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(२१) माहि जेवरी निरखि नर, भरमसों डरपी सरप मानि आयो है। अपने सुभाय जैसे सागर सुथिर सदा, पवन संजोग सों उछरि अकुलायो है। तैसे जीव जडजों अव्यापक सहज रूप, भरमसों करमको करता कहायो है॥१४॥ . . . १. सवैया इकतीसा-जैसै राजहंसके वदनके सपरसत, दे. 'खिये प्रगट न्यारो छीर न्यारो नीर है । तैसै समकिती की
सदष्टिम सहजरूप, न्यारो जीव न्यारो कर्म न्यारोई शरीर है। जब शुद्ध चेतनाको अनुभौ अभ्यासे तब; भासै आपु अचल न दूजो उर सीर है । पूरव करम उदै आइके दिखाई देहि, करता न हाइ तिन्हको तमासगीर है ॥१५॥ .. .. सवैया इकतीसा-जैसे उसनोदकमें उदक सुभाउ सीरो, आगिकी उसनते फरस ज्ञान लखिये । जैसै स्वाद व्यंजन में दीसत विविध रूप, लोनको सवाद खारो जीभ ज्ञानाचखिये॥ तैसै याहि पिंडमें विभावताअज्ञानरूप,ज्ञानरूप जीव भेद ज्ञानसों परखिये। भरमसों करमको करताहै चिदानंद दरव विचार करतार भाव नखिये ॥ १६ ॥ . ... ... दोहा--ज्ञानभाव जानी करै, अज्ञानी अज्ञान । ....... दरबकरम पुद्गल करै,यहानहचै परवान ॥ १७॥ ...... जानसरूपी आतमा, करे जान नहि और।
दर्व कर्म चेतन करै, यह विवहारी दौर ॥ १ ॥ सवैया तेईसा--पुदगल कर्म करें नहि जीव कही तुम में समुझी नहि तैसी। कौन करै यहुरूप कहो अब, को करता करनी कहु कैसी॥ आपुहि आपु मिले विछुरै जड क्यों कर मोमन संशय ऐसी। शिष्य संदेह निवारन कारन वात कहै गुरु है. कछु जैसी ॥ १६ ॥ .