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(११) हकी जेल।समकितरूप गहो अपनोगुन, करहु शुद्ध अनुभव को-खेल ॥ पुदगल पिंडभाव रागादिक, इनसों नहीं तुमारोमेल।एजड प्रगट गुपत तुम चेतन, जैसै भिन्न तोयअरुतेल६३ . सवैया इकतीसा--कोउ वुद्धिवंतनर निरखैशरीर घर,भेद ज्ञान दृष्टिलों विचारै वस्तु वासतो।अतीत अनागत वरतमा. न मौहरस,भिग्यो चिदानंद लखै वंधमें विलासतो॥धको विडारि महा मोहको सुभाउ डारि आतमको ध्यान करी देखो परगासतो। करम कलंक पंक रहित प्रगटरूप अचल अवाधित विलोकै देव सासतो॥१४॥
सवैया तेईसा-शुद्ध नयातम आतमकी अनभूति त्रिज्ञान विभूतिहि सोई, वस्तु विचारत एक पदारथ नामक भेद -कहावत दोई । यो सरवंग सदा लखि आपुहि, आतमध्यान करै जब कोई । मेटि अशुद्धि बिभावदशा तब सिद्ध सरूप किनापति होई॥६५॥
सवैया इकतीसा-अपनेही गुनपरजायसो प्रवाहरूप,परिन यो तिहूं काल अपने आधारसों । अंतर वाहिर परकासवान एकरस, खिन्नता न गहै भिन्न रहै भौ विकारसों ॥ चेत. नाके रस सरवंग भरि रह्यो जीव, जैसे लोन काकर भयो है रस छारसों ॥ पूरन सरूप अति उज्जल विज्ञान धन, मो को होहु प्रगट निशेष निरबारसों । ६६ ॥ ___ कवित्त छंद-जहँ ध्रुव धर्म कर्म छय लक्षन, सिद्ध समाधि साध्यपद सोइ । सुधो पयोग योग महि मण्डित, साधक ताहि कहै सवकोइ ॥ यों परतक्ष परोक्ष स्वरूप, सुसाधक
मध्य अवस्था दोइ । दुहुको एक ज्ञान संचय करि, सवै {शिव वंछक थिर होइ ॥ ६७ ॥.