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(४२) कहावै सोई, रोगादिक कष्ट यह वेदना बखानिये ॥ रक्षक हमारो कोउ नांही अनरक्षा भय, चौरमै विचार अनुगत मन आनिये।अन चिंत्यो अबाह अचानक कहांधों होइ, ऐसो भय अकस्मात जगतमें जानिये ॥ २५ ॥ .....
छप्पय छंद-तख शिख मित परवान; ज्ञान अवगाह निरक्खत। आतमअंग अभंग,संग परधनइम अक्खताछिनभंगुर संसार, विभव परिवार भारजसु । जहां उतपत्ति तहां प्रलय, जालु संयोग बिरह तसु॥परिग्रह प्रपंच परगट परखि,इहभव भय उपजै नचित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरू पनिरखंत नित ॥ २६ ॥ . . . . . . . । छप्पय छंद-ज्ञानचक्र ममलोक,जासुअवलोक मोख सुख। इतरलोक मम नाहि, नाहिं जिसमाहिंदोष दुख ॥पुन्न सुगति दातार,पाप दुरगति पद दायका दोखंडित खानिमें, अखंडित है शिवनायक ॥इह विधि विचार परलोक भय, नाहि व्यापक, वरतें सुखितः । ज्ञानी निसंक निकलंक निज, ज्ञानरूपनि खंतनित ॥ २७ ॥
......... ' छप्पय छंद-फरस जीम नाशिका, नैन अरु श्रवन अक्ष इति। मन बच तनवल तीन, लास उत्सास आउथिताए द सप्राणविनाश, ताहि.जगमरण कहीजे ज्ञान प्राण संयुक्त जीव तिहु काल न छीजे॥ यह चिंत करत नहि मरण भय, नय प्रमाण जिनवर कथित । ज्ञानी निसंक निकलंक निज,ज्ञान रूप निरखंत नित ॥ २८ ॥ ...... .. छप्पय छंद-वेदनवारो जीव, जांहि वेदंत सोउ जिय। • यह वेदना अभंग,सुतो मम अंगनांहि व्ययं ॥ करम वेदना
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