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________________ (५१) चटतु है ॥ ऐसे मूढ़ जन निज संपती न लखे क्योंही, मेरी मेरी मेरी निशि बासर स्टतु है । याही ममता सों परमारथ बिनसी जाइ, कांजी को फरस पाई दूध ज्यों . फटतु है ॥ ६५ ॥ · सवैया इकतीसा-रूपकी न झांक हिये करम को डांक पिये, ज्ञान दवि रह्यो मिरगांक जैसे धन में । लोचन की ढांक सों न मानै सदगुरु हांक, डोलै पराधीन मूढ़ रांक तिहूं पन में ॥ टांक इक मांस की डलीसी तामें तीन फांक, तीनि को सो अंक लिखि राख्यों काहु तन में । तासों कहै नांक ताके राखिबेको करे कांक, लोकसो खरग बांधि वांक धरै मनमें ॥ ६६ ॥ __ सवैया इकतीसा-जैसे कोउ कूकर क्षुधित सूके हाडचावे हाडनिकी कोर चिहू ओर चुभे मुख में । गाल तालू रस मांस मूढ़निको मांस फाटे, चाटै निज रुधिर मगन स्वाद मुख में ॥ तैसे मूढ़ बिसयी पुरुष रति रीत ठाने तामें चित साने हित. माने खेद दुख में । देखै परतक्ष बल हानी मलमूतखानी, गहेन गिलानी पगी रहे रागरुख में॥६७॥ .. अडिल्ल छंद-सदा करमसों भिन्न सहज चेतन कह्यो । मोह विकलता. मानि मिथ्याती है रह्यो । करै विकल्प अनन्त, अहंमति धारिके । सो मुनि जो थिर होइ ममत्त .. निवारि के ॥ ६८॥ सवैया इकतीसा-असंख्यात लोक परवान जो मिथ्यात भाव, तेई ब्यवहार भाव केवली उकत है। जिन्ह के मिथ्यात गयो सम्यक दरस भयो, ते नियत लीन विवहार
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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