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________________ ( ३७) मति श्रुत औधि मनपर्यै केवल सु, पंचधा तरंगनि उमंग उछरतुहै । सोहै ज्ञानउदधि उदार महिमा अपार, निराधार एकमें अनेकता धरतु है।।९६॥ . सवैया इकतीसा केई क्रूर कष्ट सहै तपसों शरीर दहै धूम्रपान करै अधोमुख व्हेके झूले है । केई महाबत गहै क्रियामें मगन रहै, वहै मुनि भारमें पयार केसे पूले है ॥ इ. त्यादिक जीवनको सर्वथा मुगति नाहि, फिरे जगमाहि ज्यों बयारके बघूले है। जिनके हिये में ज्ञान तिन्हहीको निरबान, करमके करतार भरम में भूले हैं ॥९७॥ दोहा-लीन भयो विवहारमें, उकति न उपजै कोइ। दीन भयो प्रभुपद जपै, मुकति कहांसों होइ॥९८॥ प्रभु समरो पूजो पढ़ो, करों विविध बिवहार। ' मोक्ष सरूपी आतमा, ज्ञानगम्य निरंधार ॥९९॥ - सवैया तेईसा-काज बिना न करेजिय उद्यम लाज बिना रनमांहि न झंझै । डील बिना न सधै परमारथ, सील बिना सतसों न अरूझै ॥ नेम बिना ने लहे निहचे पंद प्रेम विना रस रीति न बूझै। ध्यान बिना न थमे मनकीगति, ज्ञान बिना शिवपंथन सूझै ॥ २०० ॥ ' सवैचा तेईसा-ज्ञान उदै जिनके घट अन्तर, ज्योतिजगी मति होति न मैली। बाहिज दृष्टिमिटी जिन्हके हिय, आतम ध्यान कलाबिधि फैली॥जे जड़ चेतन भिन्नलखै सु विवेक लिये परखैगुनथैली।तेजगमें परमारथ जानि गहै रुचिमानि अध्यातम सैली ॥ १ ॥ . दोहा-बहुविधिक्रियाकलेससों, शिवपदलहै न कोई।
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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