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________________ (१०१) कों, थिरता की बानी चढ़ी चंचलता बिनसी । मुद्रा देखे केवलीकी मुद्रा यादि आवे जहां, जाके आगे इंद्रकी विभूति दिसे तिनसी ॥ जाको जस जंपत प्रकास जगे हिरदेमें, सोई सुद्ध मती होइ हुती जो मलिनसी । कहत बनारसी सुमहिमा प्रकट जाकी, सोहे जिन की सबी हे विद्यमान जिनसी ॥७३॥ . __ सवैया इकतीसा-जाके उर अंतर सुदृष्टिकी लहरिलसी, बिनसी मिथ्यात मोह निद्राकी समारषी । सैली जिन सा. सनकी फैली जाके घट भयो, गरवको त्यागी षट दरवको पारषी॥आगम के अक्षर परे है जाके श्रवणमें, हिरदेभंडार में समानी बानी आरषी । कहत बनारसी अलप भवस्थित जाकी, सोइजिनप्रतिमा प्रवाने जिन सारषी॥७४॥ चौपाई। . . जिन प्रतिमाजन दोष निकदे। सीस नमाइ बनारसि बंदे फिरिमनमांहि विचारे ऐसा । नाटकग्रंथ परमपद जैसा॥७५॥ परम तत्व परचे इस मांही । गुन थानककी रचनानांही॥ यामें गुनथानक रस आवे।तो गरंथ अतिशोभापावे॥७६॥ दोहा-यह विचारि संक्षेपसों, गुनथानक रस योज। बरनन करे बनारसी, कारन शिव पथ खोज ॥७७॥ 'नियत एक विवहारसों, जीव चतुर्दश भेद । रंग जोग बहुबिधि भयो, ज्यूंपट सहजसुपेद ॥७॥ सवैया इकतीसा-प्रथम मिथ्यात दूजो सासादन तीजो मिश्र चतुरथो अबत पंचमोजतरंच है। छठो परमत्त सातमो अपरमतनाम, आठमो अपूरब करनसुख संचहै ॥ नौमो
SR No.010587
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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