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________________ .( ३९) न प्रयुंजे ॥ उर में उदासीनता लहिये । यों बुध परिग्रह वंत न कहिये॥८॥ . सवैया इकतीसा-जे जे मनवंछित विलास भोग जगत में, तेते विनासिक सव राखे न रहत हैं, । और जे जे भोग अभिलास चित्त परिणाम, तेते विनासीक धर्मरूप है वहत हैं ॥ एकता न दुहों मांहि तातेवांछा फुरेनाही, ऐसे भ्रम कारजको मूरख वहत हैं । संतत रहे सचेत परसो न करे हेत याते ज्ञानवन्तको प्रबंधक कहत हैं ॥ ९ ॥ . सवैयाइकतीसा जैसे फिटकडी लोग हरडेकी पुटविना स्वेत वस्त्र डारिये मजीठरङ्ग नीरमें । भीग्योरहै चिरकाल सर्वथा न होइलाल, भेदे नहीं अंतर सपेतीरहे चीर में तैसे समकितवन्त रागदोष मोह विनु, रहे निशिवासर परिग्रह की भीरमें । पूरव करमहरे नूतनन बंध करेजाचे नजगत् सुख राचे नशरीरमें॥१०॥ सवैया इकतीसा-जैसे काहुदेसको वसैया वलवन्त नर, जंगलमें जाइ संधुछत्ताको गहतु है । वाको लपटाय चहुंओर मधुमक्षिकाप,कंवलीकीओट सोनडंकित रहतु है ॥ तैसे समकिती शिव सत्ताको सरूप साधे, उदेकी उपाधिकों स. माधिसी कहतु है। पहिरे सहजको सनाह मनमें उछाह,ठाने सुखराह उदवेगनलहतु है॥ ११ ॥ दोहा-ज्ञानी ज्ञान मगन रहै, रागादिक मल खोइ । चित उदास करनीकरे, करम बंधनाह होई ॥१२॥ मोह महातम मलहरे, धरे सुमति परगास । मुगति पंथ परगटकरे दीपक ज्ञान विलास ॥१३॥
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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