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________________ ( १७ ) ॥ ९३ ॥ खांडो कहिये कनकको, कनक म्यान संयोग । न्यारो निरखतम्यानसों, लोह कहैं सबलोग वरनादिक पुद्गल दशा, घरें जीव बहु रूप वस्तु विचारत करमसों, भिन्न एक चिद्रूप ॥ ६४॥ ज्यों घट कहिये घीउकों, घटको रूप न घीउ । । त्यों बरनादिक नामसों, जडताल है न जी ॥ ६५ ॥ निरावाध चेतन अलख, जाने सहज सुकीउ । अचलअनादि अनंतनित, प्रकटजगतमै जीउ ॥ ६६॥ सर्वेया इकतीसा रूप रसवंत मूरतीक एक पुद्गल, रूप बिन ओर यूं अजीव दर्व दुधा है । च्यारि हैं अमूरतिक जी - बभी आसकी, या हित अमूरांतिक वस्तु ध्यान सुधाह है। न कबहूं प्रगट आपु आपही सों, ऐसो थिर चेतनसुभाउ शुद्ध सुधाहै | चेतनको अनुभौ आराधे जग तेई जीउ, जिन्ह के अखंडरस चाखिनेकी छुधा है ॥ ६७ ॥ L सवैया तेईसा -- चेतन जीव अजीव अचेतन, लंचन भेद उभै पद न्यारे । सम्यक दृष्टि उद्योत विचक्षण, भिन्न लखे लखिके निरधारे ॥ जे जग मांहि अनादि अखंडित, मोह महामद के मतवारे । ते जड चेतन एक कहै, तिन्हकी फिरि टेक टरै नहिं टारे ॥ ९८ ॥ सवैया तेईसा-या घटमें भ्रमरूप अनादि, बिलास महा अविवेक अखारो | तामँहि उर सरूप न दीसत, पुद्गल ..नृत्य करे अतिभारो । फेरत भेष दिखावत कौतुक, सो जलिये वरनादि पसारो । मोहसुं भिन्न जुदो जड सों, चिन मरति नाटक देखनहारो ॥ ९९ ॥
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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