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________________ (१५) कह्यो भैया यहु तो हमारो बस्त्र, चीन्हो पहिचानतही त्याग 'भाव लह्यो है ॥ तैसेही अनादि पुद्गलसों संयोगी जीव, संग के ममत्वतों विभावतामें वह्यो है । भेद ज्ञानभयो जव आपो पर जान्यो तब, न्यारो परभाव सों स्वभाव निज गयो है ॥ ३ ॥ अडिल्लछंद--कहै विचक्षण पुरुष सदाहों एकहों। अपने रससों भयो आपनी टेक हों ॥ मोह कर्म मम नाहि नाहि भ्रम कूप है । शुद्ध चेतना सिंधु हमारो रूप है।। ८४ ॥ ___ सवैया इकतीसा-तत्वकी प्रतीति सों लख्यो है निजपर गुन, दृग ज्ञान चरन त्रिविध परिनयो है । विसद विवेक आयो आयो बिसराम पायो, आपही में आपनो सहारो सोधि लयो है ॥ कहत वनारसी गहत पुस्पारथकों, सहज सुमाउसों विभाउ मिटि गयो । पन्नाके पकाय जैसे कंचन विमल होतु, तैसे शुद्ध चेतन प्रकाशरूप भयो है ॥ ८५ ___ सबैया इकतीसा--जैसे कोउ पातर बनाय वस्त्र आभरण, आवति अखारे निशि आडो पट करिके । दुहू उर दीवटि सँवारि पट दूरि कीजे, सकल सभाके लोगदेखें दृष्टि धरिक। तैसे ज्ञान सागर मिथ्यात ग्रंथि भेद करि, उमग्यो प्रकट रह्यो तिहुँलोक भरिके। ऐसो उपदेशसुनि चाहिये जगतजीव शुद्धता सँभारे जगजालसों निकरिके ॥८६॥ इतिश्रीनाटिकासमयसारकाप्रथमजीवद्वारसमाप्तगया।
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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