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________________ (२८) ! .. . शुभाशुभ कर्मधारा, दुहकी प्रकृति न्यारी न्यारी न्यारी ध. रनी । ज्ञान धारा मोक्षरूप सोक्ष की करनहार, दोष की हरनहार सौ समुद्र तरनी। इतनो विशेष जु करम धारा वंधरूप, पराधीन सकति विविधिबंध करनी ॥४६॥ * ..सवैया इकतीसा--समुहँ न ज्ञान कहै करम किये सों मोक्ष, ऐसे जीव विकल मिथ्यातकीगहलमें । ज्ञानपंक्ष गह कहै आतमाः अवंध सदा, वरते. सुछंद तेउ बुडे हैं चहलमें। जथायोग करम करे मैं ममतान धरै, रहै सावधान ज्ञान ध्यान की टहल में ॥ तेई भवसागर के ऊपर है. तरै जीव जिन्हको, निवास स्यादवादके महल में ॥५०॥ . ...सवैया इकतीसा--जैसे मतवारो कोउ कहै और करै और तैसे मूढ प्राणी विपरीतता धरतु है। अशुभ करमवंध कारन वखानै मान, मुगतिके हेतु शुभ रीति आचरतु है ॥ अंतर सुदृष्टि भई मूढता विसरि गई, जानको उद्योत भ्रम तिमिर हरतु है । करन सो भिन्न रहै आतम मातम सरूप गहै, अनुभौ आरंभिरस कौतुक करतु है ॥ ५१..... इतिश्री नाटक समयसारका पुन्य पाप एकत्वी कथन चतुर्थ द्वार संपूर्णः । पंचम अध्याय आश्रव द्वार। दोहा-पुन्य पापकी एकता, बरनी अगम अनूप । । . अवाश्रव अधिकार कछु,कहों अध्यातमरूप ॥५२॥ - सवैया इकतीसा-जे जे जगवासी जीव थावर जंगम रूप, ते ते निज वस करी राखै वल तोरिक। महा
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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