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( ९१ ) जहांलों अचित चित अंग लहलहे है । जोगरूप भोगरूप नानाकारज्ञेयरूप, जेतेभेद करमके तेतेजीव कहेहै।मतिमान कहे एक पिंडमांहि एक जीव, ताहीके अनंत भाव अंस फैलि रहेहै।पुग्गलसें भिन्नकर्म जोगसों अखिन्नसदा, उपजे विनसे थिरता सुभाव गहे है ॥ ११॥
सवैयाइकतीसा-कोउ एकछिनवादी कहे एक पिंडमांहि, एक जीव उपजत एक विनसतुहै । जाही समै अंतर नवीन उतपति हुइ, ताही समै प्रथम पुरातन वसतुहै। सरबंगवादी कहे जैसे जलवस्तु एक, सौंई जलविविध तरंगनि लसतुहै। तैसें एक आतम दरब गुनपरजेसों, अनेक भयो में एक रूप दरसतु है ॥ १२॥
संवैया इकतीसा-कोउ वालवुद्धि कहे ज्ञायकसकतिजोलों, तोलों ज्ञान अशुद्ध जगत मध्य जानिये। ज्ञायक सकति काल पाई मिटि जाई जब,तवं अविरोध बोध बिमल बखानिये ॥ परम प्रवीन कहे ऐसीन तो बनें बाही,जैसे बिनु परगास सूरजन मानिये । तैसें विनु ज्ञायक सकति न कहावे ज्ञान, यहतो न पक्ष परतक्ष परबानिये॥१३॥ दोहा-इहविधि आतम ज्ञानहित, स्यादबाद परवान।
जाके बचन विचार सों, मूरख होइसुजान॥ १४ ॥ स्यादबाद आतम सदा, ताकारन बलवान । शिव साधक वाधा रहित,अखअखंडित आंन॥१५॥ स्यादवाद अधिकारयह,कह्योअलपविसतार।
अमृत चंद मुनिवर कहे,साधक साधि दुवार ॥ १६ ॥ इति श्री नाटक समयसार विषै ग्यारवां स्याद्वाद द्वार समाप्तः ।