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जग बिलास भालसो भुवनबास,काल सो कुटंब काज लोक लाजलारसी।सीठ सो सुजस जानै बीठसोबखतमान, ऐसी जाकी रीति ताहि बंदत बनारसी॥५६॥ __सवैया इकतीसा-जैसे कोउ सुभट सुभाय ठग सूर• खाय, चेरा भयो ठगनीके घेरामें रहतु है । ठगोरी उतरिगई तबतांहि सुधिभई, पन्यो परवस नाना संकट सहतु है. ॥ तैसही अनादिको मिथ्याति जीव जगतमें, डोले आठौं जास विसराम न गहतुहै । ज्ञान कला भाली भयो अंतर उदासी पै तथापि उदै व्याधिसों समाधिन स
“सवैया इकतीसा-जैसें रांक पुरुषके भाये कानी कोड़ी धन, उलूवाके भाय जैसे संझाई विहान है । कुकरके भाये ज्यों पिडोर जिरवानी मठा, सकरके भाय ज्यों पुरीष पकवानहै। वायसके भाये जैसे नींदकी निवोरी दाखं, वालकके सायें दंत कथाज्यों पुरानहै । हिंसकके भाये जैसे हिलामें धरम तैसे, मूरखके भाये सुभ बंध निरवानहै ॥ ५८ ।।
सवैया इकतीसा-कुंजरकों देखि जैले रोष करी सुंसे स्वान, रोष करै निर्धन विलोकि धनवंतकों । रैनके जगैयाको विलोकि चोर रोष करै, मिथ्यमति रोषकर सुनतसिद्धंतको ॥ हं-. 'सकों. बिलोकि जैसे काग मनि रोष करे, अभिमानी रोष करै देखत महंतकों। सुकविकों देखि ज्यों कुकवि मन रोष
करै, त्योंही दुरजन रोष करै देखि संतकों ॥ ५९ ॥ - ... सवैया इकतीसा-सरलकों सठ कहै बकताको धीठ कहै, बिनो करै तासों कहै धनको अधीनहै। छमीको निबल कहै.