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(६) लघुता गुरुता गमनता, ए अजीवके खेल ॥२७॥ जो विशुद्धभावनि बधे, अरु ऊरधमुखहोय । जो सुखदायक जगतमें, पुण्यपदारथ सोय ॥२८॥ संकिलेसि भावनिबधे, सहिज अधोमुखहोय । दुखदायक संसारमें, पाप पदारथ सोय ॥२६॥ जोई करमउद्योत धरि, होइ क्रिया रस रत्त । कर नूतन करमकों, सोई आश्रय तत्त ॥३०॥ जो उपयोग सरूपधरि, वरतै योगविरत्त। रोकै आवत करमकों, सो है संवर तंत्त ॥३१॥ जो पूरन सत्ता करम, करि थिति पूरणमाउ। खिरवैकों उद्यत भयो, सो निर्भरा लखाउ ॥३२॥ जो नवकर्म पुरानसों, मिलें गठि दृढ होइ - सकति बढावै बंसकी, वंध पदारथ सोइ ॥ ३३ ॥ थिति पूरनकरि जोकरम,खिरेवंध पदभानि। हंस अंस उज्वलकरै, मोक्ष तत्व लो जानि ॥३४॥ भावपदारथ समय धन, तत्व वित्त वस दर्व ।
द्रविन अर्थ इत्यादि बहु, वस्तु नाम ए सर्वे ॥३५।। सवैया इकतीसा--परमपुरुष परमेश्वर परमज्योति, परब्रह्म पूरन परम परधान है । अनादि अनंत अविगत अविनाशि अज, निरंदुद मुकत मुकुंद अमलान है ॥ निरावाध निगम निरंजन निरविकार, निाराकर संसार सिरोमनि सजान है । सरवदरसी सरवज्ञ सिद्ध साई शिव, धनी नाथ . ईश जगदीश भगवान है ॥ ३६॥ .. चिदानंद चेतन अलख जीब समैसार, वुद्धरूप अबुद्धं
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