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________________ ( ९९ ) एकही समेमें त्रिधारूप में तथापि याकी, अखंडित चेतना सकति सरवंग है । यहे स्याद्वाद याको भेद स्याद्वादी जाने, मूरख न मानें जाको हियो दृग भंगहै ॥ ६३ ॥ 1 सवैया इकतीसा - निचे दरव दृष्टि दीजें तब एकरूप, गुनपरनति भेद भावसों बहुत है । असंख प्रदेश संयुगल सत्ता परबान, ज्ञानकी प्रभासों लोकालोक मानजुत है ॥ परजे तरंगनिके अंग छिन भंगुर है, चेतना सकति सो अखंडित अचुत है । सोहे जीव जगति विनायक जगत सार, जाकी मौज महिमा अपार अदभुत है ॥ ६४ ॥ सवैया इकतीसा - विभाव सकति परिनतिसों विकल दीसें, सुद्ध चेतना विचारतें सहज संतहै । करम संयोग सों कTa fast निवासी, निहवें सरूप सदा मुकत महंतहै ॥ ज्ञायक सुभाउ घरे लोकालोक परगासी, सत्ता परवान सत्ता परगाव है | सोहे जीव जानत जहां न कौतुकी महान, जाके कीरति कहान अनादि अनंत है ॥ ६५ ॥ सवैया इकतीसा - पंच परकार ज्ञानावरनको नास करि, प्रगटी प्रसिद्ध जग मांहि जगमगी है । ज्ञायक प्रभामें नाना ज्ञेय की अवस्था धरि, अनेक भई पें एकतामें रसपगी है ॥ याही भांति रहेगी अनंत काल परजंत, अनंत शकति फोरिअनंतसों लगी है । नरदेह देवलमें केवलमें रूप सुद्ध, ऐसी ज्ञान ज्योतिकी सिखा समाधि जगी है ॥ ६६ ॥ सवैया इकतीसा - अक्षर अरथ में मगन रहे सदा काल, महा सुख देवा जैसी सेवा काम गविकी । अमल अबाधित अलख गुन गावना है, पावना परमशुद्ध भावना है भविकी ॥
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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