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(२५) परदेश, सकति जगमें प्रगटे अति ॥ चिद विलास गंभीर, : "धीर थिररहै विमल मति । जब लगि प्रबोध.घटमहि उदित . तवलग अनय न पेखिये ॥ जिम धरमराज वरतांतपुर, जह तह नीति परोखये ॥ ३५॥
. इतिश्री नाटकसमसार कर्ताकर्मक्रियाद्वार तृतीय समाप्त. .
'चौथा अध्याय पापपुन्यद्वार। दोहा-करता क्रिया करमको, प्रगट वखान्यो मूल । .....अब वरनौं अधिकार यह, पापपुन्य समतूल ॥३६॥ • कवित्त छंद--जाके उदै होत घटअंतर, दिनलै सोह महा. तम रोक । सुभ अरु अशुभ करसकी दुविधा, मिटे सहज होल इकथोक ॥ जाकी कला होतु संपूरन, प्रतिभासै लन लोक अलोक । सो प्रवोध शशि निरखि वनारसि, सीश नमाइ देतु पगधोक ॥ ३७॥
सवैया इकतीसा जैसे काहु चंडाली जुगल पुत्र जने तिन्ह, एक दियो पामन • एक घर राख्यो है। वामनकहायो तिन्ह मद्य सांस लाग कीनो, चंडाल कहायो तिन नाच मांस चाख्यो है। तेले एक वेदनी करनके जुगलपुत्र
एक पाप एक पुरुष नांउ भिन्न भाख्यो है । दुहों माहिं 'दोभप नाउ कर्म वधरूप, पाले ज्ञानवंत ने न कोड
भलायो है ॥ ३८॥ "...साई-फोऊ शिम कहें गुरुपांहीं। पापपुण्य दोऊसमनाहीं।।