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________________ ( ११०) यह पंचम गुनथानकी, रचना कही विचित्र । '' अब छट्टम गुनथानकी, दसा कहूं सुनु मित्र ॥४८॥ पंचप्रमाद दशा धरे, अट्ठाइस गुनवान । थविर कल्पजिन कल्पजुत, हेप्रमत्त गुनथान ॥१९॥ धरमराग बिकथावचन, निद्राविपय कपाइ । पंच प्रमाद दसासहित, परमादी मुनि राइ ॥५०॥ सवैया- इकतीसा-पंच महाव्रत पाले पंच सुमती संभाले, पंच इंद्रि जीति भयो भोगी चित चेनको । पट आवशक क्रिया दर्वित भावित साधे, प्रासुक धरामें एक आसन हे सेनको । मंजन न करे केसढुंचे तन वस्त्र सुंचे, त्यागे दंत घन में सुगंध स्वास चेनको ॥ ठाढो कर अहारलघु भुंजी एकवार, अठाइस मूल गुनधारी जती जैनको ॥ ५१ ॥ दोहा-हिंसा मृषाअदत्त धन, मैथुन परिग्रह साज।। किंचित त्यागीअनुव्रती,सवित्यागीमुनिराज।। ५२ ।। चले निरखि भाषे उचित, भपे अदोष अहार। लेइ निरखि डारे निरखि, सुमतिपंच परकार ॥ ५३॥ समता वंदन थुति करन, पडिकमनो सज्जाउ । काउसग्ग मुद्राधरन ए पडावसिक भाउ ॥५॥ सवैया इकतीसा-थविर कलपी जिनकलपी दुविधिमुनि, दोउ वनवासी दोउ नगन रहतहं । दाड अठाइस मुलगनके धरैया दोड, सरव तियागी व्ह विरागता गहन हैं। थविर कलपितेजिन्हके शिष्य साया होई, बैठक सभा धर्म देसना कहतह । एकाकी सहज जिन कलपी नपत्री घार, उडेकी मरोरखं परिसह सहतह ॥ १५॥
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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