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reज्ञान महारुचिको निधान, उरको उजारो भारो न्यारो कुंड दलों ॥ चा थिर रहे अनुभौ विलास गर्दै फिर कवहों, अपनपो न कहै पुद्गलसों । यह करतृतियों जुदाई करे जगतसेों, पावकज्यों भिन्न करे कंचन उपलसों ॥७४॥
सवैया इकतीसा -वानारसी कहे भैया भव्य सुनो मेरी शीख, केहू भांति केसेह के ऐसो काज कीजिए । एकह मुहूरतमियातको विध्वंस होइ, ज्ञानको जगाह अंस हंस खोजि लीजिये ॥ वाह्रीको विचार बाको ध्यानय है कौतुहल, चोही भरि जनम परस रस पीजिए । तजी भववासकी विलास सविकासरूप, अंतकार मोहको अनंतकाल जीजिए। सवैया इकतीसा - जाकी दुनियां दो दिशा पवित्र भई, जाके तेज आगे सब तेजवंत रुके हैं । जाको रूपरखि थकित महारूपर्वत, जाकी पुत्रास सुवास और लुके हैं ॥ जाकी विव्यधुनी सुनिश्रवनको सुख होत, जाके तन लज़न अनेक ग्रह के हैं । तेई जिनराज जाके कहे विहार गुन, निचे निरखि वेतनसों चुके ॥ ७६ ॥
सवैया इकतीसा - जार्गे बालपनोतरुनपनो वृद्धपनोनांहि, आयु परजत महारूप महा बल हैं । विदाहि जनत जाके तनमें अनेक गन, अतिस विराजमान काया निरमल है । जैसे विनुपयन समुद्र अनिलरूप, तैसें जाको मन अरु आसन अचल है । ऐसी जिनराज जयवंत होउ जगत में, जाकी शुभराति महासुकृति को फल है ॥ ७७ ॥
वोहा--जिनपव नाएिं शरीरकों, जिनपद वेतन मांहि ।
जिन वर्ननक और है यह जिन वर्नननांहि ॥ ७= ॥