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सवैया इकतीसा-जोइ दृग ज्ञान चरणांतममें ठटि ठोर - भयो निरंदोर परवंस्तुकों नपरले । सुद्धता विचारे ध्यावे
शुद्धतामें केलि करे, शुद्धतामें थिर है अमृत धारा वरसे ॥ त्यागी तने कष्ट है सपष्ट अष्ट करमको, करेथान अष्ट नष्ट करे और करसे । सोइ विकलप विजई अलप कालमांहि, त्याग भो विधान निरवान पद दरसे ॥ ६४ ॥
चौपाई। गुन परजे में दृष्टि न दीजे । निरविकलपअनुभारसपीजे॥ आपसमाइ आपमें लीजे । तनपा मेटि अपनपौकीजे ॥६५॥ दोहा-तजिविभावहुइजे मगन, सुद्धातम पदमाहि। . : एकं मोष मारगयहे, और दूसरो नांहि ॥६६॥
सवैया इकतीसा-कइ मिथ्या दृष्टि जीव धारेजिन मुद्रा भेष, क्रिया में मगन रहे कहे हम जती हैं । अतुल अखंड मल रहित सदा उदोत, ऐसे ज्ञान भाव सो विमुख सूद मति हैं ॥ आगम सँभाले दोष टाले विवहार भाले, पाले वृत्त यद्यपि तथापि अविरती हैं । आपुकों कहाबे मोष मारग के अधिकारी, मोष सों सदीब रुष्ट दुष्ट दुरगति हैं ॥ ६७ ॥ दोहा-जे विवहारी मढ़ नर, परजे बुद्धी जीव । . . तिनको वाहिज क्रीयको, है अवलम्बसदीय ॥६॥
. चौपाई। जैसे मुगंध धान पहिचाने । तुष तंदुलको भेद नजाने ॥ तैसेमूढमती व्यवहारी । लखेन बंधमोष विधिन्यारी॥६९ ।।