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________________ (४३) द्विविध, एक सुखमय दुतीय दुख । दोऊ मोह विकार, पुद्गलाकार बाहिरसुख ॥ जव यह पिनेक मनमहि धरत, तव न वेदना अय विक्ति।ज्ञानी निसंकलिकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥२९॥ छप्पय छंद-जो स्वबस्तु सत्ता सरूप, जगमहि निकाल गत । तासु बिनास न होइ, सहज निहचे प्रमाण मत ॥ सो मम आतम दरव, लरवथा नहि सहाय घर । तिहि कारन रक्षक न होइ, भक्षक न कोइपर ॥ जब यहि प्रकार निरधार किय, तव अनरक्षा भय नसिताज्ञानीनिसंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित॥३०॥ छप्पयछंद-परमरूप परतक्ष, जासु लक्षन चिन सण्डित । पर प्रवेश तहां नाहि, जाहिं नहि अगम अखंडित ॥ सोनम रूप अनूप, अछत अनलित अलूट धन।ताहिं चोर किसगहै, ठोर नहिं लहे और जन ॥ चितवंत एस धरि ध्यान जव, तघ अगुप्तभय उपललिताज्ञानीनिशंक निकलंक निज, ज्ञान रूप निरखंत नित ॥३१॥ छप्पय छंद-शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, सहज सु समृद्ध सिद्ध सस । अलख अनादि अनंत असुल अविचल सरूप मम ॥ चिदविलास परगाल, वीत विकलर सुख थानक । जहां दुविधा नहिं कोइ, होइ तहाँ कछु न अचानक ॥जब यह विचार उपजंत तव, अकस्मात भय नहि उदित । ज्ञानी निसंक निकलंक निज ज्ञानरूप निरखंत नित ॥३२॥ छप्पयछंद-जो परमुन त्यागंत, शुद्ध निजगुन गहंतधुव । विमल ज्ञान अंकृर, जासु घट महि प्रकास हुव ॥ जो पूरक
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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