SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतकर्न, निर्जराधार वहायत । जो नव बंध निरोध, मोप मारन सुख धावत ॥ निसंकतादि जस अष्टगुन, अष्टकर्म अरि सहरत । सो पुरुष विचरा तासु पप, बनारसी वन्दन करत ॥ ३३ ॥ सोरठा-प्रथम निसंतजानि,बुतिय अवछिनपरिनमना तृतिय अंगअगिलानि, निलदृष्टिचतुर्थगुन ॥३४॥ पंचअकथपरदोष, थिरीकरन छट्ठमसहज । सत्तम वच्छलपोप, अट्ठम अङ्ग प्रभावना ॥३५॥ सदैया इकतीला-धसमें न संसै शुभकर्म फलफोन इच्छा अशुभ को देखिन गिलानि आनै चित्त में सांचि दृष्टिगत काडू प्रानीको न दाप भारदे, चंचलताभानि थिति वाघटाने चित्त में। प्यारे निजरूपसा उछाहक तरंग उठे, एइआठो अंग जव जागे लमकिप्तमें। ताहि समकितकों धरेसो समकित वंत, बहे मोखपाव उन आवै फिर इत में ।।३६॥ । सवैया इकतीसा-पूर्व बंध नासे सोतो संगित कला प्र. काशे, नव वंध रुंधी ताल तोरत उछरिक । निसंकित आदि अष्ट अंग संग सखा जोरी, समता अलाप चारि करे सुख भरिके ॥ निरजरा नादगाजे ध्यान मिरदिंग वाजे, छक्यो महानंद में समाधि रीति करिके । सन्तारंग भूमि में मुकत भयो तिहूंकाल, नाचे शुद्ध दृष्टि नट ज्ञान स्वांग धरिक ॥३७॥ इतिश्रीसमयसारनायकत्रिपेनिनवादारसप्तमसंपूर्ण ।
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy