस है॥६६॥
इतिश्रीनाटकसमयसारविषेभाश्रवद्वारपंचमसंपूर्णम् ।
छठा अध्याय संवरद्वार। दोहा-आश्रवको अधिकारयह, कह्यो यथावत जेम। • अवसंबरवरनन करों, सुनौ भविक धरिप्रेम ॥३७॥
सवैया इकतीसा--आतमको अहित अध्यातम रहित ऐसो आश्रव महातम अखंड अंडवत है । ताको विसतार गिलिबे कों परगट भयो, ब्रहमंड को विकासी ब्रहमंडवत है। जामें सवरूप जो सबमें सवरूप सोपें सबान सों अलित अकाश खंडवत है। सौहै ज्ञान भानु शुद्ध संवरको भेष धरे, ताकी रुचि रेखको अमारे दंडवतहै।६८॥