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________________ भए सरबथा, विषेसों विमुख व्है बिरागता चहत है ॥ जो ग्राहजभाव त्यागभाव दुहूं भावनिको, अनुभौ अभ्यासविषे एकता कहत है । तेई ज्ञान क्रियाके आराधक सहज मोख, मारगके साधक अबाधक महतहै ॥ ५२ ॥ दोहा-विनसि अनादि अशुद्धता,होइ शुद्धता पोष । । ता परनतिकौं बुध कहे, ज्ञान क्रियासों मोष ॥ ५३॥ - जगी शुद्ध समकित कला,बगी मोखमग जोइ। - बहे करम चूरन करे, क्रम क्रम पूरन होइ ॥५४॥ जाके घट ऐसी दशा, साधक ताको नाम । जैसे दीपक जो धरे, सो उजियारो धाम ॥५५॥ सबैया इकतीसा-जाके घट अंतर मिथ्यात अंधकारगयो, भयो परगास सुंद्ध समकित भानको । जाकी मोह निद्रा घटी ममता पलक फटी, जान्यो जिन मरम अबाचीभगवानको ॥ जाको ज्ञान तेज बग्यो उदिम उदार जग्यो, लग्यो सुखं पोष-समरस सधा पानको। ताहीस विचक्षन को संसार निकट आयो,पायोतिति मारग सुगमनिरवानको॥५६॥ सवैया इकतीसा-जाके हिरदेमें स्थाबाद साधना करत, शुद्ध आत्माको अनुभौ प्रगट भयो है । जाकों संकलप वि. कलंपके विकार मिटि,सदा काल एकीभाव रस परिनयोहै। जिनिबंध बिधि परिहार मोख अंगीकार,ऐसो सुविचार पक्ष सोउ छांडि दयो है ॥ जाकी ज्ञानमहिमा उदोत दिन दिन प्रति, सोइ भवसागर उलंधि पार गयो है ५७ ॥ सवैया इकतीसा-अस्तिरूप नालात अनेक एकाधिररूप, आथिर इत्यादि नानारूप जीव कहिये। दीसे एक नैशी प्र.
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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