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रसस्वादन सुख ऊपजे, अनुभौ याकोनाम ॥ १७ ॥ अनुभौ चिंतामनि रतन, अनुभौ है रसकूप । अनुभौ मारग मोक्षको, अनुभौ मोक्षसरूप ॥ १८ ॥ सवैया इकतीसा -- अनुभौ के रसकों रसायन कहत जग 'अनुभौ अभ्यास यह तीरथकी ठौर है । अनुभौकी जो रसा कहावै सोई पोरसा सु, अनभौ अधोरसा सु ऊरधकी दौर
॥ अनुभौ की केली यहै कामधेनु चित्रावेली, अनुभौको स्वाद पंच अमृतकौ कौर है। अनुभौ करम तोरै परमसों प्रीति जोरै अनुभौ समान न धरम कोउ और है । १९ ॥ दोहा -- चेतवंत अनंत गुन, पर्यय सकति अनंत ।
अलख अखंडित सर्वगत, जीव दरवविरतंत ॥ २० ॥ फरस वर्न रस गन्धमय, नरद फास संठान । 'अनुरूपी पुद्गल दरब, नभ प्रदेश परवान ॥ २१ ॥ जैसे सलिल समूहमें, करै मीन गति कर्म ! तैसें पुद्गल जीवको, चलन सहाई धर्म ॥ २२ ॥ ज्यों पंथिक ग्रीसमसमै, वैठे छाया माहिं । त्यों अधर्मकी भूमिमें, जड चेतन ठहरांहि ॥ २३ ॥ संतत जाके उदरमें, सकल पदारथ बास । जो भाजन सव जगतको, सोई दरब अकाश ॥ २४ ॥ जो नवकार जीरन करै, सकल वस्तुथितिठान । परावर्त्तवर्त्तन करै, काल दरब सो जान ॥ २५ ॥ समता रमता उरधता, ज्ञायकृता सुखभास । वेदकता चैतन्यता, एसव जीव बिलास ॥ २६ ॥ तनता मनता बचनता, जडता जड़ संमेल ।