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(६२) मुख भोर है ॥ सत्ताको सरूप मोख सत्ता भूलै यहै दोष, सत्ताके उलंधै धूम धाम चिहू ओर है । सत्ताकी समाधि में विराजि रहेसोई साहु, सत्तातें निकसि और गहे सोई चोर है ॥ १८ ॥
सवैया इकतीसा-जामें लोक वेद नांहि थापना उछेद नांहि, पाप पुन्य खेद नांहि क्रिया नाहि करनी। जामें राग दोष नांहि जामें बंध मोख नाहि, जामें प्रभु दास न अकास नाहि धरनी ॥ जामें कुलरीत नांहि जामें हारजीत नाहिं जामें गुरु शिख नांहि विष नाहि भरनी । आश्रम बरन नांहि काहुकी सरनि नाहि, ऐसी सुद्ध सत्ताकी समाधि भूमि वरनी ॥ १९ ॥ दोहा-जाके घट समता नही, ममता मगनसदीव ।।
रमता राम न जानही, सो अपराधी जीव ॥२०॥
अपराधी मिथ्यामती, निरदै हिरदै अंध । •परकों माने आतमा, करे करम को वंध ॥ २१ ॥ झूठी करनी आचरे, झूठ सुखकी आस ।
झूठी भगती हिय धरे, झूठो प्रभुको दास ॥ २२ ॥ सवैयाइकतीसा-माटीभूमी सैलकीसुसंपदा वखाने निज, कर्ममें अमृत जाने ज्ञानमें जहरहै। अपनोन रूप गहै औरही सों आपुकहै,सातातोसमाधिजाके असाताकहरहै। कोपको कृपान लियेमान मदपान किये,मायाकी मरोरि हिये लोभकी लहरहै। याहीभांति चेतन अचेतनकी संगतिसों, साचसोवि. मुखभयोझूठमें बहरहै ॥२३॥ ,
सवैया इकतीसा-तीनकाल अतीत अनागत वरतमान, ज.