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________________ भयोनहि दोई।चेतनता न गई कबहु तिहिं,कारनब्रह्मकहावत सोई ॥ ७॥ · सवैयातेईसा-देखुसखी यह आपुविराजत,याकिदसा सब वाहिकुंसोहै । एकमें एक अनेक अनेकमें, द्वंद लिये दुविधा महि दो है॥आपु सँभारि लखै अपनो पद,आपु विसारके आ. पुहि मोहै।व्यापकरूप यहै घट अंतर, ज्ञानमें कौन अज्ञानु में कोहै!॥८॥ सदैया इकतीसा-ज्यों नट एकधरै बहु भेष कला प्रगटै जगौतुक देखै।आपु लखै अपनी करतूति वहै नट भिन्न वि. लोकत ऐवै॥ त्यों घटमेंनटचेतन राउ,विभाउदसाधरि रूप विलेखै। खोलि सुदृष्टि लखै अपनो पद, दुंद बिचार दसा नहि लेखै ॥९॥ अडिल्ल छंद-जाके चैतनभाव चिदातम सोइ है।औरभाव जो धरे सु और कोईहै। यों चिनमंडित भाव उपादे जानते । त्याग जोग परभाव पराये मानते ॥१०॥ ___ सबैया इकतीसा-जिन्हके सुमति जागी भोगों भये विरागी, परसंग त्यागी जे पुरुष त्रिभुवनमें । रागादिक भादलिसों जिन्हकी रहनि न्यारी, कबहू मगन व्है न रहै धाम धनमें ॥ जे लदीव आपको विचारै सरवंग सुद्ध, जिन्हके विकलता न ब्यापै कब मनसें । तेई मोक्ष मारम के.सा. धक कहावें जीव,सावै रहो मंदिरोभावे रहो बनमें॥११॥ __ सवैया तेईसा-चेतन मंडित अंग अखंडित,शुद्ध पवित्र पदारथ मेरो । राग विरोध विमोह दशा, समुझे भ्रम नाटिक पुग्गल केरो ॥ भोग सँयोग वियोग व्यथा, अविलो. .
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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