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चेतनकी हिंसा से पुलमें, बिषेभोग वरते उदके उरनाउ में ॥ रागादिक शुद्धता अशुद्धता है अलखकी यहे उपादान हेतु बंध बढाउ | याहिते विचक्षन अबंध कक्षो तिहूँ काल, रागदोष मोहनादि सम्यक् सुभाउ में ॥ ४२ ॥
सवैया इकतीसा - कर्मजाल जोग हिंसा भोगसों न बंधे पै तथापि ज्ञाता उद्यमीवखान्यो जिन बैनमें | ज्ञानदृष्टि दे तु विषै भोगनिसों हेतु दोउ, क्रियाएकखेत यों तो बने नांहि जैनमें ॥ उदैबल उद्यम गर्दै पै फलकौं न चहे निरदै दसा न होई हिरदेके नैनमें । आलस निरुद्यमकी भूमिका मिथ्यात मांहि, जहां न संभरै जीव मोहनींद सैनमें ॥ ४३ ॥
दोहा - जब जाकौ जैसे उदै, तबसो है तिहि थान ।
सकति मरोरै जीवकी, उदै महा बलवान ॥ ४४ ॥ सवैया इकतीसा - जैसे गजराज पन्यो कर्दमके कुंडबीच उद्यम अहूटै नपै छूटै दुःख द्वंदसें । जैसे लोह कंटक की कोरसों उरम्यो मीन, चेतन असाता लहै साताल है संदसों ॥ जैसे महाताप सिरवाहिसों गरास्यो नर, तकै निजकाज उठी सकै न सुछंदसों । तैसे ज्ञानवंत सब जाने न बसाई कछु, बंध्यो फिरैपूरब करमफल फंदसों ॥ ४५ ॥
चौपाई - जे जिय मोहनींद में सोवै, तै आलसी निरुद्यमि होवै ॥ दृष्टिखो लिजे जगै प्रवीना । तिन्हि आलस तजिउद्यम कीना ॥ ४६ ॥
सवैया इकतीसा - काच बांधै सिरसों सुमनी बांधें पायनि सों, जाने न गंवार कैसी मनी कैसो काच है । योंहीमूढ़ जूठमें
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