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________________ ( ७० ) सवैया इकतीसा - केई मूढ़ विकल एकंत पक्ष गहे कहै, आतमा अकरतार पूरन परम है । तिन्हसों जु कोउकहै जीव करता है तासों, फेरी है करमको करता करम है ॥ ऐसे मिथ्यामगन मिथ्याती ब्रह्म घाती जीव, जिन्हके हिये अना दि मोह को भरम है । तिन्हको मिध्यात दूरि करिवको कहै गुरु स्यादवाद परवान आतम धरम है ॥ ७४ ॥ दोहा - चेतन करता भोगता, मिथ्या मगन अजान । नहिकरता नहि भोगता, निहचे सम्यकवान ॥ ७५ ॥ सवैया इकतीसा - जैसे सांख्यमति कहे अलख अकरता है, सर्वथा प्रकार करता न होइ कवही । तैसें जिनमति गुरु मुख एक पक्ष सुन, याही भांति मानै सो एकंत तजो अबही || जोलों दुरमति तौलों करमको करता है, सुमती सदा करतार कह्यों सबही । जाके घट ज्ञायक सुभाउ जग्यो जव ही. सो, सोतो जग जालसों निरालो भयोतवही ॥ ७६ ॥ दोहा-बोध छिनक वादी कहै, छिनु भंगुर तनुमांहि । प्रथम समे जो जीव है, दुतिय समे सोनांहि ॥ ७७ ॥ ताते मेरे मतविषे करे करमजो कोइ | सो न भोगवे सरवथा, और भोगता होइ ॥ ७८ ॥ यह एकंत मिथ्यात पख, दूरि करनके काज । चिदविलास अविचलकथा, भाषैश्रीजिनराज ॥ ७९ ॥ बालापन काहू पुरुष, देख्यो पुर कइ कोइ । तरुन भये फिरिके लख्यो, कहे नगर यह सोइ ॥ ८० ॥ जो दुहुपनमें एकथो, तो तिन्हि सुमिरन कीय । और पुरुषको अनुयो, और न जाने जीय ॥ ८१ ॥
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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