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(९) श्रुत सिंधु समानी ॥ यातें अनंत नयातम लक्षन, सत्य सरूप सिद्धांत बखानी। बुद्धि लखैन लखै दुर बुद्धि सदा जग , माहि जगे जिनबानी ॥ ५४ ॥
छप्पय छंद-हों निह, तिहुँकाल, शुद्ध चेतनमय भूरति। पर परिनति संयोग, भई जडता विस्फूरति ॥ मोह कर्मपर हेतु, पाइ चेतन पर रच्चै । ज्यों धतूर रसपान, करत नर बहु विध नच्चै ।। अव समय सार वर्णन करत, परम शुद्धता होउ मुझ । अनयास वनारसि दास कहि, मिटो सहज भ्रमकी अरुम ॥ ५५ ॥ ___ सवैया इकतीसा--निहचैमें रूप एक विवहार में अनेक, याही नै विरोध में जगत भरमायो है। जगके विवाद नासिबेकों जिन आगम है, जामें स्यादवाद नाम लक्षन सुहायो है । दरसन मोह जाको गयो है सहजरूप, आगम प्रवान जाके हिरदेमें आयो है। अनैलो अखंडित अनूतन अनंत तेज, ऐसो पद पूरन तुरत तिन पायो है ॥ ५६ ॥ - सवैया तेईसा--ज्यों नर कोउ गिरै गिरलों तिह, सोइ हितू जु गहै दृढ वाही। त्यों बुधकों विवहार भलो तवलों, जबलों शिव प्रापति नांहीं ॥ यद्यपि यों परवान तथापि,सधै परमारथ चेतनमाहीं। जीव अध्यापक है परसों, शिवहार सु तौ परकी परछांहीं ॥ ५७ ॥
सवैया इकतीसा-शुद्ध नय निह अकेलो आशु चिदानंअपनेही गुण परजायका गहतु, । पुरन विज्ञान धन विविवहार मांहि, नवतारुपी एचप्रमाणपत्र जवतत्व न्यारे जी न्यारो लाखे । सल्पक बात यह