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(७७) अपनो प्रवान करि आपुहि विकाई है । गहे गति अंधकीसी सकती कमंधकीसी, बंधको बढ़ाउ करे धंधहीमें धाईहै। रांडकीसी रीति लिए मांडकीसी मतवारी, सांड ज्यों सुछंद डोले भांडकीसी जाई । घरको न जाने भेद कर पराधनी खेद. यात दुवुन्द्रि दासी कुत्रजा कहाई है ॥ २२ ॥
सवैया इकतीसा-रूपकी रसीली भ्रम कुलफकी कीली सील, सुधाक समुद्र मीली सीली सुखदाईहे । प्राची ज्ञान भानकी अजाची है निदानकी सु.राची नरवाची ठोर साची ठकुराई है ॥ धामकी खबरदार रामकी रमन हार, राधारस पंथनिमें ग्रंथनिमें गाइह । संतनिकी मानी निरवानी नरकी निसानी, यात सदन्धि रानी राधिका कहाईह ॥ २३ ॥ दोहा-यह कुवजा वह राधिका, दोऊगति मति मान।
यह अधिकारनि करमकी, यह विवेककीखान॥२४॥ दरव करम पुद्गल दसा,भाव कर्म मति वक।
जोलुलानकोपरि नमन,सो विवेक गुनचक्र ॥२५॥ कवित्त छंद-जैसे नर खलार चोपरको, लाभ विचार करे चित बाउ । धरि सवारि सावुद्धी वलसों, पासाको कुछ परे सुदाउ॥ तैसें जगत जीव स्वास्थको, करि उद्यमचिंतवे उपाउ।लिख्यो ललाट होइ सोई फल कर्म चक्रको यही सुभाउ२६
कायत्त छंद-जैसे नर खिलार सतरंजको, सतुझे सब सतरंजकी घात। चले चाल निरख दोऊदल, मोह रागन विचारे मात तिले साधुनिपुन शिव पथम,लक्षन लखे तजे उतपात। साधे पुन्य चिंतने अभ पद, यह सुविबेक की बात ॥२७॥ दोहा-लतरंज खेले राधिका, कुबजाखले सारि ।