Book Title: Samanvay Shanti Aur Samatvayog Ka Adhar Anekantwad
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARSVA FOUNDATION SERIES NO. 4 “Anekānta-vāda as the basis of Equanimity, Tranquality and Synthisis of opposite view points” poi समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद By Dr. Pritam Singhvi (06 प्रकाशक पार्श्व इन्टरनेशनल शैक्षणिक और शोधनिष्ठ प्रतिष्ठान अहमदाबाद Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “Anekānta-vāda as the basis of Equanimity, Tranquality and Synthisis of opposite view points" समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद . By Dr. Pritam Singhvi (M.A., Ph.D., N. W. D.) प्रकाशक पार्श्व इन्टरनेशनल शैक्षणिक और शोधनिष्ठ प्रतिष्ठान अहमदाबाद १९९९ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “Anekānta-vāda as the basis of Equanimity, Tranquality and Synthisis of opposite view points” © P. Singhvi First Edition 1999 Price: Rs. 60-00 Publisher : Dr. S. S. Singhvi Managing Trustee Pārśva International Educational and Research Foundation, 4-A, Ramya Apartment, Opp. Ketav Petrol Pump, Polytechnic, Ambawadi, Ahmedabad-380015 Phone : 6562998, 6749220 प्राप्तिस्थान : सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८० ००१ 79 : 5356692 Printed by: Krishna Graphics Kirit H. Patel 966, Naranpura Old Village, Ahmedabad-380 013 * (Phone : 7484393) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Petal, DEDICATION At the feet of...... THE HOLY PENTD: Arihantas.... Siddhās,...... Acaryas,...... Upādyāyas..... Sadhus..... and To the Memory of My Parents Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher's Forword We have great pleasure in publishing Dr. Pritam Singhvi's “Anekānta-vāda as the basis of Equanimity Tranquality and Synthisis of opposite view points". She has treated one of the important Jain Philosphical tenets in Comparision with Similar views in other Philosophical traditions, eastern and western. She has also touched upon modern views in this matter. H. C. Bhayani Acadamic Advisery Commitee. Parsva International Educational and Research Foundation Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन ॥ नमो नमः श्रीगुरुनेमिसूरये ॥ स्थिर अजवाळू पथराशे विश्वभरमां आजे अनेकानेक क्षेत्रमा क्रान्ति आवी छे ते ज रीते वैचारिक क्षेत्रे पण क्रान्ति आवी छे. आजनो माणस जुदा जुदा विरुद्ध दिशाना विचाराने सांभळतो, वांचतो थयो छे तेथी ते सतत द्विधामां अटवातो रह्यो छे. तेवा समये आवा पुस्तकना वाचनथी साम-सामा छेडाना विचारोमां पण रहेली एकताना दर्शन थई शके छे. मारुं अq नम्र मंतव्य छे के कोईए पण जैनदर्शन विषे कशुंय बोलवू के लखवू होय तो तेनो व्यवस्थित अभ्यास करवो पछी ज ते विषे बोलवू के लखवं. अन्यथा तेने पूरो अन्याय थवा संभव छे. ते दिशामां पण डॉ. प्रीतम सिंघवीनो आ प्रयत्न जरूर स्थिर अजवाळू. पाथरनारो नीवडशे. हजी तेमना हाथे आवा ज पुस्तको आपणने मळता रहे तेवी आशा अस्थाने नहीं गणाय. पद्युम्नसूरि महाराज आंबावाडी, जैनउपाश्रय, अमदावाद-१५ नूतनवर्षारंभदिन वि.सं. २०५५ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख श्रीमती डॉ. प्रीतम सिंघवीओ लखेलु प्रस्तुत पुस्तक 'समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद' अनेकान्तवाद विशे सामान्यपणे प्रवर्तती गेरसमजने दूर करे छे अने अनेकान्तवादना हार्दने प्रगट करे छे. वळी, लोकभोग्य शैलीमां लखायेलो अनेकान्तवाद विशेना हिन्दी पुस्तकों नहिवत् होई प्रस्तुत पुस्तक विशेष आवकार्य छे. उपरांत, व्यापक दृष्टिले पुस्तक लखायुं होई, सामान्य वाचकने पण तेमां अवश्य रस पडशे. प्रकरणोनी योजना अने विषयनिरूपणनी पद्धति पण तर्कयुक्त अने सरल छे. वस्तुमां अनेक धर्मो छे, पासां छे. सर्व धर्मो सहित अखंड वस्तुने ग्रहण करवी मनुष्यने माटे अशक्य छे. मनुष्य स्व अपेक्षा या प्रयोजनने अनुरूप ते ते धर्मने के पासाने ग्रहण करे छे, वस्तुने आंशिकपणे ग्रहण करे छ, समग्रपणे ग्रहण करतो नथी - करी शकतो नथी. तेनुं ज्ञान अने प्रतिपादन आंशिक सत्यने विषय करे छे, पूर्ण सत्यने विषय करतुं नथी. आ सभानताने ज अनेकान्तवाद प्रस्तुत करे छे तथा विविध दृष्टिओ के आंशिक सत्योनो समन्वय करवानो प्रयास करे छे. कोई पण धर्मने लई सावधानीपूर्वक प्रतिपादन करवानी पद्धतिने सप्तभंगी कहेवामां आवे छे. जुदी जुदी दृष्टिो-अपेक्षाओ ते धर्म विशे सात विधानो करी शकाय छे. आ सात विधानो ज सप्तभंगीना भंगो या अवयवो छे. पोताना आंशिक ज्ञानने पूर्ण मानी लेवानी भूलने कारणे ज वैचारिक असहिष्णुता अने परिणामे हिंसा जन्मे छे. आम अनेकान्तवाद वैचारिक सहिष्णुता, अहिंसा, शान्ति अने समन्वयनो पोषक छे. अनेकान्तवाद बहु उपयोगी छे. अनाथी मताग्रहना स्थाने वैचारिक उदारता अने दृष्टिनी संकुचितताना स्थाने दृष्टिनी विशालता आवे छे. भिन्न भिन्न व्यक्तिओना दृष्टिकोणोने समजवामां घणी सहायता मळे छे. जीवनना प्रत्येक क्षेत्रमा सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राष्ट्रीय आदिमां लाभप्रद छे. विरोधी विचारोनो समन्वय करनार छे. आ ज वस्तुनुं विस्तारथी प्रतिपादन प्रस्तुत ग्रंथमां थयु होई व्यक्ति अने समाजने लाभदायी विचारने वहन करतो ते पुरवार थशे अम लागे छे. ता. २-१०-९८ नगीन जी. शाह Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनेकान्त की विचारधारा बहुत प्राचीन एवं व्यापक है । वेद, उपनिषद, अन्य दर्शनों, अन्य वैचारिक संप्रदायों, परवर्ती चिन्तकों और परवर्ती दार्शनिक संप्रदायो में भी यह विचारधारा अथवा इसके समानधर्मा विचारों का उल्लेख देखने में आता है। अनेकान्त की विचारधारा चाहे जितनी प्राचीन हो, या व्यापक रही हो, जैनदर्शन के विशिष्ट विचार के रूप में स्थापित होने के बाद आज तक अनेकान्तवाद दर्शन क्षेत्र में अथवा इसके बाहर के क्षेत्रों में भी विचित्र रूप में देखा जाता रहा है। वास्तव में अनेकान्त दर्शन अहिंसा को पुष्ट करनेवाली विचारधारा है। अहिंसा का मूल उद्गम समत्व से होता है, और समत्व ही अनेकान्त का हृदय है। अनेकान्त का अभिप्राय है- अनेक धर्मवाला पदार्थ । वस्तु सर्व धर्ममय नहीं अनेक धर्ममय है । उसे सर्वथा एक धर्मात्मक भी नहीं कहा जा सकता। जैसे - अग्नि, जल, आदि । अग्नि ज्वलनशील है, प्रकाशप्रद है, उष्ण आदि . गुण वाली है। जल शीतल है, प्रवाहयुक्त है, रूप रस, गंध वर्णयक्त है, भारी है, हल्का है, पुद्गल है इत्यादि । प्रत्येक पदार्थ इसी प्रकार विविध स्वधर्म गुणों का निकाय है। यदि उसे किसी एक धर्म से अविच्छिन और कूटस्थ मानें तो इतर विधमान धर्मों को अस्वीकार करना होगा । स्वीकारने अथवा अस्वीकारने मात्र से पदार्थों का निर्णय सिद्ध नहीं होता । दार्शनिक दृष्टि संकुचित न होकर विशाल होनी चाहिए । जितने भी धर्म वस्तु में प्रतिभासित होते हों, उन सबका समावेश उस दृष्टि में होना चाहिए। यह ठीक है कि हमारा दृष्टिकोण किसी समय किसी एक धर्म पर विशेष भार देता है, किसी समय किसी दूसरे धर्म पर । इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि वस्तु में अमुख धर्म है और अन्य कोई धर्म नहीं । वस्तु का Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण विश्लेषण करने पर प्रतीत होगा कि वास्तव में हम जिन धर्मों का निषेध करना चाहते हैं, वे सब धर्म वस्तु मे विद्यमान हैं । इसी दृष्टि को सामने रखते हुए वस्तु अनन्त धर्मात्मक कही जाती है । वस्तु स्वभाव से ही ऐसी है कि उसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है और अनेक दृष्टियों से विचार करने पर ही वस्तु के यथार्थ ज्ञान या पूर्णज्ञान की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है । इस दृष्टि का नाम ही अनेकान्तवाद है। जैन धर्म ने अनेकान्त दृष्टि से विश्व को देखा और स्याद्वाद की भाषा में उसकी व्याख्या की । महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली का ही दूसरा नाम 'अनेकान्तवाद' है। उसके मूल में दो तत्त्व है - पूर्णता और यथार्थता । जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप में प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता महावीर के अनेकान्तवाद का यही अर्थ है कि कोई दृष्टि पूरी नहीं है, कोई दृष्टि विरोधी नहीं है, सब दृष्टियाँ सहयोगी है और सब दृष्टियां किसी बडे सत्य में समाहित हो जाती है। . जैनाचार्यों ने अनेकान्त को पारिभाषित करते हुए लिखा है 'सर्वथैकान्त प्रतिक्षेप लक्षणोऽनेकांतः अर्थात् अनेकान्त मात्र एकांत का निषेध है और वस्तु में निहित परस्पर विरुद्ध धर्मों का प्रकाशक है। __अनेकान्तवाद जैन परंपरा की मौलिक देन है क्योंकि यह ज्ञान का एक अंग है, इसके द्वारा मानसिक, सामाजिक, धार्मिक राजनैतिक व व्यवहारिक तथा आन्तर्राष्ट्रीय मतभेद दूर किये जा सकते हैं। इसको पाकर मानव अन्तर्दृष्टा बनता है। इसका प्रयोग जीवनव्यवहार में समन्वयपरक है। यह समता व शान्ति को सर्जता है, बुद्धि के वैषम्य को मिटाता है । इसके द्वारा मानव का आचारव्यवहार पूर्णत: 'मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकम् के अनुरूप हो जाता है। .. प्रस्तुत ग्रन्थ में मैंने न केवल अनेकान्तवाद की जैन दृष्टिकोण से व्याख्या की है, अपितु अन्य भारतीय दर्शनों एवं पाश्चात्य दर्शनों के साथ इसका तुलनात्मक विवरण भी प्रस्तुत किया है । आधुनिक युग में इस सिद्धान्त की अनेक परिवेशों में उपादेयता है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस वाद के विषय में विद्वानों में बहुत विचारभ्रम है, उसे दूर कर इसके यथार्थ स्वरूप को सबके सम्मुख प्रस्तुत करना आवश्यक है । अतः इस विषय पर ग्रन्थ लिखना उपयुक्त प्रतीत हुआ । 'समन्वय, शान्ति और समतयोग का आधार अनेकान्तवाद' विषयक मेरे इस अध्ययन एवं चिंतन को मूर्त रूप प्रदान करने में जिन महापुरुषों विचारकों, दार्शनिकों, लेखकों, गुरुजनों एवं मित्रों का सहयोग रहा है उन सबके प्रति आभार प्रदर्शित करना मैं अपना पुनित कर्तव्य समझती हूँ। प्रस्तुत ग्रन्थ के लिये जिन-जिन पुस्तकों को पढ़ा, उनसे संदर्भ लिये और जिनकी प्रेरणा से मुझमें यह दृष्टिकोण आया, उन सबकी मैं हृदय से आभार . मानती हूँ। ऋणस्वीकार उन गुरुजनों के प्रति, जिनके प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन ने मुझे इस कार्य में सहयोग दिया है, यहाँ श्रद्धा प्रकट करना भी मेरा अनिवार्य कर्तव्य है। आदरणीय पंडितवर्य, आगमवेता, महामनीषी पद्मभूषण पं. दलसुखभाई मालवणिया व सौहार्द सौजन्य एवं संयम की मूर्ति श्रद्धेय डा. भायाणीजी हमेशा से मेरी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं, इसके लिये मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। परम पूज्य आचार्य श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी की प्रेरणा व सहयोग से. यह कार्य सम्पन्न हुआ, इसके लिये हृदय से उनका आभार मानती हूँ। डा. नवीनभाई शाह की हृदय से कृतज्ञता का अनुभव करती हूँ, जिन्होंने अपने परिष्कृत दृष्टिकोण से आवश्यकतानुसार हर समय मार्गदर्शन किया। तथा प्रस्तुत पुस्तक का 'आमुख' लिखा उसके लिये मैं आभारी हूँ। परमपूज्य आचार्यश्री विजय प्रद्युम्नसूरिजी की अत्यंत कृतज्ञ हूँ जिन्होंने अनेक कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी मेरी प्रार्थना पर प्रस्तुत ग्रंथ के लिये 'आशीर्वचन' लिख दिया इसके लिये हृदय से उनका आभार मानती हूँ। मैं अपने स्व. पूज्य पिताश्री एवं माताश्री की भी आभारी हूँ जिनका आशीर्वाद सदा अव्यक्त रूप से मेरे साथ रहता है। उन्हींकी प्रेरणा से आज मैं Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती की सेवा कर पा रही हूँ। लेखन कार्य की व्यस्तता के अवसर पर मेरे परिवार के सदस्यों का जो समय-समय पर सराहनीय प्रेरणा व सहयोग मिलता रहा उसे शब्दों में वर्णन करना मुश्किल है। ___ इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिये पार्श्व इन्टरनेशनल शैक्षणिक और शोधनिष्ठ प्रतिष्ठान (अहमदाबाद) प्रति मैं हार्दिक आभार प्रकट करती हूँ। क्रिश्ना ग्राफिक्स, अहमदाबाद को सुन्दर छपाई के लिए धन्यवाद देती डा. प्रीतम सिंघवी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका विषय प्रवेश प्रथम प्रकरण अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा अनेकान्त की खोज का उद्देश्य और उसके प्रकाशन की शर्ते। . द्वितीय प्रकरण • स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण • स्याद्वाद • सप्त-भंगी • स्याद्वाद के भंगों की विशेषता • नयवाद • प्रमाण तृतीय प्रकरण चार आधार, पांच कारण चार आधार : (i) द्रव्य (ii) क्षेत्र (iii) काल (iv) भाव २९ पांच कारण : (i) काल (ii) स्वभाव (iii) भवितव्यता अर्थात नियति (iv) कर्म अर्थात् प्रारब्ध (v) पुरुषार्थ ३२ चतुर्थ प्रकरण अनेकान्तवादः समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक पंचम प्रकरण वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध का विभज्यवाद - एक तुलना • विभज्यवाद • भगवान बुद्ध के अव्याकृत प्रश्न • लोक की नित्यानित्यता - सान्तानन्तता • जीव - शरीर का भेदाभेद • जीव की नित्यानित्यता • भ. बुद्ध का अनेकान्तवाद Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ७४ ७५ ७६ ७६ षष्ठ प्रकरण अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियां १. वैदिक दर्शन और स्याद्वाद (अ) सांख्ययोग और स्याद्वाद (ब) न्याय, वैशेषिक और स्याद्वाद (स) पूर्वमीमांसा दर्शन और स्याद्वाद (द) वेदान्त और स्याद्वाद (२) चार्वाक दर्शन और स्याद्वाद (३) पाश्चात्य दर्शन और स्याद्वाद • स्याद्वाद और समन्वय दृष्टि सप्तम प्रकरण अनेकान्तवाद : प्रमुख दार्शनिकों की आलोचनाओं का निराकरण अष्ठम प्रकरण अनेकान्तवाद का आधुनिक दार्शनिकों पर प्रभाव उपसंहार संदर्भ सूचि ७७ ७८ १०३ Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय प्रवेश सृष्टि के आरंभ से आजतक अनेक ऋषि महर्षियों ने तत्त्वज्ञान संबंधी अनेक प्रकार के नये-नये विचारों की खोज की, परन्तु हमारी दार्शनिक गुत्थियां आज भी पहले की तरह उलझी पड़ी हुई है । जगत में चारों ओर आज जो देखने को और जानने को मिलता है उसमें बहुत विरोधाभास है । क्या यह सब विरोधाभास असत्य हैं ? भ्रम हैं ? __ किसी एक को जो दीखता है, समझ में आता है वह दूसरे को नहीं दिखाई देता है, न ही समझ में आता है और तब क्या हम यह मानलें कि देखने वाले और नहीं देखने वाले, समझने वाले और नहीं समझने वाले, सभी लोग असत्य बोलते हैं ? उनके साथ बात करने पर मालूम होगा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को सच्चा और दूसरे को झूठा मानता है। ... आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान के बारे में भी कुछ ऐसा ही है। इसमें विभिन्न विचारधाराएं देखने को मिलती है । जब तक जगत का अस्तित्व है तब तक मतभेद तो रहेगा ही। आदिकाल से मतभेद चलते आरहे हैं और अंतकाल तक मतमतांतर रहने वाले हैं । मतमतांतर या विसंवाद के कारण ही इस विश्व का अस्तित्व गतिशील रहा है। यदि एकमतता याने संवादिता स्थापित हो जाय तो गति रुक जायेगी। इस विश्व में जीने का जो मजा है वह मतभेद के कारण ही है। मतभेद को रोकने का जो प्रबल पुरुषार्थ आदिकाल से महापुरुषों के हाथों से होता आया है, यह बात बडे गौरव की है। फिर भी हम देखते हैं कि मतभेद कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं। परन्तु, इससे निराश होने कि आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार मतभेद और मतमतांतर अनादि अंनत है। उसी प्रकार, सत्य क्या हैं ? यह जानने की मानव की जिज्ञासा भी आदिकाल से संचित है और अंतकाल तक जीवित रहेगी। सत्य की खोज की इच्छा जब तक मनुष्य के मन से लुप्त नहीं होगी तब तक उसका विकास रुकेगा नहीं । यह विश्व अनेक तत्त्वों की समन्विति है । वेदान्त दर्शन ने अद्वैत की स्थापना की पर द्वैत के बिना विश्व की व्याख्या नहीं की जा सकी तो उसे माया . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद की परिकल्पना करनी पड़ी। ब्रह्म को सामने रखकर विश्व के मूलस्रोत की और माया को सामने रखकर उसके विस्तार की व्याख्या की गई । सांख्य-दर्शन ने द्वैत के आधार पर विश्व की व्याख्या की। उसके अनुसार पुरुष चेतन और प्रकृति अचेतन है। दोनों वास्तविक तत्त्व है। विश्व की व्याख्या के ये दो मुख्य कोण है-अद्वैत और द्वैत । जो दार्शनिक विश्व के मूलस्रोत की खोज में चले, वे चलते-चलते चेतन तत्त्व तक पहुंचे और उन्होंने चेतन तत्त्व को विश्व के मूलस्रोत के रूप में प्रतिष्ठित किया। जिन दार्शनिकों को विश्व के मूलस्रोत की खोज वास्तविक नहीं लगी, उन्होंने उसके परिवर्तनों की खोज की और उन्होंने चेतन और अचेतन की स्वतंत्र सत्ता की स्थापना की। प्रत्येक दर्शन अपनी - अपनी धारा में चलता रहा और तर्क के अविरल प्रवाह से उसे विकसित करता रहा । इसका परिणाम यह हुआ कि दार्शनिक जगत में शान्ति का अभाव सा हो गया । पारस्परिक विरोध ही दर्शन का मूल था । हमें यह सोचना चाहिए कि सभी वाद एक दूसरे के विरोधी है, इसका कारण क्या है ? विचार करने पर मालूम पडता है कि इस विरोध के मूल में मिथ्या आग्रह है । यही आग्रह एकान्त आग्रह कहा जाता है। __ कोई महात्मा, पंडित, ज्ञानी व चिंतक आज अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर यदि एक नये सत्य या सिद्धांत का अनुसंधान कर पाता है तो वह सत्य उस क्षेत्र में उस काल में स्वीकार्य हो सकता है; परंतु वही अंतिम सत्य नहीं है। भगवान् महावीरने यह देखा कि जितने भी मत, पक्ष या दर्शन हैं वे अपना एक खास पक्ष स्थापित करते हैं और विपक्षका निरास करते हैं । भगवान् ने उन सभी तत्कालीन दार्शनिकों की दृष्टिओं को समझनेका प्रयत्न किया। और उनको प्रतीत हुआ कि नाना मनुष्यों के वस्तु दर्शनमें जो भेद हो जाता है उसका कारण केवल वस्तुकी अनेकरूपता या अनेकान्तात्मकता ही नहीं बल्कि नाना मनुष्यों के देखने के प्रकारकी अनेकता या नानारूपता भी कारण है । इसीलिये उन्होंने सभी मतोंकों, दर्शनोंको वस्तुरूपके दर्शनमें योग्य स्थान दिया है। किसी मतविशेष का सर्वथा निरास नहीं किया है। निरास यदि किया है तो इस अर्थमें कि जो एकान्त आग्रहका विष था, अपने ही पक्षको, अपने ही मत या दर्शनको Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय प्रवेश सत्य, और दूसरों के मत, दर्शन या पक्षको मिथ्या मानने का जो कदाग्रह था, उसका निरास करके उन मतों को एक नयारूप दिया है । प्रत्येक मतवादी कदाग्रही हो कर. दूसरे के मतको मिथ्या बताते थे, वे समन्वय न कर सकने के कारण एकान्तवाद में ही फसते थे। भ. महावीरने उन्हींके मतों को स्वीकार करके उनमें से कदाग्रह का विष निकालकर सभी का समन्वय करके अनेकान्तवादरूपी संजीवनी महौषधिका निर्माण किया है। दार्शनिक दृष्टिकोण संकुचित न होकर विशाल होना चाहिए । जितने भी धर्म वस्तु में प्रतिभासित होते हो, उन सबका समावेश उस दृष्टि में होना चाहिए । यह ठीक है कि हमारा दृष्टिकोण किसी समय किसी एक धर्म पर विशेष भार देता है, किसी समय किसी दूसरे धर्म पर । इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता है कि वस्तु में अमुक धर्म है और कोई धर्म नहीं। वस्तु का पूर्ण विश्लेषण करने पर प्रतीत होगा कि वास्तव में हम जिन धर्मों का निषेध करना चाहते हैं वे सब धर्म वस्तु में विद्यमान है। इसी दृष्टिको सामने रखते हुए वस्तु अनन्तधर्मात्मक कही जाती है। वस्तु स्वभाव से ही ऐसी है कि उसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है और अनेक दृष्टियों से विचार करने पर ही वस्तु के यथार्थ ज्ञान या पूर्णज्ञान की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। इस दृष्टि का नाम ही अनेकान्तवाद है। सत्रहवीं सदी में पाश्चात्य राष्ट्रों में लीबनट्स नामक विचारक ने भी अनेकांतवाद से ही मिलता-जुलता अभिमत प्रस्तुत किया तो सब चकित रह गये । उसका कथन यों था- "इस दुनिया में जो जड़ है वह कदापि सत्य नहीं हो सकता विश्व तो चेतनामय है । यहाँ अनेक चेतनायुक्त प्राणी है । चेतनायुक्त जीवों से जो कुछ भी किया जाता है वही सत्य है। परंतु संपूर्ण चेतनामय स्थिति में जो आत्मा है वही परमात्मा है । और उसी परमात्मा से इस विश्व में सामरस्य की स्थापना हुई है ।' उनीसवीं शताब्दी में यूरोप में मैक्सगर्ट नामक चिंतक ने भी गहन चिंतन के बाद अनेकांतवाद की प्रतिपादना की। उसने अपने इस अभिप्राय का समर्थन करते हुए कहा- "इस विश्व में जितनी भी वस्तुएँ हैं वे सब इस विश्व के ही अंग है । इस विश्व का सत्य भावनाप्रधान तथा चेतनामय है।" ___ 'मैक्सगर्ट" तो एक वैज्ञानिक (साइंटिस्ट) था। अतः उसने जो कुछ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद कहा वह अतीव ताकिक एवं आधारपूर्ण था । वैज्ञानिकता की पृष्ठभूमि में उसने गंभीर चितन व मनन करने के बाद यह उदघोषित किया इस विश्व में अनेकता ही अधिक वास्तविक है । एकांगी दृष्टिकोण से दुराग्रह करना नितांत मूर्खता का काम है । इस विश्व में आत्मा तो अनादि एवं अनंत है।" पाश्चात्य राष्ट्रों मे विज्ञान के प्राबल्य के अहंकार से चलनेवाले गर्विष्ठ विद्वानों को लताडते हुए 'जेम्स काड' नामक एक मनःशास्त्रज्ञने जो कुछ कहा वह आज भी विचारणीय है। उनका अभिमत था- 'आधुनिक विज्ञान अपने वैज्ञानिक साधनों एवं उपकरणों की सहायता से अनुसंधान करके जिस सत्य का प्रतिपादन करता है वह तो केवल तात्कालिक सत्य है, न कि चरम सत्य। वैज्ञानिक लोक में जो कछ भी सत्य निरूपण होता है वह तो सत्य का एकांगी स्वरूप है, न तो पूर्ण-सत्य को वे जानते हैं, न बता भी पाते हैं।' टाल्सटाय ने कहीं कहा है कि जब मैं जवान था तो मैं सोचता था कि कंसिस्टेंट विचारक ही असली विचारक है, जो बिलकुल सुसंगत बात कहता है। एक चीज कहता है तो उसके विरोध में कभी दूसरी बात नहीं कहता । लेकिन अब जब मैं बूढा हो गया हूँ तो मैं जानता हूँ कि जो सुसंगत है, उसने. विचार ही नहीं किया। क्योंकि जिन्दगी सारे कंट्राडिक्सन से भरी है। जो विचार करेगा, उसके विचार में भी कंट्राडिक्शन आ जाएंगे- आ ही जाएंगे। वह ऐसा सत्य नहीं कह सकता, जो एकांगी, पूर्ण और दावेदार हो । उसके प्रत्येक सत्य की घोषणा में भी झिझक होगी। लेकिन झिझक उसके अज्ञान की सूचक बन जाएगी, जबकि झिझक उसके ज्ञान की सूचक है। अज्ञानी जितनी तीव्रता से दावा करता है, उतना ज्ञानी के लिए करना बहुत मुश्किल है। असल में अज्ञान सदा दावा करता है, दावा कर सकता है । क्योंकि समझ इतनी कम है, देखा इतना कम है, जाना इतना कम है , पहचाना इतना कम है, कि उस कम में वह व्यवस्था बना सकता है। लेकिन जिसने सारा जाना है, और जिन्दगी के सब स्वरूप देखे, उसे व्यवस्था बनानी मुश्किल हो जाती है। महावीर के अनेकान्त का यही अर्थ है कि कोई दृष्टि पूरी नहीं है, कोई Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय प्रवेश दृष्टि विरोधी नहीं है, सब दृष्टियाँ सहयोगी है और सब दृष्टियां किसी बडे सत्य में समाहित हो जाती है । और जो बडे सत्य को जानता है, जो विराट सत्य को जानता है-न वह किसीके पक्ष में होगा न वह किसीके विपक्ष में होगा । ऐसा व्यक्ति ही निष्पक्ष हो सकता है । यह बड़े मजे की बात है कि सिर्फ अनेकान्त की जिसकी दृष्टि हो, वही निष्पक्ष हो सकता है- समत्व प्राप्त कर सकता है । 'समता से तात्पर्य है मन की स्थिरता, रागद्वेष का उपशमन, समभाव अर्थात् सुख-दुःख में निश्चल रहना । राग-द्वेष के भावों से अपने आपको हटाकर स्व-स्वभाव में रमण करना वस्तुतः समत्व है । समता वस्तुतः परमात्मा का साक्षात् स्वरूप है । इसकी प्राप्ति भारतीय नैतिक साधना अथवा योग का मुख्य लक्ष्य है। राग-द्वेष आदि समस्त मानसिक विकारों तथा अन्तर्द्वन्द्वो से मुक्त होने पर ही मनुष्य को समत्व की प्राप्ति होती है। उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है । 'समत्व का आधार है शान्तरस । आध्यात्मिक शान्ति मानव हृदय के लिये सारभूत है । जीवन का कोई भी क्षण चाहे व सुख का हो अथवा दुःख का, आध्यात्मिक शान्ति की इच्छा किये बगैर नहीं गुजरता । शान्तरस की उत्पत्ति आत्मा की स्वतन्त्रता से होती है । इसका सम्बन्ध इच्छाओं के विनाश से होता है। ज्यों-ज्यों राग-द्वेष की आकुलता कम होती जाती है और ज्ञान का आलोक फैलता जाता है, त्यों त्यों अन्तः करण में शान्ति का विकास होता है । इस संसार में अनेक प्रकार के पुरुष हैं, जो वस्तु तत्त्व की यथार्थता को जानना चाहते हैं, वे सत् क्या है, असत् क्या है, धर्म क्या है, शील क्या है और शान्ति- अशान्ति क्या है ? इन विविध धर्मों का बोध करना चाहते हैं । अनेकान्त में यही तो है - शान्ति के साथ अशान्ति पर विचार करता है, सत् के साथ असत् पर विचार करता है और फिर संदेश देता है कि ज्ञान में शंकित न हो शान्ति या अशान्ति में धैर्य का परित्याग न करें । वे " अहानुइयाइ सुसिक्खज्जा" यथोक शिक्षण प्राप्त करें। फिर पालन करें ज्ञान का, ज्ञान के अर्थ का । क्योंकि " नाणं सया समणुवासिज्जासि" ( आचा. ६- १) ज्ञान पराक्रमी बनाता है, इसलिए उसकी आराधना करना चाहिए 1 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रकरण अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा अब अनेकान्त शब्द पर विचार करें । अनेकान्त शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, एक 'अनेक' शब्द, दूसरा 'अन्त' शब्द । अन्त शब्द की व्युत्पत्ति रत्नाकरावतारिका में इस प्रकार की गई है : "अम्यते' गम्यते- निश्चीयते इति अन्तः धर्मः। न एकः अनेकः अनेकश्चासौ अन्तश्च इति अनेकान्तः।" वस्तु में अनेक धर्मों के समूह को मानना अनेकान्त है। . अनेकान्त को स्याद्वाद भी कहा जाता है। "स्यात्" अनेकान्त द्योतक अव्यय है। वास्तव में अनेकान्त क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है :यदेव तत् तदेव अतत् , यदेवैकं तदेवानेकम् । यदेव सत् तदेवाअसत् यदेव नित्यं । तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादक परस्पर विरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।। जो वस्तु तत्त्वस्वरूप है वही अतत्त्वस्वरूप भी है । जो वस्तु एक है वही अनेक भी है, जो वस्तु सत् है वही असत् भी है । तथा जो वस्तु नित्य है वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तु के वस्तुत्व के कारणभूत परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन अनेकान्त है । और भी देखिए "सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणो नैकान्तः । -देवागम- अष्टशती कारिका । १०३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है, नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार सर्वथा एकान्त के निराकरण करने का नाम अनेकान्त है । इस प्रकार अनेकान्त में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले दो धर्म रहते हैं। अनेकान्त दर्शन से मनुष्य में सद्विचार का आविर्भाव होता है। और पूर्वाग्रह अथवा एकान्त हठवाद का अन्त हो जाता है । अनेकान्त दृष्टिमान् यह विचारता है कि पदार्थ में एक मात्र वही गुणधर्म नहीं है, जिसे मैं जानता हूँ, अपितु दूसरा व्यक्ति उसमें जिस अपर गुण की स्थिति बता रहा है, वह भी उसमें है। यह विचारों की प्रांजलता, दर्शन की व्यापकता तथा सहिष्णुता को प्रसारित कर समन्वय मार्ग को प्रशस्त करता है। जैन धर्म ने अनेकान्त दृष्टि से विश्व को देखा और स्याद्वाद की भाषा में उसकी व्याख्या की, इसलिए वह न अद्वैतवादी बना और न द्वैतवादी । उसकी धारा स्वतंत्र रही। फिर भी उसने दोनों कोणों का स्पर्श किया । अनेकान्त दृष्टि अनन्त नयों की समष्टि है। उसके अनुसार कोईभी एक नय पूर्ण सत्य नहीं है। और कोई भी नय असत्य नहीं है। वे सापेक्ष होकर सत्य होते हैं और निरपेक्ष होकर असत्य हो जाते हैं। हम संग्रहनय की दृष्टि से देखते हैं तब सम्पूर्ण विश्व अस्तित्त्व के महास्कंध में अवस्थित होकर एक हो जाता है। इस नय की सीमा में द्वैत नहीं होता, चेतन और अचेतन का भेद भी नहीं होता । द्रव्य और गुण तथा शाश्वत और परिवर्तन का भेद भी नहीं होता। सर्वत्र अद्वैत ही अद्वैत । यह विश्व को देखने का एक नय है। उसे देखने के दूसरे भी नय है। हम व्यवहारनय से देखते हैं तब विश्व अनेक खण्डों में दिखाई देता है । इस नय की सीमा में चेतन भी है अचेतन भी है । द्रव्य भी है और गुण भी है । शाश्वत भी है और परिवर्तन भी है । सत्य की व्याख्या किसी एक नय से नहीं हो सकती। वह अनन्तधर्मा है। उसकी व्याख्या अनन्त नयों से ही हो सकती है। हम कुछेक नयों को ही जान पाते हैं, फलतः सत्य के कुछेक धर्मों की ही व्याख्या कर पाते हैं । कोई भी शास्त्र सम्पूर्ण सत्य की व्याख्या नहीं कर पाता और कोई भी व्यक्ति शास्त्रीय आधार पर सम्पूर्ण सत्य को साक्षात् नहीं जान पाता । दर्शनों का यह अन्तर और मतवादों का भेद हमारे ज्ञान और प्रतिपादन शक्ति की अपूर्णता के कारण ही चल रहा है। यह भेद सत्य को विभक्त किए हुए है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद जितने दर्शन उतने ही सत्य के रूप बन गए हैं । जैन दर्शन का अध्ययन हमें सत्य की दिशा में आगे ले जाता है और दर्शन के आकाश में छाए हुए कुहासे में देखने की क्षमता देता है। द्रव्य के अनन्त धर्म हैं। कोई दर्शन किसी एक धर्म को मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है तो दूसरा दर्शन किसी दूसरे धर्म को मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है। दोनों की पृष्ठभूमि में एक ही द्रव्य है, किन्तु एकांगी प्रतिपादन के कारण वे विरोधी से प्रतीत होने लगते हैं । उनमें प्रतीत होने वाले विरोध का शमन अनेकान्त दृष्टि से ही किया जा सकता है। अनेकान्त के बिना अहिंसा की गहराई का स्पर्श कभी भी नहीं हो सकता। किसी व्यक्ति के विपरीत व्यवहार को देखकर अगर हमारे मन में उसके प्रति घृणा होती है, द्वेष होता है, तो वह घृणा और द्वेष संसार की वृद्धि के कारण हैं। हिंसा की जड में ही राग, द्वेष, ईर्ष्या और माया हैं । अहिंसा का मुल उदगम समत्व से होता है, और समत्व ही अनेकान्त का हृदय है। दूसरे शब्दों में अनेकान्त वैचारिक अहिंसा का विकसीत रूप है। पंडित सुखलालजीका कहना है कि "अनेकान्त दृष्टि सत्य पर खडी है। यद्यपि सभी महान पुरुष सत्य को पसन्द करते हैं और सत्य की खोज तथा सत्य के ही निरूपण में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, तथापि सत्य के निरूपण की पद्धति और सत्य की खोज सबकी एक-सी नहीं होती। बुद्धदेव जिस शैली से सत्य का निरूपण करते हैं या शंकराचार्य उपनिषदों के आधार पर जिस ढंग से सत्य का प्रकाशन करते हैं उनसे महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली जुदा है। महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली का ही दूसरा नाम "अनेकान्तवाद" है । उसके मूल में दो तत्त्व है- पूर्णता और यथार्थता । जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप से प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता है ।"५ अनेकान्त का उद्भव अनेकान्त के उद्भव का जैन दर्शन से सम्बन्धित आगमिक स्वरूप से हम परिचय करें । जैन आगम में भी और गीता में भी यह कहा गया है कि जब जब धर्म का नाश होता है और अधर्म बढ जाता है । तब महापुरुष का Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा अवतार होता है । इस उक्ति के अनुसार पृथ्वी पर जब बहुत अधर्म बढ जाता है और धर्म का नाश हो जाता है तब अधर्म का नाश करने के लिए तथा धर्म की वृद्धि करने के लिए महापुरुषों का अवतार हुआ करता है । इस अनादि नियम के अनुसार प्रत्येक काल में २४ तीर्थकर उत्पन्न होते हैं । तीर्थंकर याने धर्म की स्थापना करके तीर्थ याने संघ को प्रवृत्त करने वाले महापुरुष । इस काल (युग) में भी २४ तीर्थंकर हुए हैं और उन्होंने धर्म की स्थापना की है। यहाँ यह बात भी देखने की है कि इन २४ तीर्थकरों में से कइयों के नाम वैदिक धर्म के २४ अवतारों में परिगणित हैं, उनके नाम वेदों में भी उल्लिखित . जन्म के बाद तीर्थंकर यौवन में पदार्पण करते हैं, उन्हें वैराग्य आता है और वे संसार को छोड़कर दीक्षा याने सन्यास ले लेते हैं। कठोर तप, साधना एवं ध्यान के द्वारा अपने शुभ एवं अशुभ कर्मों का विनाश कर वे अपने आत्म स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं । इसको जैन दर्शन मे केवलज्ञान होना कहते हैं। केवलज्ञान याने सर्वज्ञता की स्थिति । उन्हें संसार की सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु का हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष ज्ञान होने लगता है। केवल ज्ञान, यह अन्य वस्तु नहीं, जिसकी प्राप्ति तीर्थंकर को होती है यह तो आत्मा का स्वरूप ही है । जैनदर्शन में आत्मा सच्चिदानंदमय माना जाता है। आत्मा में अनंत ज्ञान एवं अनंत आनन्द है, वह उसका स्वरूप ही है। मतलब यह कि उन्हें अपने पूर्ण आत्म स्वरूप की अभिव्यक्ति हो जाती है। तब वे सत्य के प्रचार के लिए उपदेश देना प्रारम्भ करते हैं। प्रथम उपदेश में उनके शिष्य बनते हैं। शिष्य पूछते हैं कि तत्त्व क्या है ? तीर्थंकर का प्रथम वाक्य यह रहता है - 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा', यह तीर्थंकर का त्रिपदी रूप उपदेश है । इस त्रिपदी से शास्त्रों की रचना होती है। सबके मूल में यह त्रिपदी है। इसका अर्थ है- 'उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और ध्रुव है याने नित्य है' इसमे प्रत्येक वस्तु को त्रिलक्षण परिणाम रूप बतलाया । प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और उसमें स्थिर एवं नित्य तत्त्व है। यह विलक्षण परिणामवाद कहा जाता है। यह त्रिपदी अनेकान्तवाद की विचार पद्धति का सार तत्त्व है । अनेकान्त, स्याद्वाद एवं नयवाद विषयक विपुल साहित्य इसी का विस्तार है । यह त्रिपदी ही तीर्थकर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद द्वारा बोया बीज है, उसी से विकसित यह अनेकान्त का वटवृक्ष है । त्रिपदी ही वह नींव है, जिस पर बाद के आचार्यों ने जैन दर्शन का भव्य प्रासाद निर्मित किया जिसके आधारभूत विशाल स्तम्भ है - उत्पादादि त्रिलक्षण परिणामवाद, अनेकान्त दृष्टि, स्याद्वाद भाषा और आत्म द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता । अनेकान्त के उद्भव के दो आधार हैं, इतिहास और परम्परा | परम्परा की दृष्टि से इस युग में अनेकान्त के उद्भावक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं 1 सर्व प्रथम यह उपदेश ऋषभदेव ने दिया ।११ अतः अनेकान्त का उद्भव इस युग के प्रारम्भकाल में हुआ । ऐतिहासिक दृष्टि से अनेकान्त का उद्भव तैंतीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के द्वारा हुआ ।१२ उनके २५० वर्ष के बाद महावीर अनेकान्त के प्रवर्तक हुए । इस युग के अंतिम तीर्थंकर महावीर हैं। महावीर का भी प्रथम उपदेश त्रिपदी रूप से ही हुआ है 1 किसी परम्परागत मान्यता के सम्मुख नतमस्तक न होकर स्वतंत्र दृष्टिसे वस्तु को देखने की तथा उसके संबंध में अन्यान्य मतवादों के मर्म को निष्पक्ष भाव से समझने और उन्हें उचित मान्यता प्रदान करने की प्रवृत्ति ही अनेकान्त की जन्मस्थली है । विभिन्न दर्शनों से दृष्ट सत्यों में एक रूपता लाने, उनमें समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने तथा दुराग्रह एवं अभिनिविष्ट वृत्ति को छोड़कर निर्मल और तटस्थ भाव से सत्य की खोज करने के प्रयत्न ही अनेकान्त उद्भव के हेतु हैं । यहाँ आचार्य हरिभद्र का श्लोक ध्यान देने योग्य है : I के " आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥१३ अनाग्रही एवं समभाव वाला व्यक्ति नितान्त निष्पक्ष दृष्टिसे वस्तु को देखने का प्रयत्न करता है । वह वस्तु के कतिपय अंशों को ही देखकर अपने को कृतकृत्य नहीं मानता, किन्तु वह वस्तु के समग्र स्वरूप का आकलन करने का प्रयास करता है । उसकी दृष्टि वस्तु के किसी आंशिक सौन्दर्य से चकित हो पथभ्रष्ट नहीं होती, किन्तु उसके सम्पूर्ण स्वरूप को देखने के लिए आकुल रहती है । इस वृत्ति का प्रतिफल ही अनेकान्त का उद्भव है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा I 1 अनेकान्त केवल ज्ञानजन्य अनुभूति है । उसी अनुभूति का वचन द्वारा प्रकाशन स्याद्वाद है। यही कारण है कि भगवद्वाणी स्याद्वादमयी होती है ।१४ अतः स्याद्वाद का जन्म भगवान अर्हन्त देव की दिव्य भाषा के साथ है । इस युग के आदि तीर्थंकर ऋषभ देव हैं । इसलिए उनको ही स्याद्वाद का आदि प्रवर्तक कहा जा सकता है । भगवान् ऋषभ के अनन्तर बाईस तीर्थंकर उसी प्रकार का उपदेश अपनी स्याद्वादमयी वाणी द्वारा करते रहे हैं । १५ वर्तमान समय के तीर्थंकर भगवान् महावीर हैं। भगवान महावीर की प्रतिष्ठा और सिद्धान्त बौद्ध त्रिपिटकादि ग्रंथों द्वारा सिद्ध है । इस समय वे ही स्याद्वाद - सिद्धान्त के पुरस्कर्ता कहे जाते हैं । कहा जाता है कि उनके ही समकालीन संजय वेलत्थपुत्त ने इस सिद्धान्त का अज्ञानवाद के रूप में प्रतिपादन किया था । उसीको भगवान महावीर ने परिवर्धित और परिष्कृत किया, अथवा उत्तर काल में जिस वस्तु को माध्यमिकों ने चतुष्कोटि विनिर्मुक्त कहा" उसीको भगवान महावीर ने विधि रूप देकर परिपुष्ट किया । ऐतिहासिक पंडितों की ये परिकल्पनाएं इसलिये निराधार हैं कि जैन तीर्थंकरों ने अनेकान्त तत्त्व का साक्षात्कार किया और श्रुत- केवलियों ने उनके अर्थ को अनुश्रुत करके स्याद्वाद का श्रुत के रूप में वर्णन किया। इसके अतिरिक्त निषेध सदा विधिपूर्वक" होता है, अत: उनके प्रतिष्ठापक अर्हन्त - केवली, श्रुत-केवली आदि ही हैं, साधारण व्यक्ति नहीं । अन्य आरांतिआदिकों ने उन्हीं का अनुसरण किया है । स्याद्वाद का स्पष्ट उल्लेख समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक आदि के ग्रंथों में हैं । स्यादवाद की मुख्य प्रतिष्ठा का श्रेय समन्तभद्र को है । सिद्धसेन ने भी इसकी परिपुष्टि में अच्छा भाग लिया है । अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्द, हेमचन्द्र, आदि ने इसके विकास में चार चाँद लगा दिये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने सप्तभंगी का उल्लेख किया है, स्याद्वाद का नहीं । जो कुछ भी हो, स्याद्वाद जैन दर्शन के तत्त्वों का वर्णन करने में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुआ है । I ११ अनेकान्त के उद्भव कर्ताओं ने यह अच्छी तरह अनुभव किया था कि जीवन-तत्त्व अपने में पूर्ण होते हुए भी वह कई अंशों की अखण्ड समष्टि है। यही स्थिति प्रत्येक वस्तु तत्त्व की भी है । अतः वस्तु को समझने के लिए अंश का समझना भी आवश्यक है। किसी मशीन को पूर्ण रूप से समझने के लिये उसके पुर्जों का समझना भी जरूरी है । यदि हम अंश को समझने Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद में आनाकानी करते रहें या उसकी उपेक्षा करते रहें तो हम अंशवान् याने वस्तुतत्त्व को उसके सर्वांग - संपूर्ण रूप में नहीं समझ सकेंगे । साधारणतया समाज में जो झगडा या वादविवाद होता है, वह दुराग्रह, हठवादिता और एक पक्ष पर अड़े रहने के कारण होता है। यदि हम सत्य की जिज्ञासा से उसके समस्त पहलुओं को अच्छी तरह देख लें तो कहीं न कहीं सत्य का अंश निकल आएगा। एक ही वस्तु या विचार को एक तरफ से न देखकर उसे चारों ओर से देख लिया जाय, फिर किसी को एतराज भी न रहेगा । इस दृष्टिकोण को ही महावीर ने अनेकान्तवाद या स्याद्वाद कहा। आइन्स्टीन का सापेक्षवाद, और भगवान बुद्ध का विभज्यवाद इसी भूमिका पर खड़ा है ।" अनेकान्तवाद इन दोनों का व्यापक या विकसित रूप है। इस भूमिका पर ही आगे चलकर सगुण और निर्गुण के वाद-विवाद को, ज्ञान और भक्ति के झगड़े को सुलझाया गया। आचार में अहिंसा की और विचार में अनेकान्त की प्रतिष्ठा कर महावीर ने अपनी दृष्टि को व्यापकता प्रदान की । अनेकान्त की मर्यादा अनेकान्त और स्याद्वाद का प्रयोग करते समय यह जागरूकता रखना. बहुत आवश्यक है कि हम जिन परस्पर विरोधी धर्मों की सत्ता वस्तु में प्रतिपादित करते हैं, उनकी सत्ता वस्तु में संभावित है भी या नहीं । अन्यथा कहीं हम ऐसा न कहने लगें कि कदाचित् जीव चेतन है, और कदाचित् अचेतन भी । अचेतनत्व की जीव में संभावना नहीं है । अतः यहाँ अनेकान्त बताते समय अस्ति और नास्ति के रूप में घटाना चाहिए। जैसे जीवन चेतन ही है, अचेतन नहीं । वस्तुतः चेतनत्व और अचेतनत्व तो परस्पर विरोधी धर्म हैं और नित्यत्व-अनित्यत्व परस्पर विरोधी नहीं, विरोधी-से प्रतीत होने वाले धर्म हैं । वे परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं परन्तु है नहीं। उनकी सत्ता द्रव्य में एक साथ पाई जाती है । अनेकान्त परस्पर विरोधी से प्रतीत होने वाले धर्मो का प्रकाशन करता है । हम ऊपर के प्रकरण में बता चुके हैं कि वस्तुस्थिति को देखकर अनेकान्त का उद्भव हुआ है । वस्तु का जैसा रूप - स्वरूप है उसको पूर्ण व यथार्थ रूप से देखने के लिए अनेकान्तवाद आया है। अर्थात् वस्तु का स्वरूप Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा १३ मुख्य है । जैसा वस्तु का स्वरूप है, वैसा ही तो हम अनेकान्त दृष्टि से देख सकते हैं । अनेकान्त को प्रयुक्त करने में हम इतने विवेकहीन न हो जायें कि वस्तु-स्वरूप के विरुद्ध ही कहने लग जायें । यह अनेकान्तवाद का दुरूपयोग है । अतः वस्तु - स्वरूप की स्थिति के अनुसार बहुत जागरुकता के साथ अनेकान्त को लागू किया जाय । महावीर का स्याद्वाद रूपी नयचक्र अत्यन्त पैनी धार वाला है । इसे अत्यन्त सावधानी से चलाना चाहिए। अन्यथा धारण करने वाले का ही मस्तक भंग हो सकता है |२० अनेकान्त की खोज का उद्देश्य और उसके प्रकाशन की शर्ते 1 वस्तु का पूर्ण रूप में त्रिकालाबाधित - यथार्थ दर्शन होना कठिन है, किसी को वह हो भी जाय तथापि उसकी उसी रूप में शब्दों के द्वारा ठीकठीक कथन करना उस सत्यदृष्टा और सत्यवादी के लिए भी बडा कठिन है कोई उस कठिन काम को किसी अंश में करने वाले निकल भी आएं तो भी देश, काल, परिस्थिति, भाषा और शैली आदि के अनिवार्य भेद के कारण उन सबके कथन में कुछ न कुछ विरोध या भेद का दिखाई देना अनिवार्य है । यह तो हुई उन पूर्णदर्शी और सत्यवादी इने-गिने मनुष्यों की बात, जिन्हें हम सिर्फ कल्पना या अनुमान से समझ या मान सकते हैं । हमारा अनुभव तो साधारण मनुष्यों तक परिमित है और वह कहता है कि साधारण मनुष्यों में भी बहुत से यथार्थवादी होकर भी अपूर्णदर्शी होते हैं। ऐसी स्थिति में यथार्थवादिता होने पर भी अपूर्ण दर्शन के कारण और उसे प्रकाशित करने की अपूर्ण सामग्री के कारण सत्यप्रिय मनुष्यों की भी समझ में कभी-कभी भेद आ जाता है । और संस्कार भेद उनमें और भी पारस्परिक टक्कर पैदा कर देता है। इस तरह पूर्णदर्शी और अपूर्णदर्शी सभी सत्यवादियों के द्वारा अन्त में भेद और विरोध की सामग्री आप ही आप प्रस्तुत हो जाती है । या दूसरे लोग उनसे ऐसी सामग्री पैदा कर लेते हैं । ऐसी वस्तुस्थिति देखकर भगवान् महावीर ने सोचा कि ऐसा कौनसा रास्ता निकाला जाए जिससे वस्तु का पूर्ण या अपूर्ण सत्यदर्शन करनेवाले के साथ अन्याय न हो | अपूर्ण और अपने से विरोधी होकर भी यदि दूसरे का दर्शन सत्य है, इसी तरह अपूर्ण और दूसरे से विरोधी होकर भी यदि अपना Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद दर्शन सत्य है तो दोनों को ही न्याय मिले इसका क्या उपाय है ? इसी चिन्तन प्रधान तपस्या ने भगवान को अनेकान्त दृष्टि सुझाई, उनका सत्य संशोधन का संकल्प सिद्ध हुआ। उन्होंने उस मिली हुई अनेकान्त दृष्टि की चाबी से वैयक्तिक और सामाष्टिक जीवन की व्यावहारिक और पारमार्थिक समस्याओं के ताले खोल दिये और समाधान प्राप्त किया । तब उन्होंने जीवनोपयोगी विचार और आचार का निर्माण करते समय उस अनेकान्त-दृष्टि को निम्नलिखित मुख्य शर्तों पर प्रकाशित किया और उसके अनुसरण का अपने जीवन द्वारा उन्हीं शर्तो पर उपदेश दिया । वे शर्ते इस प्रकार है : राग और द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत न होना अर्थात् तेजस्वी मध्यस्थ भाव रखना । जब तक मध्यस्थ भाव का पूर्ण विकास न हो तब तक उस लक्ष्य की ओर ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा रखना। कैसे भी विरोधी भासमान पक्ष से न घबराना और अपने पक्ष की तरह उस पक्ष पर भी आदरपूर्वक विचार करना तथा अपने पक्ष पर भी विरोधी पक्ष की तरह तीव्र समालोचक दृष्टि रखना। अपने तथा दूसरों के अनुभवों में से जो-जो अंश ठीक जचे, चाहे वे विरोधी ही प्रतीतं क्यों न हों, उन सबका विवेक -प्रज्ञा से समन्वय करने की उदारता का अभ्यास करना और अनुभव बढने पर पूर्व के समन्वय में जहाँ गलती मालूम हो वहाँ मिथ्याभिमान छोड़ कर सुधार करना और इसी क्रम से आगे बढना । पादटीप: १. "अम् गत्यादिषु" भ्वादिगणं । २. रत्नाकरावतारिका पृ. ८९। ३. अष्टसहस्री, पृ.२८६ । आत्ममीमांसा, श्लोक १०३ । पंचास्तिकाय गाथा १५ । अमतृचन्द्रसूरि की टीका पृ. ३० । ४. समयसार १०/२४७. आत्मख्याति । ५. दर्शन और चिन्तन : पं. सुखलालजी । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का अर्थ, उसका उद्भव तथा मर्यादा ६. 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। -गीता ४/७ ७. जैन शास्त्रों में काल दो प्रकार के होते हैं - उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। ८. ऋषभदेव के विषय में - ऋग्वेद १०/११/१४, १.१.२, ४५, ३, ८, ४३, १२ । वैदिक इन्डेक्स भाग १, पृ. १२९ नेमि के विषय में - ऋग्वेद १, ३२, १५; १४१, ९, २; २, ५, ३, ५, १३, ६; वैदिक इन्डेक्स भाग १, पृ. ५१८ । ९. ठानांगसुत्तम्, स्थान १० षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. ३४७ । १०. श्रमण संस्कृति का विकास एवं विस्तार-डा. पुष्पमित्र (अमर भारती, मार्च-एप्रिल, १९७१)। ११. भारतीय दर्शन (बलदेव उपाध्याय) पृ. ९१ १२. पार्श्वनाथ के चतुर्याम (धर्मानन्द कौशांबी) पृ. १४ १३. न्यायखण्डनखाद्य की भूमिका से उद्धृत । १४. . स्याद्वाद भगवतप्रवचननय-न्याय विनिश्चय विवरण, पृ. ३६४ १५. सव्वे तित्थयरा एवमेव सच्चं भासयन्ति- 'आचारांगसूत्र- कल्पसूत्र' । १६. अत्थीति न भणामि णत्थीति न भणामि इत्यादि। १७. माध्यमिक कारिका - नागार्जुन । १८. विधिपूर्वकत्वान्निषेधस्य । 88. Pandit Dalsukhbhai Malvania has shown with considerable care how what was known as the Vibhajya -vāda in the later part of the Sarmana movement in India culminated in the Anekānta-vāda of Mahavira. -Sāntisūri Nyāyāvatār Vārttikavrtti. (Bombay : Bhāratiya vidyā Bhavan) २०. पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक ५९ (अमृतचन्द्र सूरि) । 'अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खंडयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् ।' २१. दर्शन और चिन्तन : पं. सुखलालजी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रकरण स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण स्याद्वाद प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी गुणधर्मों से युक्त है तथा ऐसे तत्त्वों को अनेकान्त दृष्टिकोण से देखने पर ही उनका वास्तविक ज्ञान होता है। इस ज्ञान को हम अच्छी तरह से प्राप्त कर सकें तथा उसका स्पष्ट रूप से दर्शन हो सके इसके लिये कोई गणित या पद्धति हमारे पास हो तो वह काफी उपयोगी सिद्ध हो सकती है । इसके जानने के लिए जैन दार्शनिकों ने स्याद्वाद नाम की पद्धति बताई है। अनेकान्तदृष्टि से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी अनन्त गुण होते हैं । इस बात को युक्तिपूर्ण व तर्क के साथ प्रस्तुत करने की पद्धति स्याद्वाद बताता है । स्याद्वाद, अनेकान्तवाद अथवा अपेक्षावाद (सापेक्षवाद) के नाम से भी जाना जाता है। सामान्य दृष्टि से स्याद्वाद और अनेकान्तवाद एक जैसे ही लगते हैं परन्तु दोनों को यदि स्पष्ट रूप से समझा जाय तो मालुम होगा कि अनेकान्तवाद के तत्त्वज्ञान को प्रस्तुत करने कि पद्धति 'स्याद्वाद' है। स्याद्वाद भाषा की निर्दोष पद्धति है। स्याद्वाद एक भाषा प्रयोग है, जिसमें अपना दृष्टिकोण बताते हुए भी अन्य दृष्टिकोणों के अस्तित्व की स्वीकृति रहती है। जब पदार्थ अनन्त धर्म वाला है, तब एक धर्म का कथन करने वाली भाषा, एकांश में तो सत्य हो सकती है, साँश में नहीं \ अपने दृष्टिकोण के सिवाय अन्य दृष्टिकोणों की स्वीकृति 'स्यात्' शब्द देता है । 'स्यात्' शब्द कहता है ___ "वस्तु का वही रूप नहीं है, जो आप कह रहे हैं । वस्तु के अनन्त रूप है। वस्तु के जिस धर्म का आप कथन कर रहे हैं , उसके अतिरिक्त भी वस्तु में बहुत-से धर्म है, उनके अस्तित्त्व की सूचना ही मैं आपको कर Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण रहा हूँ।" . 'स्यात्' शब्द का अर्थ-न सम्भावना है, और न शायद ही है। परन्तु उसका अर्थ है - एक निश्चित दृष्टिकोण । स्याद्वाद के मर्म को जानने वाला कभी भी वस्तु-स्वरूप के प्रति अन्याय नहीं करता । स्याद्वाद, भाषा में नम्रता और सहिष्णुता को लेकर ही वस्तु स्वरूप का कथन करता है । स्याद्वाद रहस्यविद आचार्यों ने स्याद्वाद की परिभाषा इन शब्दों में की है - "अपने अथवा दूसरे के विचारों, मन्तव्यों, वचनों तथा कार्य में तन्मूलक विभिन्न अपेक्षा या दृष्टिकोण का ध्यान रखना ही 'स्याद्वाद' है । इस परिभाषा को और अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं "जिस प्रकार ग्वालिन मंथन करने की रस्सी के दो छोरों में से कभी एक को और कभी दूसरे को खींचती है, उसी प्रकार अनेकान्त-पद्धति भी कभी वस्तु के एक धर्म को मुख्यता देती है, और कभी दूसरे धर्म को ।' स्याद्वाद को दार्शनिक परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है - 'प्रत्यक्षादिप्रमाणाविरुद्धानेकात्मकवस्तु-प्रतिपादकः श्रुतस्कन्धात्मकः स्याद्वादः । "स्याद्" शब्द का अर्थ समझने में कई लोग धोखा खाजाते हैं । कोई इसका अर्थ 'संशय' करता है, तो दूसरा इसका अर्थ 'संभवितता' करता है तथा किसी ने 'कथचिंत्' अर्थ में प्रयुक्त किया है । ये सभी अर्थ गलत है। जैन दर्शन का विरोध करने वाले इस प्रकार का गलत अर्थ निकालकर इस महान तत्त्वज्ञान की यथार्थता के विषय में संशय खडा करने का प्रयत्न करते हैं । कम समझ के कारण या तलस्पर्शी ज्ञान के अभाव में अथवा आलस्य और अनिच्छा के कारण इस प्रकार का गलत अर्थ निकाल कर बैठ जाते हैं । जैन तत्त्ववेताओं ने जिस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया है वो समझने के लिये अंदर तक जाने की अनिच्छा रखने वाले इस से उलझन या तकलीफ अनुभव करते हैं। जो समझना नही चाहते वे अपने निकाले हुए अर्थ पर अडिग रहते हैं । फलस्वरूप नुकसान उन्हें ही होता है क्योंकि वे लोग आत्मविकास के एक अनोखे और सबल साधन से वंचित रह जाते हैं। गुजरात के प्रसिद्ध विद्वान Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद I स्व. आनंदशंकर ध्रुव ने अपने एक व्याख्यान में स्याद्वाद सिद्धान्त के बारे में कहा था कि "स्याद्वाद" एकीकरण का बिन्दु हमारे समक्ष खडा करता है शंकराचार्य ने 'स्याद्वाद' के बारे में जो आक्षेप किया है वह मूल रहस्य के साथ संबंध नहीं रखता है | यह निश्चित है कि विविध दृष्टिबिन्दुओं से निरीक्षण किये बिना कोई भी वस्तु, सम्पूर्ण रूप से समझ में नहीं आ सकती। इसके लिये "स्याद्वाद उपयोगी और सार्थक है । महावीर के सिद्धान्त में बताये गये' स्याद्वाद को कई लोग 'संशयवाद' कहते हैं, इस बात से मैं सहमत नहीं हूँ। स्याद्वाद संशयवाद नहीं है किन्तु वह हमें एक दृष्टिबिन्दु दिखाता है- विश्व अवलोकन किस प्रकार करना चाहिये, यह हमें सिखाता है । " स्याद्वाद यही प्रतिपादन करता है, कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता, वह पदार्थों की अमुक अपेक्षा को लेकर ही होता है, इसलिये हमारा ज्ञान आपेक्षिक सत्य है । प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं । इन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में कुछ धर्मों का ही ज्ञान कर सकते हैं, और दूसरों को भी कुछ धर्मों का ही प्रतिपादन कर सकते हैं । जैन तत्त्ववेताओं का कथन हैं, कि जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथी के भिन्न भिन्न अवयवों को हाथ से टटोलकर हाथी के उन भिन्न भिन्न अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझ कर परस्पर लडते हैं, ठीक इसी प्रकार संसार का प्रत्येक दार्शनिक सत्य के केवल अंशमात्र को ही जानता है, और सत्य के इस अंशमात्र को सम्पूर्ण सत्य समझ कर परस्पर विवाद और वितण्डा खडा करता है । सचमुच यदि संसार के दार्शनिक अपने एकान्त आग्रह को छोडकर अनेकान्त अथवा स्याद्वाद दृष्टि से काम लेने लगें, तो हमारे जीवन के बहुत से प्रश्न सहज में ही हल हो सकते हैं । वास्तव में सत्य एक है, केवल सत्य की प्राप्ति के मार्ग जुदा जुदा हैं 1 अल्प शक्तिवाले छद्मस्थ जीव इस सत्य का पूर्ण रूप से ज्ञान करने में असमर्थ हैं, इस लिये उनका सम्पूर्ण ज्ञान आपेक्षिक सत्य ही कहा जाता है । यही जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि का गूढ रहस्य है । 1 यहाँ एक शंका हो सकती है, कि इस सिद्धान्त के अनुसार हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्य का ही ज्ञान हो सकता है, स्याद्वाद से हम पूर्ण सत्य नहीं जान सकते । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है, कि स्याद्वाद हमें Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण अर्ध-सत्यों के पास ले जाकर पटक देता है, और इन्हीं अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य मान लेने की प्रेरणा करता है । परन्तु केवल निश्चित-अनिश्चित अर्धसत्यों को मिलाकर एक साथ रख देने से वह पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता। तथा किसी न किसी रूप में पूर्ण सत्य को माने बिना कोई भी दर्शन पूर्ण कहे जाने का अधिकारी नहीं है । इस भाव को भारत के प्रसिद्ध विचारक विद्वान प्रो. राधाक्रिश्नन् ने निम्न प्रकार से उपस्थित किया है - · The Theory of Relativity cannot be logically sustained without the hypothesis of an absolute .... The Jains admit that things are one in their universal aspect (Jāti or Kārana) and many in their particular aspect (Vyakti or Kārya). Both these, according to them, are partial points of view. A plurality of reals is admittedly a relative truth. We must rise to the complete point of view and look at the whole with all the wealth of its attitudes, If Jainism stops short with plurality, which is at best a relative and partial truth, and does not ask whether there is any higher truth pointing to a one which particularises itself in the objects of the world, connected with one another, vitally, essentially and immanently, it throws overboard its own logic and exalts a relative truth into an absolute one.3 इस शंका का समाधान बहुत स्पष्ट है, और वह यह है, जैसा कि ऊपर बताया गया है, कि स्याद्वाद पदार्थों के जानने की एक दृष्टि मात्र है। स्याद्वाद स्वयं अंतिम सत्य नहीं है। यह हमें अन्तिम सत्य तक पहुंचाने के लिये केवल मार्गदर्शक का काम करता है । स्याद्वाद से केवल व्यवहार सत्य के जानने में उपस्थित होने वाले विरोधों का ही समन्वय किया जा सकता है, इसीलिये जैन दर्शनकारों ने स्याद्वाद को व्यवहार सत्य माना है। व्यवहार सत्य के आगे भी जैन सिद्धान्त में निरपेक्ष सत्य माना गया है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों में केवलज्ञान के नाम से कहा जाता है । स्याद्वाद में सम्पूर्ण पदार्थों का क्रमक्रम से ज्ञान होता है, परन्तु केवलज्ञान सत्यप्राप्ति की वह उत्कृष्ट दशा है, जिसमें सम्पूर्ण पदार्थ और उन पदार्थों की अनन्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान होता है। स्याद्वाद परोक्षज्ञान श्रुतज्ञान में गर्भित होता है, इसलिये स्याद्वाद से केवल Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद इन्द्रियजन्य पदार्थ ही जाने जा सकते हैं, किन्तु केवलज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, इसलिये केवलज्ञान में भूत, भविष्य और वर्तमान सम्पूर्ण पदार्थ प्रतिभासित होते हैं । अतएव स्याद्वाद हमें केवल जैसे-तैसे अर्धसत्यों को ही पूर्णसत्य मान लेने के लिये बाध्य नहीं करता। किन्तु वह सत्य का दर्शन करने के लिये अनेक मार्गों की खोज करता है । स्याद्वाद का इतना ही कहना है, कि मनुष्य की शक्ति बहुत सीमित है, इसलिये वह आपेक्षिक सत्य को ही जान सकता है। पहले हमें व्यवहारिक विरोधों का समन्वय करके आपेक्षिक सत्य को प्राप्त करना चाहिये । आपेक्षिक सत्यके जानने के बाद हम पूर्णसत्य-केवलज्ञान-का. साक्षात्कार करने के अधिकारी हैं। सप्त-भंगी जैन-दर्शन में जितना महत्त्व स्याद्वाद का माना गया है, और बौद्धिक विश्लेषण के द्वारा पदार्थों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैसा उपयोग स्याद्वाद का किया जाता है, उतना ही महत्त्व और उपयोग सप्तभंगी का भी माना गया है । 'सप्त-भंगी' वह महान् सिद्धान्त है, जो वस्तु के धर्म पर अवलम्बित रहता है। अस्तु, किसी प्रश्न के उत्तर में या तो हम 'हाँ' बोलते है या 'नहीं'। इसी 'हाँ' और 'नहीं' के औचित्य को लेकर सप्त-भंगीवाद की रचना हुई है। सप्त-भंगों का सामान्य अर्थ है- 'वचन के सात प्रकारों का एक समुदाय' । किसी भी पदार्थ के लिए अपेक्षा के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए सात प्रकार से वचनों का प्रयोग किया जासकता है । वे सात वचन इस प्रकार हैं - २. नहीं है ३. है और नहीं है ४. कहा नहीं जा सकता ५. है, परन्तु कहा नहीं जा सकता ६. नहीं है, परन्तु कहा नहीं जा सकता . ७. है और नहीं है, परन्तु कहा नहीं जा सकता Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद, सप्त- भंगी, नयवाद, प्रमाण २१ परिभाषा - "प्रश्नवशादेकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधि- प्रतिषेध- - कल्पना सप्तभंगी ।" T. सप्तनयभंगी में कीसि प्रश्न को लेकर वस्तुओं में अवरोध से विधि या निषेध = हकारात्मक और नकारात्मक पहलूओंकी कल्पना की भाती है । अर्थात् - प्रश्न के अनुसार एक ही वस्तु में विरोध रहित विधि और प्रतिषेध की कल्पना को सप्तभंगी कहते हैं । किसी भी पदार्थ एवं वस्तु के विषय में सात प्रकार के प्रश्न हो सकते हैं, इसीलिए सप्तभंगी कही गई है। सात प्रकार के प्रश्नों का कारण है सात प्रकार की जिज्ञासा, और सात प्रकार की जिज्ञासा का कारण है- सात प्रकार के संशय, तथा सात प्रकार के संशयों का कारण है- उसके विषय-रूप वस्तु के धर्मों का सात प्रकार से होना । * - अस्तु, इस परिभाषा या लक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि सप्तभंगी के सात 'भंग' केवल शाब्दिक कल्पना ही नहीं है, अपितु वस्तु के धर्म- विशेष पर आश्रित है। इसलिए सप्त-भंगी का अध्ययन, मनन और चिन्तन करते समय इस बात का ध्यान रखना नितान्त आवश्यक है कि उसके प्रत्येक भंग का स्वरूप वस्तु के धर्म के साथ सम्बद्ध हो । यदि किसी भी पदार्थ का कोई भी धर्म दिखलाया जाना आवश्यक हो तो, उसे इस प्रकार दिखलाना चाहिए जिससे कि उन धर्मों का स्थान उस वस्तु में से विलुप्त न हो जाए । मान लीजिए, आप घट में नित्यत्व का स्वरूप दिखलाना चाहते हैं तो आपको घट के नित्यत्व का बोध कराने के लिए कोई ऐसा उपयुक्त शब्द प्रयोग करना होगा, जो घट में रहने वाले नित्यत्व धर्म का बोध तो कराए किन्तु अन्य अनित्यत्व आदि धर्मों का विरोध न करे । यह कार्य सप्तभंगी के द्वारा ही हो सकता है। यथा- 'स्याद् नित्य एव घट' अथवा 'स्याद् अनित्य एव घट'- अर्थात् घट 'नित्य' भी है और 'अनित्य' भी । द्रव्य-दृष्टि से वह 'नित्य' है, और पर्याय- दृष्टि से 'अनित्य' । अस्तु, अब इसी उदाहरणीभूत घट पर सप्त- भङ्गों की वचन प्रयोग शैली इस प्रकार होगी । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद यथा १. स्याद् नित्य एव घट: २. स्याद् अनित्य एव घट: ३. स्याद् नित्यानित्य एव घटः ४. स्याद् अवक्तव्य एव घट: ५. स्याद् नित्योऽअवक्तव्य एव घटः ६. स्याद् अनित्योऽअवक्तव्य एव घटः ७. स्याद् नित्यानित्य अवक्तव्य एव घटः किसी भी पदार्थ के विषय में उक्त सात प्रकार से ही प्रश्न हो सकते । अतः आठवां नवां या दशवां भङ्ग नहीं बन सकता । इसीलिए 'सप्तभङ्गी' में सप्त पद बिल्कुल सार्थक एवं अवधारणात्मक है, अर्थात् - सात. हीं भङ्ग हैं, कम या अधिक नहीं । उक्त सात वचन - प्रयोगों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है १. घट, द्रव्य - अपेक्षा से नित्य है । २. घट, पर्याय- अपेक्षा से अनित्य है । ३. घट, क्रम - विवक्षा से नित्य भी है और अनित्य भी । ४. घट, अवक्तव्य है, अर्थात् - युगपद् - विवक्ष से अवक्तव्य भी है । उक्त चार वंचन-प्रयोगों पर से पिछले तीन वचन और बनाए जाते हैं । -विवक्षा ५. द्रव्य - अपेक्षा से घट 'नित्य' होने के साथ साथ युगपद् - से 'अवक्तव्य' है । ६. पर्याय-अपेक्षा से घट 'अनित्य' होने के साथ-साथ युगपद-विवक्षा से अवक्तव्य है । ७. द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से घट क्रमश: 'नित्य' और 'अनित्य' होने के साथ-साथ युगपद् - विवक्षा से अवक्तव्य है। पिछले तीन वचन-प्रयोग, अवक्तव्य रूप चतुर्थ अंग के साथ पहला, दूसरा और तीसरा मिलाने से बनते हैं । अतः वास्तव में मुख्य रूप से तीन ही भङ्ग हैं 1 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण . स्याद्वाद के भंगों की विशेषता ऋग्वेद से भ० बुद्ध पर्यन्त जो विचारधारा प्रवाहित हुई है उसका विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होता है कि प्रथम एक पक्ष उपस्थित हुआ जैसे सत् या असत् का । उसके विरोधमें विपक्ष उत्थित हुआ असत् या सत्का । तब किसीने इन दो विरोधी भावनाओंको समन्वित करने की दृष्टिसे कह दिया कि तत्त्व न सत् कहा जा सकता है और न असत् वह तो अवक्तव्य है। और किसी दूसरेने दो विरोधी पक्षोंको मिलाकर कह दिया कि वह सदसत् है । वस्तुतः विचारधाराके उपर्युक्त पक्ष, विपक्ष और समन्वय ये तीन क्रमिक सोपान हैं। किन्तु समन्वयपर्यन्त आजानेके बाद फिरसे समन्वयको ही एक पक्ष बनाकर विचारधारा आगे चलती है, जिससे समन्वयका भी एक विपक्ष उपस्थित होता है। और फिर नये पक्ष और विपक्षके समन्वय की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि जब वस्तुकी अवक्तव्यतामें सद् और असत्का समन्वय हुआ तब वह भी एक एकान्त पक्ष बन गया । संसारकी गतिविधि ही कुछ ऐसी है, मनुष्यका मन ही कुछ ऐसा है कि उसे एकान्त सह्य नहीं । अतएव वस्तुकी एकान्तिक अवक्तव्यताके विरुद्ध भी एक विपक्ष उत्थित हुआ कि वस्तु एकान्तिक अवक्तव्य. नहीं उसका वर्णन भी शक्य है । इसी प्रकार समन्वयवादीने जब वस्तुको सदसत् कहा तब उसका वह समन्वय भी एक पक्ष बन गया और स्वभावतः उसके विरोधमें विपक्षका उत्थान हुआ । अतएव किसीने कहा एक ही वस्तु सदसत् कैसे हो सकती है, उसमें विरोध है । जहाँ विरोध होता है वहाँ संशय उपस्थित होता है । जिस विषयमें संशय हो वहाँ उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता । अतएव मानना यह चाहिए कि वस्तुका सम्यग्ज्ञान नहीं । हम उसे ऐसा नहीं कह सकते, वैसा भी नहीं कह सकते । इस संशय या अज्ञानवादका तात्पर्य वस्तुकी अज्ञेयता, अनिर्णेयता, अवाच्यतामें जान पडता है। यदि विरोधी मतोंका समन्वय एकान्त दृष्टिसे किया जाय तब तो फिर पक्षविपक्ष-समन्वयका चक्र अनिवार्य है । इसी चक्रको भेदनेका मार्ग भगवान् महावीरने बताया है। उनके सामने पक्ष-विपक्ष -समन्वय और समन्वयका भी विवक्ष उपस्थित था । यदि वे ऐसा समन्वय करते जो फिर एक पक्षका रूप ले तब तो पक्ष-विपक्ष-समन्वयके चक्रकी गति नहीं रुकती । इसीसे उन्होंने Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद समन्वयका एक नया मार्ग लिया, जिससे वह समन्वय स्वयं आगे जाकर एक नये विपक्षको अवकाश न दे सके । उनके समन्वय की विशेषता यह है कि वह समन्वय स्वतंत्र पक्ष न होकर सभी विरोधी पक्षोंका यथायोग्य संमेलन है । उन्होंने प्रत्येक पक्षके बलाबलकी ओर दृष्टि दी है। यदि वे केवल दौर्बल्यकी ओर ध्यान दे करके समन्वय करते तब सभी पक्षोंका सुमेल होकर एकत्र संमेलन न होता किन्तु ऐसा समन्वय उपस्थित हो जाता जो किसी एक विपक्षके उत्थानको अवकाश देता। भ० महावीर ऐसे विपक्षका उत्थान नहीं चाहते थे। अतएव उन्होंने प्रत्येक पक्षकी सच्चाई पर भी ध्यान दिया । और सभी पक्षोंको वस्तुके दर्शनमें यथायोग्य स्थान दिया । जितने भी अबाधित विरोधी पक्ष थे उन सभीको सच बताया अर्थात् संपूर्ण सत्यका दर्शन तो उन सभी विरोधोंके मिलन से ही हो सकता है, पारस्परिक निरासके द्वार नहीं, इस बातकी प्रतीति नयवादके द्वारा कराई। सभी पक्ष, सभी मत, पूर्ण सत्यको जाननेके भिन्न भिन्न प्रकार है। किसी एक प्रकारका इतना प्राधान्य नहीं है कि वही सच हो और दूसरा नहीं । सभी पक्ष अपनी अपनी दृष्टिसे सत्य है, और इन्हीं सब दृष्टिओंके यथायोग्य संगमसे वस्तुके स्वरूपका भास होता है । यह नयवाद इतना व्यापक है कि इसमें एक ही वस्तुको जाननेके सभी संभवित मार्ग पृथक् पृथक् नय रूपसे स्थान प्राप्त कर लेते हैं। वे नय तब कहलाते हैं जब कि अपनी अपनी मर्यादामें रहे, अपने पक्षका स्पष्टीकरण करें और दूसरे पक्षका मार्ग अवरुद्ध न करें परंतु यदि वे ऐसा नहीं करते तो नय न कहे जाकर दुर्नय बन जाते । इस अवस्थामें विपक्षोंका उत्थान साहजिक है। सारांश यह है कि भगवान् महावीरका समन्वय सर्वव्यापी है अर्थात् सभी पक्षोंका सुमेल करनेवाला है अतएव उसके विरुद्ध विपक्षको कोई स्थान नहीं रह जाता । इस समन्वयमें पूर्वपक्षोंका लोप होकर एक ही मत नहीं रह जाता। किन्तु पूर्व सभी मत अपने अपने स्थानपर रह कर वस्तुदर्शनमें घड़ीके भिन्न भिन्न पुर्जेकी तरह सहायक होते हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त पक्षविपक्ष-समन्वय के चक्रमें जो दोष था उसे दूर करके भगवानने समन्वयका यह नया मार्ग लिया जिससे फल यह हुआ कि उनका वह समन्वय अंतिम ही रहा। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद, सप्त- भंगी, नयवाद, प्रमाण नय-वाद मानव का स्वस्थ एवं व्यापक दृष्टिकोण ही उसे सत्य की ओर ले जाता है । सत्य - विशाल, व्यापक, अनन्त और अखण्ड होता है । परन्तु सामान्यतः मानव का परिमित ज्ञान उसे सम्पूर्ण रूप में जान नहीं पाता । खण्ड रूप में अथवा अनेक अंशों में ही वह वस्तु का परिबोध कर पाता है । सत्य के परिज्ञान के लिए, किंवा ज्ञात सत्य को जीवन के समतल पर उतारने के लिए, व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता ही नहीं, अनिवार्यता भी है २५ - व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठी - जीवन विकास की यह क्रम - पद्धति है । जैन- दर्शन की सत्योन्मुखी अनेकान्त दृष्टि, जैन-धर्म का सर्व-सहिष्णु अहिंसासिद्धान्त, और जैन - परम्परा का चिरागत समन्वयवाद - ये तीनों मिलकर एक ही कार्य करते हैं । और वह कार्य यह है कि - व्यष्टि अपनी क्षुद्र सीमा में कैद न हो जाए, समष्टि व्यक्ति के विकास मार्ग में चट्टान बनकर उसके विकास को अवरुद्ध न करें, अपितु एक-दूसरे से समझोता करके दोनों परमेष्ठी के रूप में परिणीत हो जाएँ, परम ज्योति बन जाएँ । - वस्तु तत्त्व इस शुभंकर एवं सर्व हितंकर विशाल दृष्टिकोण को जीवन में ढ़ालने से पूर्व वस्तु तत्त्व के स्वरूप को समझ लेना भी आवश्यक है। चेतन-अचेतनमय इस जगत की प्रत्येक वस्तु सत् है, शाश्वत है और अनन्त है । प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण-धर्मों का अखण्ड पिण्ड है । वह कभी नहीं रहीयह नहीं कहा जा सकता । वह कभी नहीं रहेगी- यह नहीं कहा जा सकता । वह नहीं है - वह भी नहीं कहा जा सकता । कहा यह जाएगा कि - "वह 3 थी, वह है और वह रहेगी ।" वृत्त, वर्तमान और वर्तिष्यमाण - इन तीनों कालों में कभी उसका अभाव नहीं होता । - तो वस्तु सत् है, शाश्वत है और नित्य है परन्तु कूटस्थ नित्य नहीं, मी नित्य है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण पूर्व पर्याय का विगम और उत्तर - पर्याय का उत्पाद होता रहता है । अस्तु, द्रव्य-दृष्टि से नित्य है, विगम और उत्पाद की दृष्टि से, अर्थात्पर्याय- दृष्टि से परिणामी प्रतिक्षण बदलने वाली भी है। कनक के कंगन को Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ . समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद तोड़कर उसका मुकुट बनवा डाला । हुआ क्या ? आकृति बदल गई, परन्तु उसका कनकत्व नहीं बदला । वह तो ज्यों का त्यों ही रहा । जैसा पहले था, वैसा अब भी है । सिद्धान्त यह रहा कि-"द्रव्यं नित्यं, आकृति पुनरनित्या ।" प्रमाण और नय - अनन्त-धर्मात्मक वस्तु का सम्यग्ज्ञान दो से होता है - प्रमाण से, और नय से। अनन्त-धर्मात्मक वस्तु-तत्त्व के समग्र धर्मों को अथवा उसके अनेक धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान-प्रमाण होता है। और उस वस्तु के किसी एक ही धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान-नय कहा जाता है । अयंघट:-यह ज्ञान- प्रमाण है, क्योंकि इसमें घट के रूप, रस, स्पर्श और गन्ध तथा कनिष्ठ-ज्येष्ठ आदि समग्र धर्मों का परिबोध हो जाता है। परन्तु जब यह कहा जाता है- 'रूपवान् घट' तब केवल घट के अनन्त धर्मों में से 'रूप' का ही परिज्ञान होता है, उसके अन्य धर्म-रस, स्पर्श और गन्ध आदि का नहीं । अनन्त धर्मात्मक वस्तु के परिज्ञान में अंश कल्पना-यही वस्तुतः नय है। अतः अंशी के किसी एक अंश का ज्ञान 'नय' और अनेक अंशों का ज्ञान 'प्रमाण' होता है। ___'नयवाद' वस्तुतः जैन-दर्शन की अपनी एक विशिष्ट विचार-पद्धति है। जैन-दर्शन प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण 'नय' से करता है। जैन-दर्शन में एक भी सूत्र और अर्थ ऐसा नहीं जो नय-शून्य हो । विशेषावश्यक भाष्य में यह तथ्य इस प्रकार है "नत्थि नएहि विहुणं, सुत्तं अत्थों य जिण-मए किंचि ।" T. बिन प्रवचन में कोइ भी सूत्र इवं अर्थ नयों से विहीन नहीं है. जैन दार्शनिकों के समक्ष एक बड़ा ही जटिल प्रश्न, साथ ही गम्भीर भी था, कि -नय क्या है ? नय प्रमाण है अथवा अप्रमाण ? यदि वह प्रमाण है, तो प्रमाण से भिन्न क्यों ? और यदि वह अप्रमाण है, तो वह मिथ्या ज्ञान होगा। और मिथ्या ज्ञान के लिए विचार-जगत में क्या कहीं स्थान होता है ? इन प्रश्नों का मौलिक समाधान जैन दार्शनिकों ने बडी गम्भीरता और सतर्कता से किया है। वे अपनी तर्क-शैली में कहते हैं "नय. न तो प्रमाण है, और न अप्रमाण । परन्तु प्रमाण का एक अंश Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद, सप्त-भंगी, नयवाद, प्रमाण २७ है । सिन्धु का एक बिन्दु न तो सिन्धु है, और न असिन्धु - अपितु वह सिन्धु का एक अंश है । एक सैनिक को सेना नहीं कह सकते, परन्तु उसे असेना भी तो नहीं कह सकते, क्योंकि वह सेना का एक अंश तो है ही । नय के सम्बन्ध में भी यही सत्य है ।" प्रमाण का विषय अनेकान्तात्मक वस्तु है, और नयका विषय है, उस वस्तु का एक अंश । यदि नय अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी एक ही अंश (धर्म) को ग्रहण करता है, तो वह मिथ्या ज्ञान ही रहेगा । फिर उसके द्वारा वस्तु का यथार्थ बोध कैसे होगा ? इस प्रश्न का उत्तर भी जैन दार्शनिकों नें अपनी उसी सत्य-मूलकतर्क - शैली पर दिया है । "नय अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक अंश को ही ग्रहण करता है, यह सत्य है । परन्तु इतने मात्र से ही वह एक मिथ्या ज्ञान नहीं हो सकता । एक अंश का ज्ञान यदि वस्तु के अन्य अंशों का निषेधक हो जाए, तभी वह मिथ्या होगा । किन्तु जो अंश-ज्ञान, अपने से अतिरिक्त अंशों का निषेधक न होकर, केवल अपने दृष्टिकोण को ही व्यक्त करता है, तो वह मिथ्या ज्ञान नहीं हो सकता । " जो न अपने स्वीकृत अंश का प्रतिपादन करते हुए यदि अपने से भिन्न दृष्टिकोण का निषेध करते हैं, तो निस्सन्देह वे 'नयाभास' किंवा दुर्नय कहे जाएँगे । परस्पर निरपेक्ष नय दुर्नय है, और सापेक्ष सुनय है 1 नयों की संख्या यद्यपि नय अनन्त है, 1 क्योंकि वस्तु के धर्म भी अनन्त है, फिर भी नयों के मूल में दो भेद है- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक अभेद-गामिनीदृष्टि को द्रव्यार्थिक नय कहते हैं, और भेदगामिनीदृष्टि को पर्यायार्थिक नय कहते हैं । नयों में नैगमादि तीन द्रव्यार्थिक हैं, और ऋजुसूत्र आदि चार पर्यायार्थिक है । 1 - प्रमाण किसी भी वस्तु का परिबोध करना, यह एक मात्र आत्मा के ज्ञान गुण Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद - का कार्य है । इस दृष्टि से ज्ञान ही प्रमाण माना जाता है। जैन दर्शन ज्ञान के अतिरिक्त किसी अन्य इन्द्रिय आदि जड उपकरणों को प्रमाणोत्वेन स्वीकार नहीं करता । जिसके द्वारा वस्तु-तत्त्व का संशयादिव्य वच्छेदेन यथार्थ परिबोध किया जाता है, वह प्रमाण है । जो ज्ञान स्वयं अपने आपका और अपने से भिन्न अन्य वस्तुओं का भी सम्यग् रूप से निश्चय करता है, वह ज्ञान प्रमाण कहा जाता है । ७ पादटीप : १. एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तु-त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थान- नेत्रमिव गोपी ॥ - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय २. अष्ट- सहस्त्री । ३. इन्डियन फिलासफी जि. १, पृ. ३०५ - ६ । ४. स्याद्वाद से ही लोकव्यवहार चल सकता है, इस बात को सिद्धसेन दिवाकर निम्न गाथा से व्यक्त किया है ५. जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वथा णिव्वइए । तस्स भुवणेक- गुरुणो णमो अणेर्गतवायस्स ।। समंतभद्र ने आप्तमीमांसा में स्याद्वाद और केवलज्ञान के भेद को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है । देखिये - अष्टसहस्त्री पृ. २७५-२८८ । समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में स्यादवाद और केवलज्ञान के भेद को स्पष्टरूप से निम्न श्लोकों में प्रतिपादन किया है - तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनं । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतं ॥१०१ उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्वं वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य गोचरे ॥ १०२ स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत ॥ १०५ अष्ट सहस्त्री, पृ. २७५ - २८८ ६. प्रकर्षेण, संशयादिव्यच्छेदेन भीयते, परिछिद्यते, ज्ञायते वस्तु-तत्त्वं येन तत् प्रमाणम् । ७. स्व-पर-व्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । - प्रमाणनय-तत्त्वालोक, १-२ | Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकरण चार आधार, पाँच कारण चार आधार किसी भी वस्तु के बारे में निर्णय करने के लिये अत्यन्त आवश्यक ऐसे आधार स्तम्भ समान चार शब्दों को और उसकी उपयोगिता को बराबर समझ लेना चाहिये । इस में प्रथम आधार है 'द्रव्य' । . प्रथम आधार-'द्रव्य' । द्रव्य अर्थात् पयार्य । अंग्रेजी में इसकों Substance अथवा Matter कहते हैं। यहां पर उसका अर्थ मूल द्रव्य से है। मूल से अर्थ है कि अवस्थाओं में परिवर्तन होने पर भी जिनका मूल द्रव्य कायम रहता है वह द्रव्य । उदाहरण के तौर पर जेवर में सोना, फर्नीचर में लकडा तथा घडे में मिट्टी । जैन धर्म में जो छ: द्रव्य बताए गये हैं उनमें काल द्रव्य का इसमें समावेश नही होता क्योंकि, काल एक विशिष्ट एवं अविभाज्य वस्तु है । इसके विभाग नहीं हो सकते । दिन-रात, घंटे मिनिट सैकंड इत्यादि जो विभाग हमने काल के किये हैं वे सभी काल के विभाग नहीं है । व्यवहार चलाने के लिए हमने कल्पना और बुद्धि का आश्रय लेकर ऐसे विभाग किये हैं । प्रातःकाल, सन्ध्याकाल, रात्रि आदि जो भी काल है वह वास्तव में काल नही होकर प्रकाश आदि पदार्थों का परिभ्रमण मात्र है। काल एक नियामक द्रव्य हैं । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, शब्द ये सभी द्रव्य है। ये सभी पदार्थ 'पुद्गल' द्रव्य में आजाते हैं। द्रव्य का अर्थ हमेशा आधारभूत द्रव्य के रूप में किया गया है। उदाहरण के तौर पर तलवार का मूल द्रव्य लोहा, टेबल का मूल द्रव्य लकडी, वीटी का मूल द्रव्य सोना, रोटी का मूल द्रव्य गेंऊ, चप्पल का मूल द्रव्य - चमडा 'इत्यादि दूसरा आधार - 'क्षेत्र'। क्षेत्र शब्द का अर्थ उपरोक्त द्रव्यों के रहने का स्थान होता है । अंग्रेजी में इसे place अथवा space कहते हैं । क्षेत्र सम्बन्धी उपरोक्त अर्थ और उसके Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद व्यवहार तात्त्विक अर्थ में थोडा अन्तर है। उदाहरण के तौर पर तपेली में दूध भरा हुआ है। सामान्य अर्थ में यही कहेंगे कि दूध के रहने का क्षेत्र तपेली है, दृष्टि से यह मानने में कोई बाधा नहीं है । परन्तु, क्षेत्रकी अपेक्षा, को बराबर समझना हो तो इस प्रकार की मान्यता में हम थाप खा जायेंगे । तपेली में दूध के रहेने का जो स्थल है वह तपेली से अलग है । वास्तव में दूध तपेली में नहीं बल्कि उसके पोले भाग में है । इसलिये 'क्षेत्र' शब्द का उपयोग जब हम करते हैं तथा बिना किसी दूसरे के आधार के जो स्थल- क्षेत्र का उल्लेख है, उस अर्थ में किया जाता है । इसमें आवश्यकतानुसार अपनी विवेक-बुद्धि का उपयोग कर सकते हैं । तपेली और दूध दोनों अपने अपने क्षेत्र से अलग है। क्षेत्र की अपेक्षा से जब भी विचार करना हो तब उस वस्तु के द्रव्य का क्षेत्र - उसके रहने का स्थल ऐसा समझना चाहिये । तीसरा आधार - 'काल' I यहाँ 'काल' का अर्थ उस वस्तु का - वस्तु के द्रव्य का - हम विचार करते हैं तो उसके उस अस्तित्व के समय से किया जाता है। वस्तु का जब परिवर्तन होता है तब उस समय जो परिणमन होता है, वह उसका 'काल' समय है । द्रव्य तरीके काल स्वयं एक अलग पदार्थ है, जिस वस्तु का जिस समय परिणमन होता है वह समय उस वस्तु का परिणमन का समय है । एक ही समय में बहुत सारी वस्तुओं का परिवर्तन होता रहता है । किन्तु उन सभी वस्तुओं का परिणमन- परिवर्तन एक ही काल में हुआ ऐसा नहीं कहा जा सकता । प्रत्येक वस्तु का जिस समय परिवर्तन हुआ, वह समय उस वस्तु के परिणमन का स्वयं का समय है, स्वयं का काल है । प्रत्येक वस्तु के काल का समय उसी वस्तु के संदर्भ में किया जाता है । घडी के कांटे की दृष्टि से काल समय एक होने के उपरान्त भी वह समय घडी के कांटे का है किसी दूसरी वस्तु के परिवर्तन का नहीं । उदाहरण के तौर पर वर्षा होने का समय चोमासा, भगवान् महावीर का आयु का समय उस समय के ७२ वर्ष, तीर्थंकर प्रभु के निर्वाण का काल, जिस समय उनका निर्वाण हुआ वह । इस प्रकार जब हम किसी वस्तु की काल की अपेक्षा की बात करते है तब हमें उस वस्तु के उद्भव, परिणमन, अस्तित्व तथा कार्य करने का काल Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार आधार, पाँच कारण इत्यादि का ध्यान रखना चाहिये, इसमें भी अपने विवेक व बुद्धि का उपयोग अवश्य करना चाहिये। चौथा आधार - 'भाव' । भाव शब्द का अर्थ वस्तु के गुण धर्म से है। उदाहरण के तौर पर रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, आदि सभी भाव में आ जाते हैं । संक्षिप्त में वस्तु के गुण शक्ति और परिणाम को भाव कहने में आता है। अंग्रेजी में इसे quality and Functions of the Substance कहते हैं । यह सभी गुण धर्म समय समय पर परिवर्तित होते रहते हैं। भाव प्रत्येक का अपना स्व-भाव है जो भिन्न-भिन्न होता है। एक वस्तु के स्वभाव की दूसरी वस्तु के स्वभाव से समानता हो सकती है किन्तु सम्पूर्ण रूप से एकता नहीं हो सकती है। प्रत्येक वस्तु का अपना भाव-स्वभाव होता है जो निरन्तर परिवर्तनशील है। हमें जब भाव की अपेक्षा से किसी वस्तु का निर्णय करना हो तो जिस वस्तु का निर्णय करना हो उसी वस्तु के गुणधर्मों को लक्ष्य में रखना चाहिये । उदाहरण के तौर पर काला अथवा लाल ये घडे का भाव है अथवा उष्णता अग्नि का और शीतलता पानी का भाव हैं । जैन तत्त्वज्ञानिओंने घडे का उदाहरण दिया है । उसमें मिट्टी उसका 'द्रव्य' है, जहां पर बनाया गया हो या. रखा गया हो वह उसका 'क्षेत्र', है जब बना हो अथवा जिस समय उसे रखा गया हो वह उसका 'काल' है तथा काला तथा लाल रंग यह उसका 'भाव' है। दूसरी महत्त्वपूर्ण वस्तु यह है इन चारों अपेक्षाओं के 'स्व' और 'पर' ये दो विभाग है सप्तभंगी के पहले दो पदों में 'है' और 'नहीं हैं ऐसे दो विधान किये हुए है। ये विधान 'स्व' और 'पर' की अपेक्षाओं से किये गए हैं। 'स्व' अर्थात अपना और 'पर ' अर्थात् ' अपना नहीं' । इसलिये जब अपेक्षा की बात की जाती है तब वह दो प्रकार से होती हैं-एक तो 'स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल, और स्व-भाव' और दूसरा 'पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और परभाव'। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु का निर्णय करने में कुल आठ अपेक्षाएं होती है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद 1 वस्तु के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षात्मक जब 'स्व' शब्द का उपयोग किया जाता है तब उससे अस्ति' अर्थात 'है' ऐसा निर्देश होता है इसी प्रकार जब इन चार अपेक्षाओं में जब 'पर' शब्द का उपयोग होता है तब 'नास्ति' अर्थात् 'नही है' ऐसा निर्देश होता हैं । अर्थात् इन चारों में जब स्व-स्वरूप की अपेक्षा आती है तब 'है' ऐसा कहते हैं और जब पर- स्वरूप की अपेक्षा आती है तब 'नहीं है' ऐसा कहते हैं । ३२ इन सभी चारों अपेक्षाओं के लिये 'चतुष्टय' शब्द का उपयोग किया जाता है, चारों का उपयोग जब एक साथ करना हो तब इस शब्द का उपयोग होता है । 'स्व' और 'पर' शब्द को 'चतुष्टय' शब्द में जोडकर 'स्व चतुष्टय' और 'पर चतुष्टय' ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है । पांच कारण इस जगत में जो कुछ भी कार्य होता है उसके पीछे कोई न कोई कारण तो होना चाहिये, होता ही है, कुछ कारण दृष्टिगोचर होते हैं, कुछ अदृश्य होते हैं, कुछ ज्ञात होते हैं, तो कुछ अज्ञात होते हैं सूर्य निकलता है और अस्त होता है। रात जाती है और दिन आता है । मनुष्य का जन्म होता है और मृत्यु होती है । इसके अलावा भी सुख, दुःख, गरीबी, अमीरी, तन्दुरस्ती तथा बीमारी इत्यादि बातों को लेकर बहुत सी घटनाएं हमारी नजरों के सामने हमेशा होती रहती है । ऐसे अनेक कार्य अनादिकाल से होते रहे हैं और अनंतकाल तक होते रहेंगे। इनमें से कितने ही कार्यों के कारण हमारी समझ में आते हैं, कितनेव समझ में नहीं भी आते हैं । ज्ञानकी सीमितता के कारण बहुत सी घटनाओं के कारण हमारी समझ में नहीं आते हैं। सभी इस राय पर एक मत है कि सभी कार्यों के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है । विभिन्न तत्त्वविशारदों ने इसके भिन्न कारण बताये हैं । जैन तत्त्वविशारदों ने इसके पांच कारण बताये हैं । इन पांचों कारणों को अलग २ स्वीकार ने वाले मत भी है । किन्तु जैन दार्शनिकों का कहना है जहाँ तक ये पांचों कारण 1 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) चार आधार, पाँच कारण एक साथ नहीं मिले वहां तक कोई भी कार्य संभव नहीं है । ये पांच कारण निम्नलिखित है : (१) काल (समय : Time) स्वभाव (वस्तुका गुणधर्म : Quality or function) (३) भवितव्यता अर्थात् नियति (अगम्य शक्ति Abstruse Po tentiality) (४) कर्म अर्थात् प्रारब्ध (नसीब : Luck) (५) पुरुषार्थ (प्रयत्न : effort) इस विषय में विभिन्न मत प्रचलित हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि प्रत्येक कार्य का कारण काल ही है। अपने अपको स्वभाववादी कहने वाले प्रत्येक कार्य के लिये स्वभाव को ही कारण मानते हैं । जब कि नियति में मानने वालों के अनुसार प्रत्येक कार्य का कारण सिर्फ नियति ही है। चौथा वर्ग कर्मवादियों का है। ये लोग कर्म के अलावा दूसरा कोई कारण मानने को तैयार नहीं, जब कि पुरुषार्थ में मानने वाले उद्यमवादी प्रत्येक कार्य के पीछे उद्यम के अलावा दूसरा कोई कारण मानने को तैयार नहीं है। जैन दार्शनीकों के अनुसार ये पांचों कारण प्रत्येक कार्य को गति प्रदान करते हैं (Guiding force) का कार्य करते हैं, ये पांचों कारण जब तक एक साथ इकटे नहीं हो जाते तब तक सामान्यतया कोई कार्य नहीं हो सकता। (१) काल केवल काल को ही कारण मानने वालों के अनुसार प्रत्येक वस्तु नियमित समय पर पैदा होती है और नियमित समय पर नष्ट हो जाती है। गर्भ के अन्दर से बालक, दूध के अन्दर से दही, बीज के अन्दर से वृक्ष, वृक्ष के अन्दर से फल एक निश्चित समय पर ही होते हैं । चक्रवर्तियों, तीर्थंकरों, अवतारों, बचपन, यौवन, वृद्धावस्था, जन्म-मृत्यु इत्यादि सभी काल के विपाक है। काल को छोडकर कोई भी कार्य सम्भव नहीं है। काल को भी ये लोग काल ही का कार्य मानते हैं । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद (२) स्वभाव स्वभाव यहाँ उसके भाव अथवा गुणधर्म के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स्वभाववादी जगत का कारण स्वभाव को ही मानते हैं । उनका कहना है कि बन्ध्या स्त्री के कभी बालक नहीं होता, हाथ की हथेली में अथवा पाँव के तलीयें में कभी बाल पैदा नहीं होते, नीम के पेड पर कभी आम नहीं लगते, आम की गुटली के अन्दर से कभी नारियल या केला नहीं निकलता, मोर के पंख मोर के शरीर पर ही पैदा होते है, पर्वत की स्थिरता, वायु की अस्थिरता, . इत्यादि स्वभाव का ही परिणाम है, काल का नहीं. मछली और तुम्बा पानी पर तैरता है। कंकर और पत्थर पानी में डूब जाते हैं । उष्णता का स्वभाव वाला सूर्य, शीतलता का स्वभाव वाला चन्द्रमा, गन्ने की मिठास इत्यादि सभी अपने स्वगुणों के हिसाब से चलते हैं। इसलिये कार्य का कारण काल नहीं होकर स्वभाव है। (३) भवितव्यता जो लोग भवितव्यता को पानते हैं उनके अनुसार जो कार्य नहीं होने का होता है वह नहीं होता है तथा जो होना होता है वह होता ही है। व्यक्ति को नियति जिस ओर ले जाती है उस ओर नही चाहने पर भी उसे जाना पड़ता है । नियति में हो तो बिना किसी कोशिष के वस्तु मिल जाती है। गर्भ से पैदा होने वाले सभी बालक जीवित नहीं रहते । आम के पेड़ पर लगने वाले सभी फूल आम में परिवर्तित नहीं होते । घने जंगल में से और युद्धभूमि से व्यक्ति जीवित लौटकर आजाता है और घर में आकर बिस्तर पर मृत्यु को प्राप्त करता है। इसलिये इन सभी घटनाओं के लिये भवितव्यतावादिओं के अनुसार नियति जिम्मेदार है । नियति ही इन सब कार्यों का कारण है। यहाँ हमें भवितव्यता का अर्थ स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये । साधारणतया इस शब्द का दो अर्थों में प्रयोग किया जाता है। (१) कर्म के अनुसार व्यक्ति का भाग्य होता है। (२) ईश्वर की कृपा अथवा इच्छा । 'मैंने यह कार्य किया है' ऐसा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार आधार, पाँच कारण ३५ मानना मिथ्या है । ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी हिल नहीं सकता ऐसा मानने वाले और कहने वाले भवितव्यता अर्थात् नियति का अर्थ केवल ईश्वर की इच्छा, ऐसा मानते हैं। ये दोनों अर्थ गलत है। यहाँ भवितव्यता दो में से किसी भी एक अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। जैन तत्त्वज्ञानी कर्ता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । कोई भी कार्य करने की इच्छा यह एक मनुष्य सुलभवृत्ति है और ऐसी वृत्ति जिसमें हो उसे ईश्वर नहीं माना जा सकता. हिन्दु धर्म में ईश्वर के साकार और निराकार दो स्वरूप माने गये हैं जो दोनों स्वरूप ईश्वर को क्रियाशील कर्ता के स्वरूपमें मानते हैं । जैन तत्त्वज्ञान इसे स्वीकार नहीं करता । ___ जैन तत्त्वज्ञानी भवितव्यता उर्फ नियति का अर्थ 'निश्चित हुआ' ऐसा करते हैं । काल के दो विभाग है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी; प्रत्येक विभाग में बारह चक्रवर्ती और चौबीस तीर्थंकर होते हैं, ऐसा ही निश्चित कम है और इसका कारण वह लोग भवितव्यता मानते हैं। दूसरे चार कारणों के साथ मिलकर यह कारण कार्य कराता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार प्रत्येक कार्य के पीछे पाचवाँ अनिवार्य कारण नियति होता है। इस विश्व की रचना में तथा संसार की घटनाओं में कितने ही ऐसे कार्य होते हैं जिनके पीछे काल, स्वभाव, कर्म और उद्यम रूपी कारणों के अलावा कोई और अगम्य कारण भी होता है। ये चार कारण जब पर्याप्त नहीं होते तब इन चारों को साथ रखकर पाचवा कारण भी काम करता है। उदाहरण के तौर पर जैनशास्त्र में काल के जो विभाग बताये गये हैं उनमें कितने ही कार्य क्रमशः और निश्चित रूप में होते हैं, उत्सर्पिणी काल में रूप, रस, गंध, शरीर, आयुष्य, वैभव आदि की क्रमशः वृद्धि होती है। जब कि अवसर्पिणी काल में वैभव क्रमशः कम-ज्यादा होता रहता है। मनुष्य के शरीर का प्रमाण-कद अवसर्पिणी के प्रारम्भ में जो होता है वह कम होता जाता है। इसी प्रकार मनुष्य की आयु भी कम होती जाती है। अवसर्पिणी विभाग जब पुरा हो जाता है और उत्सर्पिणी शुरु होता है तब कद और प्रमाण बढ़ते जाते हैं । यह क्रम कालचक्र के प्रत्येक विभाग में निश्चित होता है। इन सब Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद 1 के पीछे कारण के रूप में 'भवितव्यता' का प्रमुख भाग होता है । यहाँ पर यह ध्यान रखने योग्य है कि किसी भी कार्य के पीछे भवितव्यता को अकेला तथा स्वतन्त्रत कारण के रूप में जैन दार्शनिकों ने स्वीकार नहीं किया है। 1 एक बात और जो ध्यान देने योग्य है वह यह कि जहाँ चार कारण साथ मिलकर किसी एक कार्य को नहीं कर सकते वहाँ पर ही 'नियति' आती है, ऐसा नहीं है । प्रत्येक कार्य में पाँचों कारण सम्मिलित होकर सामान्यतया कार्य करते हैं । किन्तु प्रत्येक कार्य में भिन्न-भिन्न अपेक्षा से कोई कारण मुख्य रूप से कार्य करता है जबकि दूसरे उसमें गोण रूप से उपस्थित रहते हैं। यदि नियति को ही एक मात्र कारण माना जाय तो कर्म और पुरुषार्थ की बात पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती है । इसीलिये जैन तत्त्वज्ञानी भवितव्यता को पाँच में से एक कारण ही मानते हैं । ( ४ ) कर्म जैन और हिन्दी परिभाषा में 'कर्म' शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ हैं। जैन परिभाषा 'मन-वचन-काया' कहती है, जब कि हिन्दु परिभाषा में 'मन-वाणी और कर्म' का कथन है। काया से होने वाली क्रिया है- स्थूल कर्म । मन और वाणी से होनी वाली स्थूल सूक्ष्म क्रिया भी कर्म है। जैन धर्म में 'कर्म' शब्द पारिभाषिक दृष्टि से 'बन्धन' के अर्थ में प्रयुक्त है, क्रिया या कार्य शब्द से कर्म के अर्थकी अभिव्यक्ति की जाती है। कर्म के सर्वथा बिना क्षय किये बंधन में से मुक्ति नही है ऐसा जैन दर्शन का कथन है । वहाँ कर्म का अर्थ कार्य या कर्त्तव्य न करते हुए पारिभाषिक लिया गया है । मन, वचन और काया के शुभाशुभ उपयोग द्वारा कर्मणा के पुद्गल परमाणुओं को आत्मा अपनी ओर खींचती है और वे परमाणु आत्मप्रदेशों में चिपक जाते हैं इस प्रक्रिया को जैन दर्शन 'कर्म बंधन' कहता है, बिना राग और द्वेष किये मन, वचन और काया के द्वारा यदि कार्य या क्रिया की जाय तो अध्यवसाय के अनुसार कर्मबंध होगा । इस दृष्टि से कर्म शब्द जैन दर्शन में विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है I - नमस्कार महामन्त्र में अष्ट कर्म रहित सिद्धदेव से पहले, कर्मचतुष्टयपरहित अरिहन्त देव को 'नमो अरिहंताणं' पद से प्रणाम किया गया है, क्योंकि Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार आधार, पाँच कारण ३७ अरिहन्तदेव महान कर्मयोगी होते हैं । उनके बाद 'नमो सिद्धाणं' पद से सिद्ध देव को प्रणाम किया गया है। क्योंकि सिद्धावस्था में यद्यपि आत्मा शुद्धतम हो जाती है, फिर भी 'कर्मयोग' नही होता है इससे सिद्ध होता है कि कर्मयोग व्यक्ति को सिद्धदेव से भी प्रथम वन्दनीय बनाता है । इससे बढकर कर्मयोग की महत्ता के लिये कौन सा प्रमाण हो सकता है। जैन दर्शन में कर्म सम्बन्धी विचार सूक्ष्म, व्यवस्थित और अतिविस्तृत है। कर्म शास्त्र को जैन साहित्य का हृदय कहना चाहिये। धन, शरीर आदि बाह्य विभूतियों में आत्म-बुद्धि करना, अर्थात् जड में अहंत्व करना, बाह्य दृष्टि है । इस अभेद-भ्रम को बहिरात्मभाव सिद्ध करके उसे छोड़ने की शिक्षा, कर्म-शास्त्र देता है। जिनके संस्कार केवल बहिरात्मभावमय हो गए हैं उन्हें कर्म-शास्त्र के उपदेश भले ही रूचिकर न हो, परन्तु इससे उसकी सच्चाई में कुछ भी अन्तर नहीं पड सकता । .. शरीर और आत्मा के अभेद भ्रम को दूर करा कर, उस के भेद-ज्ञान को (विवेक-ख्याति को) कर्म-शास्त्र प्रकटाता है । इसी समय से अन्तर्दृष्टि खुलती है। अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने में वर्तमान परमात्म-भाव देखा जाता है। परमात्मभाव को देखकर उसे पूर्णतया अनुभव में लाना, यह जीव शिव (ब्रह्म) होना है । इसी ब्रह्म-भाव को व्यक्त, कराने का काम कुछ और ढंग से ही कर्मशास्त्र ने अपने पर ले रखा है। क्योंकि वह अभेद-भ्रम से भेद ज्ञान की तरफ झुकाकर, फिर स्वाभाविक अभेदध्यान की उच्च भूमिका की ओर आत्मा को खींचता है। बस उसका कर्तव्य-क्षेत्र उतना ही है। साथ ही योग-शास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य अंश का वर्णन भी उसमें मिल जाता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र, अनेक प्रकार के आध्यात्मिक शास्त्रीय विचारों की खान है। वही उसका महत्व है । नीचे के श्लोक में यही चीज कही गई है । क्ष्माभृककयोर्मनीषिजडयोः सद्रूपनीरूपयोः । श्रीमदुर्गतयो बलाबलवतोर्नीरोगातयोः । सौभाग्यासुभगत्वसंगमजुषो तुल्येऽपि नृत्वेऽन्तरं, Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद यत्तत्कर्मनिबन्धनं तदपि नो जीवं विना युक्तिमत् ॥ . दीनाकृत टीका कर्म को सभी कार्यों का कारण मानने वाले अपने आपको 'कर्म कारणवादी' कहते हैं । ये लोग काल, स्वभाव, भवितव्यता आदि को नहीं मानते, उनका कहना है - - जगत में जो कुछ भी होता है वह कर्म के कारण ही होता है। कर्म से ही जीव कीडा, प्रेत, मनुष्य या देव बनता है। कर्म के कारण राम को वन में जाना पडा, कर्म के कारण सीता पर कलंक लगा और उसे अग्निपरीक्षा देनी पडी, कर्म के प्रताप से ही रामायण, महाभारत और पानिपत के युद्ध हुए, दो विश्व युद्ध हुए तथा हिटलर का पतन हुआ, कृष्ण का वध हुआ, इसामसीह को क्रोस पर लटकाया गया तथा गांधीजी की पिस्तोल की गोली से मृत्यु हुई। कर्म से ही राजा रंक और रंक राजा बन जाता है। उद्यम करने वाले भटकते रहते हैं जबकि कर्म की वजह से व्यक्ति सोता हुआ भी सफलता प्राप्त कर लेता कर्म से एक वर्ष तक तीर्थंकर ऋषभदेव को अन्न प्राप्त नहीं हुआ और महावीर प्रभु के कान में कीले डाले गये । कर्म से ही नेपोलियन शहनशाह बना और कर्म के ही कारण बाद में केदी बन कर कारावास में मृत्यु को प्राप्त हुआ । कर्म कारणवादी अपने मत के समर्थन में एक मनोरंजक दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं - किसी एक स्थान पर एक बाँस का टोकरा रखा हुआ था। उसमें किसी ने एक साँप को बन्ध करके रखा हुआ था । एक चुहे को लगा कि इस टोकरे में उसे कुछ खाने को मिलेगा। इसलिये उसने टोकरे को कुतर कर उसमें बडा सा छेद बनाया । पहले तो साँप भय से सतर्क हो गया । किन्तु जैसे ही चुहा अन्दर गया साँप उसको निगल गया और छेद के अन्दर से बाहर निकल कर वन में चला गया। सर्प को भक्ष्य और मुक्ति ये दोनों एक साथ मिल गई। लेकिन उद्यम करने वाला चुहा मृत्यु को प्राप्त हुआ। कहिये इसमें कर्म बलवान है या नहीं ? इस जगत में सभी कार्यों का कारण कर्म ही है। यहाँ कर्म शब्द का अर्थ पूर्व में किये गए कर्म और उसके द्वारा जो प्रारब्ध लिखा जाता है उस Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार आधार, पाँच कारण अर्थ में प्रयोग किया गया हैं। हम जिसे उद्यम, या पुरुषार्थ कहते हैं उस अर्थ में 'कर्म' शब्द का उपयोग नहीं किया गया । (५) उद्यम - यहाँ पर उद्यम शब्द का अर्थ पुरुषार्थ से है। उद्यमवादी मात्र उद्यम को सभी कार्यों का कारण मानते हैं । वह जो कहते हैं वह सुनने लायक है। काल, स्वभाव, नियति अथवा कर्म असमर्थ है सिर्फ उद्यम समर्थ है। उद्यम करने से रामचन्द्रजी सागर को पार कर गये, उद्यम से ही उन्हें लंका का राज्य प्राप्त हुआ जिसे उन्होंने विभीषण को सुपुर्द कर दिया। पुरुषार्थ से पाण्डवों ने कौरवों को युद्ध में पराजित किया । . उद्यम किये बिना खेत मे से अनाज और तिल के अन्दर से तेल नहीं निकलता । उद्यम किये बिना तैयार भोजन का एक कोर भी मुख में नहीं जा सकता, उद्यम के बिना खेती की पैदावार नहीं होती । एक बार उद्यम करने से यदि कार्य सिद्ध नहीं हो तो, दूसरी बार, तीसरी बार फिर से उद्यम करने से कार्य अवश्य सिद्ध होता है। ये विशेष में कहते हैं कि कर्म तो पुत्र है, उद्यम का फल है। उद्यम उसका पिता है । उद्यम से कर्म किये जाते हैं तथा उससे ही कर्मों का निवारण भी होता है । दृढपहरी ने हत्याएं करके घोर कर्म का उपार्जन किया फिर भी छ: महीने तक उद्यम करके उसने उनकी निर्जरा की । उद्यम से ही अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष प्राप्त होता है। विद्या और कला भी उद्यम से ही प्राप्त होती है। उद्यमवादियों के अनुसार जगत के सारे कार्य उद्यम से ही होते हैं । उद्यम के सिवाय सभी कारण निरर्थक, अर्थहीन और नपुसंक हैं । एक ही कारण को माननेवाले के उपरान्त, पाँच कारणों को एक समूह में माननेवाला वर्ग भी है। जैन दार्शनिक पाँचों कारणों को एक समूह में प्रस्तुत करते हैं । उनका कहना है कि जहाँ तक पाँचों कारण एक साथ नहीं मिलते तब तक कोई कार्य संभव नहीं होता । प्रत्येक वस्तु के गुण धर्म और कार्यकारण भाव को समझाने का जैन तत्त्वज्ञानियों का तरीका अनोखा और निराला है। वो वस्तु के किसी Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद एक अंत में - एक स्वरूप में - एकान्त में नहीं मानते । उनकी दृष्टि अनेकान्त है । उनका कहना है कि किसी एक कारण से सभी कार्य होते हैं ऐसा मानना एकान्तसूचक है । एकान्त मिथ्यात्व है जबकि अनेकान्त सम्यक्त्व है। ___ पाँच ऊगलियाँ अथवा दो हाथ जब मिलते हैं तब कोई कार्य सम्पन्न होता है। हाथ नहीं हो तो हम कुछ पकड नहीं सकते और पाँव के बिना चलना असम्भव है। दो हाथों के बिना ताली नहीं बझती । आग्रह में आकर किसी एक वस्तु या कारण को महत्त्व देने से कोई अर्थ नहीं निकलता । जहाँ तक पाँचों कारण एक साथ नहीं मिलते वहाँ तक किसी भी कार्य का होना असम्भव है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रकरण अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक अनेकान्तवाद भारतीय दर्शनों कि एक संयोजक कड़ी और जैन दर्शन का हृदय है । इसके बीज आज से सहस्त्रों वर्ष पूर्व संभावित जैन आगमों में उत्पाद् व्यय, ध्रौव्य, स्यास्ति, स्यान्नास्ति, द्रव्य गुण, पर्याय, सप्तनय आदि विविध रूपों में बिखरे पड़े हैं । सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि जैन दार्शनिकों ने सप्तभंगी आदि के रूप में तार्किक पद्धति से अनेकान्तवाद को एक व्यवस्थित रूप दिया । तदनन्तर अनेक आचार्यों ने इस पर अगाध वाङ्मय रचा जो आज भी उसके गौरव का परिचय देता है । विगत १५०० वर्षों में स्याद्वाद दार्शनिक जगत का एक सजीव पहलू रहा और आज भी है । संसार के जितने भी विद्वान इस तर्क पद्धति के परिचय में आते हैं, वे सभी इस पर मुग्ध हो जाते हैं । डा. हर्मन जेकोबी, डो. स्टीनकोनो, 1 डा. टेसीोरी, डो. पारोल्ड, जार्ज बर्नार्ड शा, जैसे चोटी के पाश्चात्य विद्वानों ने इस सिद्धान्त की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है । भगवान् महावीर का युगदर्शन - प्रणयन का युग था । आत्मा, परलोक, स्वर्ग, मोक्ष, है या नहीं इन प्रश्नों की गूंज थी। सामान्य विषय भी बहुत चर्चे जाते थे । महात्मा बुद्ध मध्यम प्रतिपदावाद या विभज्यवाद के द्वारा समझाते थे। संजय वेलट्ठिपुत निपेक्षवाद या अनिश्चियवाद की भाषा में बोलते थे । भगवान् महावीर का प्रतिपादन स्याद्वाद के सहारे होता था । भगवान् महावीर ने आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूपनिरूपण के अवसर पर कभी मौन धारण नहीं किया । जब कभी कोई जिज्ञासु उनके समीप आया और उसने आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के संबंध में कोई प्रश्न पूछा तब भगवान् ने अनेकान्त दृष्टि के आधार पर उसके प्रश्न का समाधान करने का सफल प्रयत्न किया है। जबकि भगवान् महावीर के समकालीन तथागत बुद्ध ने इस प्रकार के प्रश्नों को अव्याकृत कोटि में डाल दिया था । भगवान महावीर के युग के प्रचलित वादों का अध्ययन जब कभी हम प्राचीन ४ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद I साहित्य का अनुशीलन करते समय करते हैं, तब ज्ञात होता है कि एक आत्मा के संबंध में ही किस प्रकार की विभिन्न धारणाएँ उस युग में थी । आत्मा के संबंध में इस प्रकार के विभिन्न विकल्प उस समय प्रचलित थे - आत्मा है भी, नहीं भी, नित्य भी, अनित्य भी, कर्ता भी और अकर्ता भी - आदि आदि । भगवान् महावीर ने अपनी अनेकान्तमयी और अहिंसामयी दृष्टि से अपने युग के विभिन्न वादों का समन्वय करने का सफल प्रयत्न किया था । भगवान् महावीर ने कहा स्व-स्वरूप से आत्मा है, पर स्वरूप से आत्मा नहीं है । द्रव्यदृष्टि से आत्मा नित्य है, और पर्यावदृष्टि से आत्मा अनित्य है । द्रव्य-दृष्टि से आत्मा अकर्ता है और पर्याय दृष्टि से आत्मा कर्ता भी है। वस्तुतः वस्तु-स्वरूप के प्रतिपादन की यह उदार दृष्टि ही अनेकान्तवाद है । अनेकान्त दृष्टि का और अनेकान्तवाद का जंब हम भाषा के माध्यम से कथन करते हैं तब उस भाषाप्रयोग को स्याद्वाद और सप्तभंगी कहा जाता है । अनेकान्तवाद का आधार है, सप्तनय । और सप्तनय का आधार है सप्तभंग एंव सप्तविकल्प | भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद की भाषा का आविष्कार करके दार्शनिक जगत की विषमता को दूर करने का प्रयत्न किया था । यही कारण है कि भगवान् महावीर की यह अहिंसामूलक अनेकान्त दृष्टि और अहिंसामूलक सप्तभंगी जैन दर्शन की आधार - शिला है । भगवान् महावीर के पश्चात् विभिन्न युगों में होनेवाले जैन आचार्यों ने समय-समय पर अनेकान्तवाद और स्याद्वाद की युगानुकूल व्याख्या करके उसे पल्लवित और पुष्पित किया है । इस क्षेत्र में सबसे अधिक और सबसे पहले अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को विशद रूप देने का प्रयत्न आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने तथा आचार्य समन्तभद्र ने किया था । उक्त दोनों आचार्यों ने अपने-अपने युग में उपस्थित होनेवाले समग्र दार्शनिक प्रश्नों का समाधान करने का प्रयत्न किया । आचार्य सिद्धसेन ने अपने " सन्मतितर्क" नामक ग्रंथ में सनयों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है । जबकि आचार्य समन्तभद्र ने अपने " आप्तमीमांसा" ग्रंथ में सप्तभंगी का सूक्ष्म विश्लेषण और विवेचन किया है. मध्य युग में इसी कार्य को आचार्य हरिभद्र और आचार्य अकलंकदेव ने आगे बढाया । नव्यन्याययुग में वाचक यशोविजयजी ने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद पर नव्यन्याय - शैली में तर्क- ग्रंथ लिखकर दोनों सिद्धांतो को अजेय बनाने का सफल प्रयत्न किया है। भगवान महावीर से प्राप्त Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक . ४३ मूल दृष्टि को उत्तरकाल के आचार्यों ने अपने युग की समस्याओं का समाधान करते हुए विकसित किया है। कोई भी पदार्थ स्याद्वाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता - "आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु" -अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका अनेकान्तवाद का आधार न लिया जाए तो व्यावहारिक और दार्शनिक दोनों दृष्टियों से काफी उलझनें खड़ी हो जाती है। एक हाथी को देखने वाले सात अन्धों का दृष्टान्त स्याद्वाद के समर्थन के रूप में प्रसिद्ध है। एक व्यक्ति कवि है, लेखक है, वक्ता है, कलाकार है, चित्रकार है, संगीतकार है, और भी न जाने क्या-क्या है । कविता-गोष्ठी में उसका कवि रूप सामने आता है उस समय उसकी दूसरी-दूसरी विशेषताएँ समाप्त नहीं हो जाती पर एक समय में एक विशेषता की ही चर्चा होती है। उसके लिए कोई यह कहे कि यह कवि ही है, इस कथन में सत्यता नहीं रहती । इसलिए स्याद्वाद को समझने वाला व्यक्ति कहेगा-स्याद् यह कवि है । एक अपेक्षा से यह कवि है किन्तु अन्य अपेक्षाओं से वक्ता, लेखक आदि भी है, जिनकी चर्चा का यहाँ प्रसंग नहीं है। वर्तमान में जे विशेषता चर्चा का विषय होती है, वह प्रधान बन जाती है और अन्य विशेषताएँ गौण हो जाती है। इस दृष्टि से स्याद् शब्द परिपूर्ण सत्य का वाचक बन जाता है। - अपूर्ण सत्य व्यक्ति के मन में भ्रम उत्पन्न कर देता है। उसके आधार पर वह सही या गलत का निर्णय नहीं कर पाता । एक वस्तु है और उसे जानने या देखने वाले अनेक हैं । सबके पास अपनी-अपनी दृष्टियाँ हैं । भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से समझी हुई वस्तु का स्वरूप एक समान नहीं हो सकता । एक हिमालय पर्वत के बारे में चार व्यक्तियों के भिन्नभिन्न धारणाओं के आधार पर आप इस तथ्य को अधिक स्पष्टता से समझ सकते हैं । चार पर्वतारोही हिमालय की एवरेस्ट चोटी पर पहुँचे । चारों व्यक्ति चार स्थानों में खडे थे । वहाँ से उन्होंने हिमालय पर्वत के चित्र लिये । चारों अपने-अपने चित्र लेकर लोगों से मिले। उन्होंने सबको चित्र दिखाए और कहा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद हिमालय ऐसा है । चारों चित्रों में असमानता थी । प्रत्येक पर्वतारोही अपने चित्र को सही बता रहा था। दर्शक लोग उलझन में पड गए। आखिर एक व्यक्ति ने सबकी उलझन समाप्त करते हुए बताया की ये चारों चित्र हिमालय के हैं। चूँकि ये भिन्न-भिन्न स्थानों से लिए गए हैं, इसलिए इनमें भिन्नता स्वाभाविक है । अमुक स्थान पर खडे होने से जो दृश्य दिखाई देता है, वह दूसरे स्थान से दृष्टिगोचर नहीं हो सकता । दृष्टिकोण की भिन्नता से तथ्यों में भिन्नता आ जाती है । आप चारों व्यक्ति सही हैं। चारों के चित्र हिमालय के चित्र हैं पर इनके साथ स्थान विशेष की विवक्षा जोड़नी होगी । ४४ उपर्युक्त उदाहरण स्याद्वाद का बोध कराने में सहायक है । एक वस्तु को हम भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखेंगे तो उसके स्वरूप में अन्तर निश्चित रहेगा। इस अन्तर को समझने के लिए उन-उन दृष्टियों को समझना आवश्यक है और यही स्याद्वाद है । जैन दर्शन में इसका स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है । 1 वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, इसलिए विसदृश भी है और सदृश भी है। एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से विसदृश होता है, इसलिए कि उनके गुण समान नहीं होते । वे दोनों सदृश भी होते हैं, इसलिए कि उनके अनेक गुण समान भी होते हैं । चेतन गुण की दृष्टि से जीव पुद्गल से भिन्न है तो अस्तित्व और प्रमेयत्व गुण की अपेक्षा वह पुद्गल से अभिन्न भी है । कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थ से न सर्वथा भिन्न है, और न सर्वथा अभिन्न, किन्तु भिन्नाभिन्न है । वह विशेष गुण की दृष्टि से भिन्न है और सामान्य गुण कि दृष्टि से अभिन्न । भगवती सूत्र हमें बताता है "जीव पुद्गल भी है और पुद्गली भी है । शरीर आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है । शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है, सचित भी है और अचित भी है।" जीव की पुद्गल संज्ञा है, इसलिए वह पुद्गल है । वह पौद्गलिक इन्द्रिय सहित है, पुद्गल का उपभोक्ता है, इसलिए पुद्गली है; अथवा जीव और पुद्गल में निमित्तनैमित्तिक भाव है । संसारी दशा में जीव के निमित्त से पुद्गल की परिणति होती है और पुद्गल के निमित्त से जीव की परिणति Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक होती है, इसलिए पुद्गली है। . शरीर आत्मा को पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति का साधन बनाता है , इसलिए वह उससे अभिन्न है। आत्मा चेतन है, काय अचेतन है। वह पुनर्भवी है, काय एकभवी है । इसलिए ये दोनों भिन्न हैं । स्थूल शरीर की अपेक्षा वह रूपी है और अपने स्वरूप की अपेक्षा वह अरूपी है । शरीर आत्मा से क्वचित् अपृथक भी है, इस दृष्टि से जीवित शरीर चेतन है । वह पृथक् भी है इस दृष्टि से अचेतन, मृत शरीर अचेतन ही होता है। ___यह पृथ्वी स्यात् है, स्यात् नहीं है और स्यात् अवक्तव्य है । वस्तु स्वदृष्टि से है, पर-दृष्टि से नहीं है, इसलिए वह सत्-असत् उभय रूप है । एक काल में एक धर्म की अपेक्षा वस्तु वक्तव्य है और एक काल में अनेक धर्मों की अपेक्षा वस्तु अवक्तव्य है। इसलिए वह उभय रूप है । जिस रूपमें सत् है, उस रूप में सत् ही है और जिस रूप में असत् हैं उस रूप में असत् ही है। वक्तव्य-अवक्तव्य का यही रूप बनता है। उपनिषद में एक शिष्य ने गुरु से पूछा - " हे भगवन् ! ऐसी कौनसी वस्तु है जिसके ज्ञान से वस्तुमात्र का ज्ञान हो जाय ?" (मुण्डक १-१३) ऐसा ही एक प्रश्न पूछनेवाले दूसरे विद्यार्थी श्वेतकेतु को उसके पिता आरुणि ने कहाः मिट्टी के एक लोंदे को जान लेने से मिट्टी से बनी हुई सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है-एकेन मृत्पिण्डेन विज्ञातेन मृण्मयं विज्ञातं स्यात् । (छांदोग्य६-१-४) जैन धर्म ने वह बात तो बताई सो बताई किन्तु साथ ही में उससे फलित होनेवाले एक उपसिद्धान्त का भी निर्माण किया और स्याद्वाद का स्वरूप-वर्णन करते हुए कहा कि जो एक पदार्थ को सर्वथा जानता है वह सभी पदार्थों को सर्वथा जानता है । जो सर्व पदार्थों को सर्वथा जानता है वह एक पदार्थ को भी सर्वथा जानता है। "एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वेभावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वेभावाः सर्वथा येन दृष्टाः एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ अर्थात् सभी पदार्थों को उनके सभी स्थानान्तरों सहित जानने वाला Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद सर्वज्ञ ही एक पदार्थ को पूर्ण रूप से जान सकता है। सामान्य व्यक्ति एक भी पदार्थ को पूरा नहीं जान सकता । ऐसी अवस्था में अमुक व्यक्ति ने अमुक बात मिथ्या कही, ऐसा कहने का हमें कोई अधिकार नहीं । यह अधिकार तो सर्वज्ञ को ही है। व्यक्ति का पदार्थ विषयक ज्ञान अधूरा होता है, अतः यदि कोई अपने अधूरे ज्ञान को पूर्ण ज्ञान के रूप में दूसरों के सामने रखने का साहस करता हो और वही सच्चा और दूसरे सब झूठे ऐसा कहता हो तो हम उसे इतना अवश्य कह सकते है कि "तुम अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हो ।" इससे अधिक हम उसे कुछ नहीं कह सकते । जैन-दर्शन प्रतिपादित “स्याद्वाद' सिद्धान्त से ऐसा फलित होता है। अनेकान्तवाद की इस विशिष्टता को हृदयंगम करके ही जैन दार्शनिकों ने उसे अपने विचार का मूलाधार बनाया है। वस्तुतः वह समस्त .दार्शनिकों का जीवन है , प्राण है। जैनाचार्यों ने अपनी समन्वयात्मक उदार भावना का परिचय देते हुए कहा है-एकान्त वस्तुगत धर्म नहीं, किन्तु बुद्धिगत कल्पना है । जब बुद्धि शुद्ध होती है तो एकान्त का नाम-निशान नहीं रहता । दार्शनिकों की भी समस्त दृष्टियाँ अनेकान्त दृष्टि में उसी प्रकार विलीन हो जाती है जैसे विभिन्न दिशाओं से आनेवाली सरिताएँ सागर में एकाकार हो जाती है।' प्रसिद्ध विद्वान उपाध्याय यशोविजयजी के शब्दों में कहा जा सकता है-'सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं कर सकता । वह एकनयात्मक दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य की दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है। अनेकान्तवादी न किसी को न्यून और न किसी को अधिक समझता है - उसका सबके प्रति समभाव होता है । वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहलाने का अधिकारी वही है जो अनेकान्तवाद का अवलम्बन लेकर समस्त दर्शनों पर समभाव रखता हो । मध्यस्थभाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटि-कोटि शास्त्रों को पढ़ लेने पर भी कोई लाभ नहीं होता । हरिभद्रसूरि ने लिखा है-आग्रहशील व्यक्ति युक्तियों को उसी जगह खींचतान करके ले जाना चाहता है जहाँ पहले से उसकी बुद्धि जमी हुई है, मगर पक्षपात से रहित मध्यस्थ पुरुष अपनी बुद्धि का निवेश वहीं करता है जहाँ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक . ४७ युक्तियाँ उसे ले जाती है । अनेकान्त दर्शन यही सिखाता है कि युक्ति-सिद्ध वस्तु-स्वरूप को ही शुद्ध बुद्धि से स्वीकार करना चाहिए । बुद्धिका यही वास्तविक फल है । जो एकान्त के प्रति आग्रहशील है और दूसरे सत्यांग को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं है, वह तत्त्व रूपी नवनीत नहीं पा सकता। गोपी नवनीत तभी पाती है जब वह मथानी की रस्सी के एक छोर को खींचती है और दूसरे छोर को ढीला होड़ती है। अगर वह एक ही छोर को खींचे और दूसरे को ढीला न छोड़े तो नवनीत नहीं निकल सकता । इसी प्रकार जब एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को प्रधान रूप से विकसित किया जाता है तभी सत्य का अमृत हाथ लगता है। अतएव एकान्त के गन्दले पोखर से दूर रह कर अनेकान्त के शीतल स्वच्छ सरोवर में अवगाहन करना ही उचित है। स्याद्वाद का उदार दृष्टिकोण अपनाने से समस्त दर्शनों का सहज ही समन्वय साधा जा सकता है । आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट किया है, "स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ही वस्तुतत्त्व के प्रकाशक हैं । भेद इतना ही है कि केवलज्ञान वस्तु का साक्षात् ज्ञान कराता है जबकि स्याद्वाद श्रुत होने से असाक्षात् ज्ञान कराता है।" स्याद्वाद का सुव्यवस्थित निरूपण जैन-दर्शन ने किया, यह ठीक है, किन्तु यह नियम तो जगत् जितना ही प्रात्तोन तथा व्यापक है । मल्लिषेण के कथानुसार स्याद्वाद् संसारविजयी और निष्कण्टक राजा है । "एवं विजयिनि निष्कण्टके स्याद्वादमहानरेन्द्रे" इस सिद्धान्त का उल्लेख ऋग्वेद तक में मिलता है "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' । (ऋग्वेद १/१६४/४६) एक ही सत् तत्त्व का विप्र विविध प्रकार से वर्णन करते हैं - यह स्याद्वाद का बीजवाक्य है । जैन दर्शन की दृष्टि के अनुसार एक ही पदार्थ के विपरीत वर्णन अपनी अपनी दृष्टिसे सच्चे हैं । पारिभाषिक शब्दों में कहा जाय तो प्रत्येक पदार्थ में "विरुद्धधर्माश्रयत्व" है । इस प्रकार का परस्पर विरोधी वर्णन उपनिषद में भी एक जगह आता है। आत्मा के विषय में उपनिषदकार कहते हैं "वह चलता है, वह स्थिर है, वह दूर है, वह समीप है, वह सर्वान्तर्गत है, वह सभी से बाहर है"- "तदेजति तन्नजति तद्रे तदन्तिके । तदन्तरस्य Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद सर्वस्य तद्सर्वस्यास्य बाह्यतः ।" ईश - ५ सोक्रेटीस को अपने ज्ञान की अपूर्णता का, - उसकी अल्पता का पूरा भान था । इस मर्यादा के भान को ही उसने ज्ञान अथवा बुद्धिमत्ता कहा है । वह कहता था कि मैं ज्ञानी हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं अज्ञ हूँ। दूसरे ज्ञानी नहीं हैं क्योंकि वे यह नहीं जानते कि वे अज्ञ हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती से पूछा गया “आप विद्वान हैं या अविद्वान?" स्वामी जी ने कहा “दार्शनिक क्षेत्र में विद्वान और व्यापारिक क्षेत्रमें अविद्वान।" यह अनेकान्तवाद नहीं तो क्या है ? प्लेटो ने इस स्याद्वाद अथवा सापेक्षवादका निरूपण विस्तार से किया। उसने कहा कि हम लोग महासागर के किनारे खेलनेवाले उन बच्चों के समान हैं जो अपनी सीपियों से सागर के पूरे पानी को नापना चाहते हैं। हम उन सीपियों से महोदधि का पानी खाली नहीं कर सकते फिर भी अपनी छोटी-छोटी सीपियों में जो पानी इकट्ठा करना चाहते हैं, वह उस अर्णव के पानी का ही एक अंश है, इसमें कोई संशय नहीं । उसने और भी कहा है कि भौतिक पदार्थ सम्पूर्ण सत् और असत् के बीच के अर्धसत् जगत् में रहते जैन की तरह उसने भी जगत को सदसत् कहते हुए समझाया कि वृक्ष, पक्षी, अथवा मनुष्य आदि "है" और "नही' है" अर्थात् एक दृष्टि से "है" और अन्य दृष्टिसे "नहीं है" "अथवा" एक समय में "है" और दूसरे समय में नहीं है अथवा न्यून या अधिक है, अथवा परिवर्तन या विकास की क्रिया से गुजर रहे हैं । सत् और असत् दोनों के मिश्रण रूपसे हैं अथवा सत् और असत् के बीच में हैं । उसकी व्याख्या के अनुसार नित्य वस्तु का आकलन अथवा पूर्ण-आकलन "सायन्स" (विद्या) है और असत् अथवा अविद्यमान वस्तु का आकलन अथवा संपूर्ण अज्ञान “नेस्यन्स" (अविद्या) है, किन्तु इन्द्रियगोचर जगत् सत् और असत् के बीच का है। इसीलिए उसका आकलन भी "सायन्स" तथा "नेस्यन्स" के बीच का है ।२ इसके लिए उसने "ओपिनियन" शब्द का प्रयोग किया है। उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि "नोलेज" का अर्थ पूर्ण ज्ञान है, और "ओपिनियन" का अर्थ अंश ज्ञान Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक ४९ है। उसने " ओपिनियन" की व्याख्या "संभावना विषयक विश्वास" (Trust in probabilities) भी की है अर्थात् जिस व्यक्ति में अपने अंश - ज्ञान या अल्प ज्ञान का भान जगा हुआ होता है वह नम्रता से पद-पद पर कहता है कि ऐसा होना भी संभव है मुझे ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिए स्याद्वादी पद-पद पर अपने कथन को मर्यादित करता है । स्याद्वादी जिद्दी की तरह यह नहीं कहता कि मैं ही सच्चा हूँ और बाकी झूठे हैं । लुई फिशर ने गांधीजी का एक वाक्य लिखा है- " मैं स्वभाव से ही समझौता - पसन्द व्यक्ति हूँ क्योंकि मैं ही सच्चा हूँ ऐसा मुझे कभी विश्वास नहीं होता । १३ - इसलिए सभी धर्म और सभी दर्शन जैसा कि गाँधीजीने कहा है, सच तो हैं, किन्तु अधूरे हैं अर्थात् प्रत्येक में सत्य का न्यूनाधिक अंश है। किसी एक में सम्पूर्ण सत्य नहीं है। टेनिसन ने कहा है कि सभी धर्म और दर्शन ईश्वर के ही स्फुलिंग हैं किन्तु सत्यनारायण स्वयं उन सभी में बद्ध न होकर, उनसे दशांगुल उँचा ही रहता है । १४ "They are but broken dish of thee And thou o Lord! art More than they"""" गाँधीजी ने १९३३ ई. में डो. पट्टाभि से कहा था कि जब मैं किसी मनुष्य को सलाह देता हूँ तब अपनी दृष्टि से नहीं किन्तु उसीकी दृष्टि से देता हूँ । इसके लिए मैं अपने को उसके स्थान में रखने का प्रयत्न करता हूँ । जहाँ मैं यह क्रिया नहीं कर सकता वहाँ सलाह देने से इन्कार कर देता हूँ ॥१६ I advise a man not from my standpoint but from his. I try to put myself in his shoes. When I cannot do so, I refuse to advise.१७ इस प्रकार की देखने - सोचने की आदत प्रत्येक विषय में हो तो हमें बहुत सी वस्तुएँ अनोखे स्वरूप में ही दिखाई देगी। इसका एक उदाहरण देती हूँ - "स्त्री की बुद्धि हमेशा तुच्छ होती है।" इत्यादि स्त्रियों की हीनता दिखानेवाले अनेक वचन पुरुषों ने लिखे हैं। स्त्रियों की तार्किक शक्ति पुरुषों के समान नहीं है, यह सच हैं। विलियम हेजलिट ने कहा है - स्त्रीयाँ मिथ्या तर्क नहीं करतीं क्योंकि वे तर्क करना जानती ही नहीं Women do not reason Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद wrong for they do not reason at all. .. किन्तु आँख के दर्शनमात्र से पुरुष के हृदय की परीक्षा करने की जो शक्ति स्त्री में है वह पुरुष में नहीं है। यह भी सच है कि पुरुष में बुद्धि का और स्त्री में भावना का प्राधान्य है । पुराना स्थान छोडकर नया स्थान स्वीकृत करना पुरुष के लिए सहज नहीं है, पुराने की ममता छोडना पुरुषों के लिए सरल नहीं है, किन्तु स्त्री ? वह एक स्थान तथा कुटुम्बकी माया ममता-छोड़ कर किसी अन्य स्थान तथा अनजान परकीय व्यक्तियों को सहज ही में स्वकीय बना लेती है। : When crowned with blessings. She doth rise To Take her latest leave of home, As parting with a lon; embrace, She enters other realn s of love.''१८ इस क्रिया को भी वह सहज तथा सरस रूप से करती है। वही स्त्री माता होने के बाद कितनी बदल जती है और विधवा होने के बाद सभी वस्त्र तथा आभूषणों को, मौज और शौक को सर्प की केंचुली की भांति उतार कर फेंक देने में एक क्षण की भी देर नहीं करती । भावनाओं के इतने परिवर्तनों का एक ही जीवन में अनुभव क ना सामान्य बात नहीं है। संसार में यदि सचमुच कहीं जादू है तो वह स्त्री के हृदय में ही है। गांधीजी कहते थे कि मेरे अन्दर स्त्री-हृदय है। इसीलिए उन्होंने स्त्री-विकास में काफी योग दिया। अनेक स्त्रियां अपना सुख-दुःख निःसंकोच उनके सामने कह सकती थीं । स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद किसी भी विषय के दो अन्तों को छोडकर शान्ति का मध्यम मार्ग ग्रहण करने का आदेश देता है। स्याद्वाद का अर्थ यही है कि सदगुण के अनेक रूप हैं । साधु की तपस्या, सती का सतीत्व, बालक की निर्दोषता, सुभट का शौर्य आदि सभी के लिए संसार में स्थान है । स्याद्वादी इन सभी का सम्मान कर सकता है। वह यदि निसर्गप्रेमी हो तो वर्षाकाल की वर्षा, शरद ऋतु की शीतलता और ग्रीष्मकाल का आतप इन सभी अवस्थाओं का आनन्द ले सकता है। क्योंकि वह समझता है कि प्राकृतिक रचना में इन सबको स्थान है, सभी का उपयोग Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक . ५१ है। इनमें से किसी भी ऋतु की विपरीतता से अन्य ऋतुएँ भी विकृत हो जाती हैं । जो कुछ अनुभव में आवे उसके साथ समरस होने का प्रयास करना, यही स्याद्वाद की प्रवृत्ति का चिह्न है । स्याद्वादी अपने विरोधियों के कथन का उन्हीं की दृष्टि से आदर कर सकता है, यद्यपि वह उससे सर्वथा सम्मत न भी हो । दधि (दूधवाली) ढुलमुल नीति की निन्दा की जाती है, किन्तु वह सदैव के लिए अवगुण ही है ऐसा नहीं कहा जा सकता । दधि और दूध दोनों के गुण जाननेवाला यदि प्रकृति-भेद के कारण दधि नहीं खा सकता तो भी वह उसके गुण की उपेक्षा नहीं कर सकता । वह यह समझता है कि प्रत्येक वस्तु या कार्य अपने ही समुचित स्थल-काल-संयोग में सुशोभित होता है । यदि अनुचित कालादि संयोगों में रखा जाये तो निन्दापात्र, कुरूप या जुगुप्सित हो जाता है । इसीलिए “मैले" शब्द की व्याख्या की गई है - अस्थान में रखा हुआ पदार्थ (Matter misplaced is dirt) अतएव कोई भी वस्तु या कार्य स्वतंत्र रूप से असुन्दर या निरूपयोगी नहीं होता । त्याज्य मल भी जब जमीन में गाड़ा जाता है तब वह बहुमूल्य खाद के रूप में कृषि के लिए पुष्टिकारक पदार्थ बन जाता है। ... अतएव ढुलमुल नीति जैसे छिछोरे आक्षेपों का जोखिम उठाकर भी स्याद्वाद सापेक्षवाद अर्थात् रिलेटिविटी का रिद्धान्त परस्पर विरुद्ध दिखनेवाली वस्तुओं का एकत्र-समर्थन करता है और परस्पर विरोधी वस्तुओं के संमिश्रण का प्रयत्न करता है। वह कहता है कि मनुष्य में और समाज में प्रेम आवश्यक है और वैराग्य भी आवश्यक है । कोमलता चाहिए और कठोरता भी चाहिए; छूट चाहिए और मर्यादा भी चाहिए । प्रणालिका-रक्षण और प्रणालिका-भंग दोनों आवश्यक है। यदि वस्तुतः देखा जाय तो यही सलाह सच्ची है। उदाहरण के तौर परं प्रेम और वैराग्य परस्पर विरोधी नहीं है , अपितु एक ही सिक्के के दो बाजू हैं । प्रेम में जब वैराग्य की मात्रा हो तभी वह सच्चा प्रेम हो सकता है, अन्यथा वह केवल मोह या आसक्ति रूप बन जायेगा । "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः"१९ - त्याग करके भोग करो । उपनिषद के इस वाक्य में यही बात कही गई है । दूसरी और वैराग्य भी प्रेम से अनुरंजित होने पर ही सुशोभित होता है, और सुफलदायक बनता है । अन्यथा वह मनुष्य के हृदय को शुष्क, वीरान बना देता है। स्त्री-पुत्रादि के साथ कलह करके यदि संसार-त्याग किया Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद हो तो वह वैराग्य नहीं है । सिद्धार्थ का यशोधरा से असीम स्नेह था इसी से उनका गृह-त्याग महाभिनिष्क्रमण कहा गया और उसीमें से "आत्मनो हिताय जगतः सुखाय च" इस प्रकार का संसार के लिए एक उपयोगी सन्देश प्रकट हुआ । स्याद्वाद अथवा सापेक्षवाद से यह बात फलित होती है कि कोई भी गुण जब तक अपनी मर्यादा का उल्लघंन नहीं करता, गुण रहता है, किन्तु यदि उसमें न्यूनता या अतिशयता आ जाय तो वह दोष हो जाता है । यही मध्यम मार्ग है। गीता में भी कहा है कि समत्व ही योग है । मैडेम ब्लेवेट्स्की ने सन्तुलन (Equilibrium) रखने का उपदेश दिया है। किन्तु जीवन में सदगुण की साधना करना और साथ ही साथ सन्तुलन की रक्षा करना रस्सी पर नाचने से कम नहीं है। जीवन का लोलक जब तक हिलता रहता है तब तक वह बीच की समत्व स्थिति से आगे या पीछे ही रहता है । बीच की स्थिति में तो केवल एक क्षण के लिए ही आता है यदि वह उस स्थिति में हमेशा के लिए स्थिर हो जाय तो जीवन की घड़ी ही बन्द हो जाय । अतः जीवन की गति सतत सन्तुलन को बिगाड़ने वाली ही एक क्रिया है, तथापि जीवन की गति को चलाते हुए सन्तुलन की रक्षा करना यही मनुष्य का साध्य है । उँचे लटकाये गये तराजू के दोनों पलड़ों को स्थिर रखने की क्रिया के समान यह मार्ग धर्म-साधन की दृष्टि से ही नहीं अपितु सफल एवं सरल व्यवहार के लिए भी आवश्यक है। संसार में कोई भी मनुष्य सर्वसद्गुणों का समान भाव से अनुशीलन नहीं कर सकता । देश-काल का वातावरण, आनुवंशिक संस्कार तथा पूर्वजन्म से प्राप्त एवं इस जन्म में विकसित वृत्ति इन सभी सीमाओं के अनुसार ही वह भिन्न भिन्न गुणों का अनुशीलन कर सकता है। उसकी शक्तियों के विकास में भी इसी प्रकार का तारतम्य आ जाता है । प्रकृति का गुरुत्वाकर्षण सर्वत्र संतुलित है। अतः एक गुण या शक्ति की न्यूनता या अधिकता होने पर उसके पूरक गुण या शक्ति उसी परिणाम में कम या अधिक होते हैं । एक इन्द्रिय के कमजोर होने पर दूसरी अधिक बलवान होती है। एक के अधिक बलवान होने पर दूसरी मन्द हो जाती है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक ५३ 1 इसके उपरान्त मनुष्य की जो विशेषता एक दृष्टि से गुणरूप प्रतिभासित होती है वही अन्य दृष्टि से दोषरूप दिखाई देती है । लेकी ने अपने 'हिस्ट्री ओफ युरोपीयन मोरल्स' में इसका एक उदाहरण दिया है कि जो मनुष्य उदार होता है वह खर्चीला दीखता है और जो मनुष्य करकसरपूर्वक खर्च करता है वह कंजूस दीखता है । इसी प्रकार स्त्री का प्रेम संकुचित है क्योंकि वह अनन्य है, उसका मन अन्यत्र नहीं जाता यही उसकी शोभा है। नदी का प्रवाह जहाँ गहरा होता है वहाँ संकरा और जहाँ विस्तृत होता है वहाँ छिछला होता ही है । यही बात स्त्री के प्रेम के विषय में भी समझनी चाहिए। जिस प्रेम के बल अन्तर का प्रत्येक तार हिल उठता है, वह प्रेम एक ही साथ कितने व्यक्तियों में बहाया जा सकता है ? इमरसन ने इसे “ Law of Compensation” -क्षतिपूर्ति का नियम कहा है । इस विषय का उसका जो निबन्ध है वह स्याद्वाद विषयक ही है । उसमें उसने लिखा है कि हमारी शक्ति अपनी निर्बलता से ही उत्पन्न होती है (Our strength grows out of our weakness) प्रत्येक मिठास में खटाई का अंश होता ही है और प्रत्येक बुराई में भलाई का पक्ष भी रहता ही है Every sweet hath its sour; every evil its good. फ्रांसिस टोमसन ने भी कहा है कि माधुर्य में शोक और शोक में माधुर्य समाविष्ट ही है । The sweetness in the sad and the sadness in the sweet. यही समझ हमें बहुत आश्वासन देती है। इतना ही नहीं किन्तु इससे हमें दूसरों में जो दोष दिखाई देते हैं उनमें भी गुणों का दर्शन होने लगता है । ए. जी. गार्डिनर ने अपने एक निबन्ध में किसी एक फ्रेंच लेखक का उद्धरण दिया है । उसमें उसने लिखा है कि जोन और स्मिथ मिलते हैं तब वस्तुत: छः व्यक्तियों का मिलन होता है, वह इस प्रकार है- जोन के अपने मन में जोन का खुद का चित्र, स्मिथ के मन में जोन का चित्र, ईश्वर की दृष्टि में जोन का चित्र (John as john knows himself John as smith Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद knows him, John as God Knows him). -इसी प्रकार तीन स्मिथ । इसका तात्पर्य यह है कि हम अपने को या किसी अन्य को सम्पूर्ण रूप से नहीं जान सकते । यह समझ एक ओर हमें अन्य के प्रति उदार बनना सिखाती है और अन्य के द्वारा होनेवाली टीका के प्रति-सहिष्णु बनना सिखाती है । अर्थात् अन्य के दर्पण में हमारा जो प्रतिबिम्ब है उसे देखने की शिक्षा देती है। . उपनिषद में कहा है कि मा को बड़ा रखो, वह व्रत है - "महामना स्यात् तद् व्रतम् ।" इसीको सेन्ट पॉन ने “charity" कहा और उसे श्रद्धा तथा आशा से भी बड़ा पद दिया । And now abideth faith. hope, charity these three; but the greatest of these is charity. इसी Charity को गीता में "आत्मौपम्य" कहा है और धम्मपद में जिसके विषय में "अत्तानं उपमं कत्वा" ऐसा कहा गया है। किन्तु गुणों के विषय में ऊपर जो कुछ कहा गया है उसका कहीं अनर्थ न हो, इस दृष्टिकोण को सामने रखकर इतना-सा स्पष्टीकरण कर देना चाहती हूँ कि पाप व पुण्य में कोई भेद नहीं है और "रामाय स्वस्ति" रावणाय स्वस्ति" कहना एक ही बात है - ऐसा स्यावाद का अर्थ नहीं है। जो तारतम्य है वह गुणोत्कर्ष की अपेक्षा से है। इसी के साथ इतना और समझना चाहिए कि कई बार पाप-पुण्य का निर्णय करना जरा अटपटासा हो जाता है। इसी प्रकार कई बार व्यक्ति अनिच्छा होने पर भी विवश होकर पाप करता है। हम स्वयं भी ऐसा ही करते हैं। इससे गाँधीजी ने यह फलितार्थ निकाला कि पाप का तिरस्कार करना चाहिए, पापी का नहीं । पाप पर दया करके उसे पुण्य की कोटि में रखने से अनर्थ ही होता है। इसलिए इतिहासकार को एतिहासिक व्यक्तियों के कार्य का मूल्यांकन करने की जो सलाह लार्ड एकटन ने दी है वह ठीक है, क्योंकि न्याय व्यक्ति का नहीं अपितु उसके कार्यों का होता है। जीवन में अनुभव (Experience) और तर्क (Reason) दोनों की भिन्न भिन्न दृष्टियां हैं । अनुभव की दृष्टि से देखने पर मालूम होता है कि प्रकृति ने जगत् के समान जीवन में भी बाड खडी नहीं की है। जीवन में तो तेज और छाया (Light and shade) है अथवा जैन दर्शन के कथानुसार तरतम भाव है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक बार्डे या दीवारें तो तर्क ने खड़ी की हैं । किसी समय मनुष्य एक शिखर पर खड़ा रहकर बोलता है और कभी दूसरे पर । किन्तु वह एक-एक वाक्य के पीछे यह नहीं कह सकता कि इस समय मैं अमुक शिखर से बोल रहा हूँ । व्यवहार चलाने के लिए इसी प्रकार की गति आवश्यक है | अनुभव कहता है कि जो वस्तु ठंडी है वह गरम भी है। तर्क कहता है कि वस्तु या तो ठंडी ही है या गरम ही है ।ठंडी और गरम एकसाथ नहीं होसकती । इसीलिए अनुभव और तर्क का विरोध अपरिहार्य है। मनुष्य भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न शिखर पर खड़ा रह कर बोलता है । अतः उसके कथन में परस्परविरोध होना स्वाभाविक है। ऐसी अवस्था में किसी व्यक्ति के वचनों में परस्पर असंगति बताकर उसका खंडन करने का आनंद लिया जा सकता है । किन्तु खंडन करनेवाले के अपितु व्यक्तिमात्र के कथन में भी परस्पर विरोध होता ही है । इसलिए हमें इस प्रकार के आक्षेप से नहीं घबराना चाहिए । ५५ 1 इस निरूपण से दो बातें फलित होती है - एक तो यह कि संसार में कुछ भी असंकीर्ण नहीं है सब संकीण है- मिश्र है। किसी भी प्रश्न का एक निदान नहीं है और न एक उपचार ही है। जीवन का कोई भी क्षेत्र या अंग लिया जाय उसमें इन्द्रधनुष के समान विविध रंगो का मिश्रण होता है यह जानकर हम विविधता और मिश्रण से व्याकुल नहीं होते । विविधता प्रकृति को प्रिय है । यही उसकी लीला है तब हम विविधता के अवलोकन से रस प्राप्त करने के बजाय व्याकुल क्यों हो ? लेकि ने कहा है कि जीवन कविता नहीं है, इतिहास है "Life is history and not poetry” इसका अर्थ यह नहीं की जीवन में कविता की आवश्यकता नहीं है अपितु इसका आशय यही है कि संसार में कुछ भी सीधा और सरल नहीं होता । सर्वत्र उतार चढ़ाव दृष्टिगोचर होता है । उसमें अनेक विरोधी बल एक ही साथ कार्य करते हैं उसमें एक ही काल में ऊर्ध्व गति और अधो गति दोनों है । ऐसी पेचीदा स्थिति में क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, इसका निर्णय करना बहुत कठिन है । इसीलिए गीता में कहा है कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है, इसका निर्णय करने में ज्ञानी भी भ्रान्त हो जाते हैं (कि कर्म किमकर्मेति कवयोऽव्यत्र मोहिताः) । गाँधीजी ने कहा है कि जीवन का मार्ग सीधा नहीं I - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद है उसमें बहुत उलझनें है। वह रेलगाडी नहीं कि एक बार चलने पर बराबर दौडती ही जाय - ____ “Life is not one straight road. There are too many complexities in it. It is not like a train which once started keeps on running."२० दूसरी बात यह है कि संसार में जितने भी मतभेद हैं उनका अधिकांश तो दृष्टिभेद और एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न अंगों पर भार देने के कारण हैं । जो व्यक्ति जगत की एकता की खोज में लगा हो उसे विविधता की उपेक्षा करनी पड़ती है। उस विविधता को उसे 'पश्यन्नपि न पश्यति' करनी पड़ती है। जैन दर्शन क्योंकि अनेकान्तदर्शन है और अनेकान्तदर्शन में प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक माना गया है। उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का यथार्थ बोध प्रमाण और नय से ही किया जा सकता है। प्रमाण का अर्थ है जिसके द्वारा पदार्थ का सम्यक् परिज्ञान हो । जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण का लक्षण है "स्व-पर-व्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्" अर्थात् स्व और पर का निश्चय करने वाला ज्ञान ही प्रमाण है । जैन दर्शन उसी ज्ञान को प्रमाण मानता है जो अपने आपको भी जाने और अपने से भिन्न पर-पदार्थों को भी जाने और वह भी निश्चयात्मक एवं यथार्थ रूप में । प्रमाण-वाक्य सकलादेश है, क्योंकि उससे समग्र धर्मात्मक वस्तु का प्रधान रूप से बोध होता अनेकान्तवाद का आधार सप्तनय है। प्रमाण से गृहीत अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी भी एक धर्म का मुख्य रूप से ज्ञान होना नय है। किसी एक ही वस्तु के विषय में भिन्न भिन्न मनुष्यों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं। ये दृष्टिकोण ही नय है - यदि वे परस्पर सापेक्ष हैं तो । परस्पर विरुद्ध दिखने वाले विचारों के मूल कारणों का शोध करते हुए उन सबका समन्वय करनेवाला शास्त्र नयवाद है। नय -वाक्य विकलादेश है, क्योंकि उससे वस्तु के एक धर्म का ही बोध होता है । वह विभिन्न एकांगी दृष्टियों में सुन्दर एवं साधार समन्वय स्थापित करता है। आचार्य ध्रुव ने ठीक ही कहा है कि स्याद्वाद एक वाद नहीं अपितु दृष्टि है । सर्व वादों को देखने के लिए यह अंजन है अथवा यों कहिए कि चश्मा है । उन्होंने यह भी कहा है कि स्याद्वाद एक प्रकार की बौद्धिक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक अहिंसा है। स्याद्वाद सिद्धान्त की चमत्कारिक शक्ति और व्यापक प्रभाव को " स्याद्वाद से सब सत्य हृदयंगम करके डो. हर्मन जैकोबी ने कहा था विचारों का द्वार खुल जाता है ॥" सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है - - ५७ " जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वथा ण णिव्वइए । तस्य भुवणेक- गुरुणो णमो ऽगंतवायस्स । २१ भावार्थ - जिसके बिना लोकव्यवहार सर्वथा नहीं चलता, उस भुवन श्रेष्ठ गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार हो । इंग्लैंड के प्रसिद्ध विद्वान डो. थोमसन ने कहा है - "Jain logic is very high. The place of Syadvada in it is very important. It throws a fine light upon the various conditions and states of thing." (न्यायशास्त्र में जैन न्याय उच्च है । उसमें स्याद्वाद का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है । वस्तुओं की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों पर वह सुन्दर प्रकाश डालता है) महामहोपाध्याय रामशास्त्री ने कहा है "स्याद्वाद जैन दर्शन का अभेद किला है । उसमें प्रतिवादियों के मायामय गोले प्रवेश नहीं कर सकते हैं ।" महात्मा गाँधी स्याद्वाद के विषय में कहते हैं, " स्याद्वाद मुझे बहुत प्रिय है। उसमें मैने मुसलमानों की दृष्टि से उनका, ईसाइयों की दृष्टि से उनका, इस प्रकार अन्य सभी का विचार करना सीखा । मेरे विचारों को या कार्य को कोई गलत मानता तब मुझे उसकी अज्ञानता पर पहले क्रोध आता था । अब मैं उनकी दृष्टिबिन्दु, उनकी आँखों से देख सकता हूँ। क्योंकि मैं जगत् के प्रेम का भूखा हूँ । स्याद्वाद का मूल अहिंसा और सत्य का युगल है ।" आगम साहित्य के मनीषी आचार्य श्री तुलसी ने कहा- " स्याद्वाद एक समुद्र है जिसमें सारे वाद विलीन हो जाते हैं ।" स्याद्वाद एक तर्क-व्यूह के रूप में गृहीत नहीं हुआ, किन्तु सत्य Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद के एक द्वार के रूप में गृहीत हुआ । जैन दर्शन में स्याद्वाद का इतना अधिक महत्त्व है कि आज स्याद्वाद जैन दर्शन का पर्याय बन गया है। जैन दर्शन का अर्थ स्याद्वाद के रूप में लिया जाता है। वास्तव में स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है। जैन आचार्यों के सारे दार्शनिक चिन्तन का आधार स्याद्वाद है। जैन तीर्थंकरों ने मानव की अहंकारमूलक प्रवृत्ति और उसके स्वार्थी वासनामय मानस का स्पष्ट दर्शन कर उन तत्वों की ओर प्रारम्भ से ही ध्यान आकृष्ट किया जिससे मानव की दृष्टि का एकांगीपन दूर हो और उसमें अनेकांगिता का समावेश हो तथा वह अपनी दृष्टि की तरह सामने वाले की दृष्टि का भी सम्मान सीखे और उसके प्रति सहिष्णु बने । दृष्टि में इस प्रकार के भावों का समावेश हो जाने से उसकी भाषा मृदुल होती है। उसमें स्वगत की हठाग्रता दूर होकर समन्वय की प्रवृत्ति आ जाती है । उसकी भाषा में तिरस्कार भाव न होकर दूसरों के अभिप्राय, विवक्षा और अपेक्षा दृष्टि को समझने की क्षमता आ जाती है। यही स्थिति उसकी मानसिक शुद्धि अर्थात् स्याद्वादमय वाणी के स्वीकरण की है, और वैसी स्थिति में मानव का आचारव्यवहार पूर्णतः 'मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकम्' के अनुरूप हो जाता है । स्याद्वाद सिद्धान्त जैन तीर्थकरों की मौलिक देन है क्योंकि यह ज्ञान का एक अंग है,जो तीर्थकरों के केवल-ज्ञान में स्वतः ही प्रतिबिंबित होता है। स्याद्वाद सिद्धान्त के द्वारा मानसिक मतभेद समाप्त हो जाते हैं, और वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट हो जाता है । इसको पाकर मानव अन्तर्दृष्टा बनता है । स्याद्वाद का प्रयोग जीवन-व्यवहार में समन्वयपरक है। वह समता और शान्ति को सर्जता है, बुद्धि के वैषम्य को मिटाता है। भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ मनीषी डॉ. रामधारीसिंह दिनकर का स्पष्ट अभिभत है कि "स्यावाद का अनुसंधान भारत की अहिंसा-साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना शीघ्र अपनावेगा विश्व में शान्ति उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।" जैन दर्शन युक्तिपूर्ण तथ्यों को ग्रहण करने का सदेव सन्देश प्रस्तुत करता है उसका व्यक्तिविशेष में कोई आग्रह नहीं बल्कि वह तो सिद्धांत की Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक उदात्त प्रवृत्ति पर बल देता है। आचार्य हरिभद्र का कथन इसी तथ्य की पुष्टि करता है। "पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।" -भगवान् महावीर के प्रति न तो मेरा विशेष अनुराग है, और न ही सांख्यदर्शन के प्रवर्तक कपिल आदि से कोई द्वेष ही है । जिसका कथन युक्तिपूर्ण हो उसे स्वीकार करना चाहिए । पादटीप १. भगवती ८/४९९ २. वही १३/१२८ ३. वही १३/१२८ ४. स्याद्वाद मंजरी, पृ. ११५ ५. उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रद्दश्यते, अविभक्तासु सरित्स्विवोदधि : ॥ -सिद्धसेन । यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्याऽनेकान्तवादस्य क न्यूनाधिकशेमुषी तेन स्याद्वादमालम्ब्य सर्वदर्शनतुल्यताम् । मोक्षोद्देशाविशेषेण यः पश्यति स शास्त्रवित् ।। माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो येन तत्त्चारु सिद्ध्यति ॥ स एव धर्मवादः स्यादन्यद् बालिशवल्गनम् ।। माध्यस्थसहितं ह्येकपदज्ञानमपि प्रमा। शास्त्रकोटिवृथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना ।।" -ज्ञानसारः उपाध्याय यशोविजय आग्रही बत निनीषति युक्ति । तत्र, यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहिस्य तु युक्तियत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।। ८. एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुत्वमितरेण अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ।। स्याद्वादकेवलज्ञाने वस्तुतत्त्वप्रकाशने भेदः साक्षादसाक्षाच्च हावस्त्वन्यतमं भवेत् ।। आप्तमीमांसा, १०५ १०. सी.ई.एम् जोड-फिलोसोफी फोर आवर टाइम्स, पृ.४९ . . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद ११. एरिकलेअन - प्लेटो - पृ. ६० १२. वही, पृ.६४ १३. I am essentially a man of compromise because I am never sure ___ I am right.” -Louis Fischer - “The great Challenge" १४. ऋग्वेद १०-९-१ १५. In Memoriam १६. More Conversations of Gandhiji -by Chandra Shankar Shukla. १७. More Conversations of Gandhiji -By Chandra Shankar Shukla १८. In Memoriam - 39 - Tennyson १९. ईशोपनिषद । २०. C. P. Shukla - “Conversation of Gandhiji p.10.. २१. सन्मति तर्क ३/६८ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम प्रकरण वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध का विभज्यवाद -एक तुलना विभज्यवाद सूत्रकृतांग में भिक्षु कैसी भाषाका प्रयोग करें, इस प्रश्न के प्रसंगमें कहा गया है कि विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए। विभज्यवादका मतलब ठीक समझने में हमें जैन टीकाग्रन्थोंके अतिरिक्त बौद्ध .ग्रन्थ भी सहायक होते हैं । बौद्ध मज्झिमनिकाय (सुत्त. ९९) में शुभ माणवक के प्रश्नके उत्तरमें भ.बुद्धने कहा कि- "हे माणवक ! मैं यहाँ विभज्यवादी हूँ, एकांशवादी नहीं।" उसका प्रश्न था कि मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रव्रजित आराधक नहीं होता। इसमें आपकी क्या राय है? इस प्रश्न का एकांशी हाँ में या नहीं में उत्तर न देकर भगवान बुद्धने कहा कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है तो निर्वाणमार्गका आराधक नहीं और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो वह भी आराधक नहीं । किन्तु यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपत्तिसम्पन्न है, तभी आराधक होते हैं। अपने ऐसे उत्तरके बल पर वे अपने आपको विभज्यवादी बताते हैं और कहते हैं कि मैं एकांशवादी नहीं हूँ। ___यदि वे ऐसा कहते कि गृहस्थ आराधक नहीं होता, त्यागी आराधक होता है या ऐसा कहते कि त्यागी आराधक होता है, गृहस्थ आराधक नहीं होता · तब उनका वहं उत्तर एकांशवाद होता । किन्तु प्रस्तुतमें उन्होंने त्यागी या गृहस्थकी आराधकता और अनाराधकता बताया है। अर्थात् प्रश्नका उत्तर विभाग करके दिया है अतएव वे अपने आपको विभज्यवादी कहते हैं । । यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि भगवान् बुद्ध सर्वदा सभी प्रश्नोंके उत्तरमें विभज्यवादी नहीं थे। किन्तु जिन प्रश्नों का उत्तर विभज्यवादसे ही संभव था उन कुछ ही प्रश्नोंका उत्तर देते समय ही वे विभज्यवादका अवलम्बन लेते उपर्युक्त बौद्ध सूत्रसे एकांशवाद और विभज्यवादका परस्पर विरोध स्पष्ट सूचित हो जाता है । जैन टीकाकार विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद अर्थात् Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद अनेकान्तवाद करते हैं। एकान्तवाद और अनेकान्तवादका भी परस्पर विरोध स्पष्ट ही है । ऐसी स्थितिमें सूत्रकृतांगगत विभज्यवादका अर्थ अनेकान्तवाद या नयवाद या अपेक्षावाद या पृथक्करण करके, विभाजन करके किसी तत्त्वके विवेचन का वाद भी लिया जाय तो ठीक ही होगा। अपेक्षाभेदसे स्यात्शब्दांकित प्रयोग आगममें देखे जाते हैं । एकाधिक भंगोंका स्याद्वाद भी आगममें मिलता है। अतएव आगमकालीन अनेकान्तवाद या विभज्यवादको स्याद्वाद भी कहा जाय तो अनुचित नहीं। भगवान बुद्धका विभज्यवाद कुछ मर्यादित क्षेत्रमें था । और भगवान महावीरका विभज्यवादका क्षेत्र व्यापक था । यही कारण है कि जैनदर्शन आगे जाकर अनेकान्तवादमें परिणत हो गया और बौद्धदर्शन किसी अंशमे विभज्यवाद होते हुए भी एकान्तवाद की ओर अग्रसर हुआ । भगवान् बुद्धके विभज्यवादकी तरह भगवान् महावीरका विभज्यवाद भी भगवतीगत प्रश्नोंत्तरोसे स्पष्ट होता है। गणधर गौतम आदि और भगवान् महावीर के कुछ प्रश्नोत्तर नीचे दिये जाते हैं जिनसे भ. महावीरके विभज्यवाद की तुलना भ. बुद्धके विभज्यवाद से करनी सरल हो सके। गौ०-कोई यदि ऐसा कहे कि "मैं सर्व प्राण, सर्वभूत, सर्व जीव, सर्व सत्त्वकी हिंसा का प्रत्याख्यान करता हूँ तो क्या उसका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान ! भ० महावीर-स्यात् सुप्रत्याख्यान है और स्यात् दुष्प्रत्याख्यान है । गौ०- भन्ते ! इसका क्या कारण ? भ० महावीर- जिसको यह भान नहीं कि ये जीव है और ये अजीव, ये त्रस है और ये स्थावर, उसका वैसा प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है । वह मृषावादी है। किन्तु जो यह जानता है कि ये जीव हैं और ये अजीव, ये त्रस हैं और ये स्थावर, उसका वैसा प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, वह सत्यवादी है। - भगवती श.७.उ.२.सू.२७० । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध... ६३ जयंती - भंते ! सोना अच्छा है या जगना ? भ० महावीर-जयंति ! कितनेक जीवोंका सोना अच्छा है और कितनेक जीवोंका जगना अच्छा है। ज०- इसका क्या कारण है ? भ० महावीर-जो जीव अधर्मी है, अधर्मानुग है, अधर्भाष्ठ है, अधर्माख्यायी है, अधर्मप्रलोकी है, अधर्मप्ररज्जन है, अधर्मसमाचार है, अधार्मिक वृत्तिवाले हैं वे सोते रहें यही अच्छा है; क्योंकि जब वे सोते होंगे अनेक जीवोंको पीड़ा नहीं देंगे । और इस प्रकार स्व, पर और उभयको अधार्मिक क्रियामें नहीं लगावेंगे अतएव उनका सोना अच्छा है। किन्तु जो जीव धार्मिक है, धर्मानुग है यावत् धार्मिक वृत्तिवाले हैं उनका तो जागन ही अच्छा है। क्योंकि ये अनेक जीवोंको सुख देते हैं और स्व, पर और उभय को धार्मिक अनुष्ठान में लगाते हैं अतएव उनका जागना ही अच्छा है। भगवान बुद्धके विभज्यवादकी तुलना में और भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं किन्तु इतने पर्याप्त हैं। इस विभज्यावादका मूलाधार विभाग करके उत्तर देना है जो ऊपरके उदाहरणोंसे स्पष्ट है। असली बात यह है कि दो विरोधी बातोंका स्वीकार एक सामान्यमें करके उसी एक को विभक्त करके दोनों विभागोंमें दो विरोधी धर्मो को संगत बताना, इतना अर्थ इस विभज्यवादका फलित होता है। किन्तु यहाँ एक बातकी ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। भ. बुद्ध जब किसीका विभाग करके विरोधी धर्मोंको घटाते हैं और भगवान् महावीरने जो उक्त उदाहरणोंमें विरोधी धर्मों को घटया है उससे स्पष्ट है कि वस्तुतः दो विरोधी धर्म एककालमें किसी एक व्यक्तिके नहीं बल्कि भिन्न भिन्न व्यक्तिओंके हैं । विभज्यवादका यही मूल अर्थ हो सकता है जो दोनों महापुरुषों के वचनोंमें एकरूपसे आया है। किन्तु भगवान् महावीरने इस विभज्यवादका क्षेत्र व्यापक बनाया है। उन्होंने विरोधी धर्मोको अर्थात् अनेक अन्तोंको एक ही कालमें और एक ही व्यक्तिमें अपेक्षाभेदसे घटाया है। इसी कारण से विभज्यवादका अर्थ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद हुआ और इसीलिये भगवान् महावीरका दर्शन आगे चलकर Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद अनेकान्तवादके नामसे प्रतिष्ठित हुआ । तिर्यक्सामान्यकी अपेक्षासे जो विशेष व्यक्तियां हों उन्हीं व्यक्तिओंमें विरोधी धर्मका स्वीकार करना यह विभज्यवादका मूलाधार है जबकि कि तिर्यग और उर्ध्वता दोनों प्रकारके सामान्योंके पर्यायोंमें विरोधी धर्मों का स्वीकार करना यह अनेकान्तवादका मूलाधार है । अनेकान्तवाद विभज्यवादका विकसित रूप है । अतएव वह विभज्यवाद तो है ही । पर विभज्यवाद ही अनेकान्तवाद है ऐसा नहीं कहा जा सकता । अतएव जैन दार्शनिकोंने अपने वादको जो अनेकान्तवादके नामसे ही विशेषरूपसे प्रख्यापित किया है वह सर्वथा उचित ही हुआ है। __ भगवान् महीवारने जो अनेकान्तवादको प्ररूपणा की है उसके मूलमें तत्कालीन दार्शनिकोंमेंसे भगवान् बुद्धके निषेधात्मक दृष्टिकोणका महत्वपूर्ण स्थान है । स्याद्वादके भंगोंकी रचनामें संजयबेलट्ठीपुत्तके विक्षेपवादसे भी मदद ली गई हो-यह संभव है। किन्तु भगवान् बुद्धने तत्कालीन नाना वादोंसे अलिप्त रहनेके लिये जो रूख अंगीकार किया था उसीमें अनेकान्तवादका बीज है ऐसा प्रतीत होता है । जीव और जगत् तथा ईश्वरके नित्यत्व-अनित्यत्वके विषयमें जो प्रश्न होते थे उनको उन्होंने अव्याकत बता दिया। इसी प्रकार जीव और शरीरके विषयमें भेदाभेदके प्रश्नको भी उन्होंने अव्याकृत कहा. है । जब कि भ० महावीरने उन्हीं प्रश्नोंका व्याकरण अपनी दृष्टिसे किया है। अर्थात् उन्हीं प्रश्नोंको अनेकान्तवादके आश्रयसे सुलझाया है। उन प्रश्नोंके स्पष्टीकरणमेंसे जो दृष्टि उनको सिद्ध हुई उसीका सार्वत्रिक विस्तार करके अनेकान्तवादको सर्ववस्तुव्यापी उन्होंने बनादिया है। यह स्पष्ट है कि भ० बुद्ध दो विरोधी वादोंको देखकर उनसे बचनेके लिए अपना तीसरा मार्ग उनके अस्वीकार में ही सीमित करते हैं, तब भ. महावीर उन दोनों विरोधी वादों का समन्वय करके उनके स्वीकारमें ही अपने नये मार्ग अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा करते हैं। अतएव अनेकान्तवादकी चर्चाका प्रारंभ बुद्धके अव्याकृत प्रश्नोंसे किया जाय तो उचित ही होगा । (१) भगवान बुद्धके अव्याकृत प्रश्न । भगवान् बुद्धने निम्निलिखित प्रश्नोंको अव्याकृत कहा है-" (१) लोक शाश्वत है ? Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध.... ६५ (२) लोक अशाश्वत है ? (३) लोक अन्तवान् है ? (४) लोक अनन्त है ? (५) जीव और शरीर एक है ? (६) जीव और शरीर भिन्न हैं ? (७) मरनेके बाद तथागत होते हैं ? (८) मरनेके बाद तथागत नहीं होते ? (९) मरनेके बाद तथागत होते भी हैं, और नहीं भी होते हैं ? (१०) मरनेके बाद तथागत न-होते हैं, और न-नही होते हैं ? इन प्रश्नोंका संक्षेप तीन ही प्रश्नमें है- (१) लोककी नित्यता - अनित्यता और सान्तता-निरन्तताका प्रश्न (२) जीव-शरीरके भेदाभेदका प्रश्न और (३) तथागतकी मरणोत्तर स्थिति-अस्थिति अर्थात जीवकी नित्यता अनित्यताको प्रश्न । ये ही प्रश्न भगवान बुद्धके जमानेके महान् प्रश्न थे। और इन्हींके विषयमें भ. बुद्धने एकतरहसे अपना मत देते हुए भी वस्तुतः विधायकरूपसे कुछ नहीं कहा । यदि वे लोक या जीवको नित्य कहते तो उनको उपनिषद् -मान्य शाश्वतवादको स्वीकार करना पडता और यदि वे अनित्य पक्षको स्वीकार करते तब चार्वाक जैसे भौतिकवादी संमत उच्छेदवादको स्वीकार करना पड़ता। इतना तो स्पष्ट है कि उनको शाश्वतव दमें भी दोष प्रतीत हुआ था और उच्छेदवादको भी वे अच्छा नहीं समझते थे । इतना होते हुए भी अपने नये वादको कुछ नाम देना उन्होंने पसंद नही किया और इतना ही कह कर रह गये कि ये दोनों वाद ठीक नहीं । अतएव ऐसे प्रश्नोंको अव्याकृत, स्थापित, प्रतिक्षिप्त बता दिया और कह दिया कि लोक शाश्वत हो या अशाश्वत, जन्म है ही, मरण है ही । मैं तो इन्हीं जन्ममरणके विघात को बताता हूँ। यही मेरा व्याकृत है । और इसीसे तुम्हारा भला होनेवाला है । शेष लोकादिकी शाश्वतता आदिके प्रश्न अव्याकृत हैं। उन प्रश्नोंका मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया ऐसा ही समझो। इतनी चर्चासे स्पष्ट है कि भ० बुद्धने अपने मन्तव्योंको विधिरूपसे न रख कर अशाश्वतानुच्छेदवादका ही स्वीकार किया है। अर्थात् उपनिषदमान्य नेति Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद ति की तरह वस्तुस्वरूपका निषेधपरक व्याख्यान करनेका प्रयत्न किया है। ऐसा करनेका कारण स्पष्ट यही है कि तत्कालमें प्रचलित वादोंके दोषोंकी ओर उनकी दृष्टि गई और इस लिये उनमें से किसी वादका अनुयायी होना उन्होंने पसंद नहीं किया । इस प्रकार उन्होंने एक प्रकारसे अनेकान्तवादका रास्ता साफ किया । भगवान महावीरने तत्द्वादोंके दोष और गुण दोनोंकी ओर दृष्टि दी । प्रत्येक वादका गुणदर्शन तो उस वादके स्थापकने प्रथमसे कराया ही था, उन विरोधीवादोंमें दोषदर्शन भ० बुद्धने किया । तब भगवान् महावीरके सामने उन वादोंके गुण और दोष दोनों आ गए । दोनों पर समान भावसे दृष्टि देने पर अनेकान्तवाद स्वतः फलित हो जाता है । भगवान् महावीरने तत्कालीन वादों के गुणदोषोंकी परीक्षा करके जितनी जिस वादमें सच्चाई थी उसे उतनी ही मात्रामें स्वीकार करके सभी वादोंका समन्वय करनेका प्रयत्न किया। यही भगवान् महावीर का अनेकान्तवाद या विकसित विभज्यवाद है । भगवान् बुद्ध जिन प्रश्नोंका उत्तर विधिरूपसे देना नहीं चाहते थे उन सभी प्रश्नोंका उत्तर देनेमें अनेकान्तवादका आश्रय करके भगवान् महावीर समर्थ हुए। उन्होंने प्रत्येक वादमें पीछे रही हुई दृष्टिको समझनेका प्रयत्न किया, प्रत्येक वादकी मर्यादा क्या है, अमुक वादका उत्थान होनेमें मूलतः क्या अपेक्षा होनी चाहिए, इस बातकी खोज़ की और नयवादके रूपमें उस खोजको दार्शनिकोंके सामने रखा । यही नयवाद अनेकान्तवादका मूलाधार बन गया । अब मूल जैनागमोंके आधार पर ही भगवान् के अनेकान्तवादका दिग्दर्शन कराना उपयुक्त होगा । पहले उन प्रश्नोंको लिया जाता है जिनको कि भ० बुद्धने अव्याकृत बताया है। ऐसा करनेसे यह स्पष्ट होगा कि जहाँ बुद्ध किसी एक वादमें पड जानेके भय से निषेधात्मक उत्तर देते हैं वहाँ भ० महावीर अनेकान्तवादका आश्रयकरके किस प्रकार विधिरूप उत्तर देकर अपना अपूर्व मार्ग प्रस्थापित करते हैं लोककी नित्यानित्यता उपर्युक्त बौद्ध अव्याकृत प्रश्नोंमें प्रथम चार लोककी नित्यानित्यता और सान्तता-अनन्तताके विषयमें है । उन प्रश्नोंके विषयमें भगवान् महावीर का जो - • सान्तानन्तता । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध... ६७ स्पष्टीकरण है वह भगवतीमें स्कन्दक परिव्राजकके अधिकारमें उपलब्ध है। उस अधिकारसे और अन्य अधिकारोंसे यह सुविदित है कि भगवान्ने अपने अनुयायिओंको लोकके संबंधमें होनेवाले उन प्रश्नोंके विषयमें अपना स्पष्ट मन्तव्य बता दिया था, जो अपूर्व था। अतएव उनके अनुयायी अन्य तीर्थिकोंसे इसी विषयमें प्रश्न करके उन्हें चूप किया करते थे । इस विषयमें भगवान् महावीरके शब्द देखिये भग० १.१.९० । इसका सार यह है कि लोक द्रव्यको अपेक्षासे सान्त है क्योंकि यह संख्यामें एक है। किन्तु भाव अर्थात् पर्यायोंको अपेक्षासे लोक अनन्त हैं क्योंकि लोकद्रव्यके पर्याय अनन्त हैं । कालकी दृष्टिसे लोक अनन्त है अर्थात् शाश्वत है क्योंकि ऐसा कोई काल नहीं जिसमें लोक का अस्तित्व न हो । किन्तु क्षेत्रकी दृष्टिसे लोक सान्त है क्योंकि सकलक्षेत्रमें से कुछ ही में लोंका है अन्यत्र नहीं। ___ इस उद्धरणमें मुख्यतः सान्त और अनन्त शब्दोंको लेकर अनेकान्तवादकी स्थापना की गई है । भगवान् बुद्धने लोककी-सान्तता और अनन्तता दोनोंको अव्याकृत कोटिमें रखा है। तब भगवान् महावीरने लोकको सान्त और अनन्त अपेक्षाभेदसे बताया है। अब लोककी शाश्वतता-अशाश्वतताके विषयमें जहाँ भ. बुद्धने अव्याकृत कहा वहाँ भ० महावीरका अनेकान्तवादी मन्तव्य क्या है उसे उन्हींके शब्दोंमें देखिये भग० ९.६.३८७ जमाली अपने आपको अर्हत् समझतः था किन्तु जब लोककी शाश्वतताअशाश्वतताके विषयमें गौतम गणधरने उससे प्रश्न पूछा तब वह उत्तर न दे सका, तिसपर भ. महावीरने उपर्युक्त समाधान यह कह करके किया कि यह तो एक सामान्य प्रश्न है । इसका उत्तर तो मेरे छद्मस्थ शिष्य भी दे सकता है । ___ जमाली ! लोक शाश्वत है और अशाश्वत भी । त्रिकालमें ऐसा एक भी समय नहीं जब लोक किसी न किसी रूपमें न हो अतएव वह शाश्वत है। किन्तु वह अंशाश्वत भी है क्योंकि लोक हमेशा एकरूप तो रहता नहीं । उसमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके कारण अवनति और उन्नति भी देखी जाती है । एकरूपमें - सर्वथा शाश्वत में परिवर्तन नहीं होता अत एव उसे अशाश्वत भी मानना चाहिए। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद ६८ लोक क्या है ? प्रस्तुतमें लोकसे भ. महावीरका क्या अभिप्राय है यह भी जानना जरुरी है । उसके लिये प्रश्नोंत्तर देखिये, भग० १३.४.४८१ 1 अर्थात् पाँच अस्तिकाय ही लोक है । पाँच अस्तिकाय ये हैं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्रलास्तिकाय । - जीव- शरीरका भेदाभेद । जीव और शरीरका भेद है या अभेद इस प्रश्नको भी भ. बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा है । इस विषयमें भगवान् महावीरके मन्तव्यको भग० १३.७.९५. पर के संवादसे जाना जा सकता है । उपर्युक्त संवाद से स्पष्ट है कि भ. महावीरने गौतमके प्रश्नंके उत्तरमें आत्माको शरीरसे अभिन्न भी कहा है और उससे भिन्न भी कहा है। ऐसा कहनेपर और दो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि यदि शरीर आत्मा से अभिन्न है तो आत्माकी तरह वह अरूप भी होना चाहिए और सचेतन भी । इन प्रश्नोंका उत्तर भी स्पष्टरूपसे दिया गया है कि काय अर्थात् शरीर रूपि भी है और अरूपि भी। शरीर सचेतन भी है और अचेतन भी । जब शरीरको आत्मासे पृथक् माना जाता है तब वह रूपि और अचेतन है । और जब शरीर को आत्मासे अभिन्न माना जाता है तब शरीर अरूपि और सचेतन है । 1 भगवान् बुद्धके मतसे यदि शरीरको आत्मासे भिन्न माना जाय तब ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं । और यदि अभिन्न मानाजाय तब भी - ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं । अत एव इन दोनों अन्तों को छोड़कर भगवान बुद्धने मध्य मार्गका उपदेश दिया और शरीरके भेदाभेदके प्रश्नको अव्याकृत बताया- संयुक्त XII १३५ । किन्तु भगवान् महावीरने इस विषय में मध्यममार्ग-अनेकान्तवादका आश्रय लेकर उपर्युक्त दोनों विरोधी वादोंका समन्वय किया । यदि आत्मा शरीरसे अत्यन्त भिन्न माना जाय तब कायकृत कर्मों का फल उसे नहीं मिलना Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध... ६९ चाहिए । अत्यन्तभेद माननेपर इस प्रकार अकृतागम दोषकी आपत्ति है । और यदि अत्यन्त अभिन्न माना जाय तब शरीर का दाह हो जानेपर आत्मा भी नष्ट होगा जिससे परलोक संभव नहीं रहेगा। इस प्रकार कृतप्रणाश दोष की आपत्ति होगी । अतएव इन्हीं दोनों दोषोंको देखकर भगवान् बुद्धने कह दिया कि भेद पक्ष और अभेद पक्ष ये दोनों ठीक नहीं है। जब कि भ० महावीरने दोनों विरोधी वादोंका समन्वय किया और भेद और अभेद दोनों पक्षोंका स्वीकार किया । एकान्त भेद और अभेद माननेपर जो दोष होते हैं वे उभयवाद माननेपर नहीं होते । जीव और शरीरका भेद इसलिये मानना चाहिए कि शरीर का नाश हो जानेपर भी आत्मा दूसरे जन्ममें मौजूद रहती है या सिद्धावस्थामें अशरीरी आत्मा भी होती है । अभेद इसलिये मानना चाहिए कि संसारावस्थामें शरीरी और आत्माका क्षीरनीरवत् या अग्निलोहपिण्डवत् तादात्म्य होता है इसीलिये कायसे किसी वस्तुका स्पर्श होनेपर आत्मामें संवेदन होता है और कायिक कर्मका विपाक आत्मामें होता है । भगवतीसूत्रमें जीवके परिणाम दश गिनाए हैं- भग० १४.४ ५१४ । जीव और कायाका यदि अभेद न माना जाय तो इन परिणामों को जीवके परिणामरूपसे नहीं गिनाया जा सकता । इसी प्रकार भगवतीमें ( १२.५.४५१.) जो जीवके परिणामरूपसे वर्ग गन्ध स्पर्शका निर्देश है वह भी जीव और शरीर के अभेद को मान कर ही घटाया जा सकता है । अन्यत्रं जीवके कृष्णवर्णपर्यायका भी निर्देश है - भग० २५.४ | ये सभी निर्देश जीव शरीरके अभेदकी मान्यतापर निर्भर हैं । चार्वाक शरीरको ही आत्मा मानता था और औपनिषद ऋषिगण आत्मा को शरीर से अत्यन्त भिन्न मानते थे । भ. बुद्धको इन दोनों मतोंमें दोष तो नजर आया किन्तु वे विधिरूपसे समन्वय न कर सके । जब कि भगवान् महावीर ने इन दोनों मतों का समन्वय उपर्युक्त प्रकारसे भेद और अभेद दोनों पक्षोंका स्वीकार करके किया । १३. जीवकी नित्यानित्यता मृत्युके बाद तथागत होते हैं कि नहीं इस प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा है क्योंकि ऐसा प्रश्न और उसका उत्तर सार्थक नहीं, आदि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद ब्रह्मचर्य के लिये नहीं, निर्वेद, निरोध, अभिज्ञा, संबोध और निर्वाणके लिये भी नहीं |१४ ७० आत्माके विषयमें चिन्तन करना यह भ० बुद्धके मतसे अयोग्य है । जिन प्रश्नोंको भ. बुद्धने 'अयोनिसो मनसिकार' - विचारका अयोग्य ढंग - कहा है वे ये है- " मैं भूतकालमें था कि नहीं था । मैं भूतकालमें क्या था ? मैं भूतकालमें कैसा था ? मैं भूतकालमें क्या होकर फिर क्या हुआ ? मैं भविष्यत् कालमें होऊंगा कि नहीं ? मैं भविष्यत् कालमें क्या होऊंगा ? मैं भविष्यत् कालमें कैसे होऊंगा ? मैं भविष्यत् कालमें क्या होकर क्या होंऊंगा ? मैं हूँ कि नहीं ? मैं क्या हूँ ? मैं कैसे हूँ ? यह सत्त्व कहांसे आया ? यह कहां जायगा ? भगवान् बुद्धका कहना है कि 'अयोनिसो मनसिकार' से नये आस्त्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आस्त्रव वृद्धिगत होते हैं । अतएव इन प्रश्नोंके विचारमें लगना साधकके लिये अनुचित है । १५ 1 इन प्रश्नोंके विचारका फल बताते हुए भ० बुद्धने कहा है 'अयोनिसो मनसिकार' के कारण इन छः दृष्टिओं में से कोई एक दृष्टि उत्पन्न होती है उसमें फँसकर अज्ञानी पृथग्जन जरा - मरणादिसे मुक्त नहीं होता (१) मेरी आत्मा है । (२) मेरी आत्मा नहीं है । (३) मैं आत्माको आत्मा समझता हूँ (४) मैं अनात्माको आत्मा समझता हूँ । (५) यह जो मेरी आत्मा है वह पुण्य और पापकर्म के विपाककी भोक्ता है। (६) यह मेरी आत्मा नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अविपरिणामधर्मा है, जैसी है वैसी सदैव रहेगी । १६ अतएव उनका उपदेश है कि इन प्रश्नोंको छोडकर दुःख, दुःखसमुदाय, दुःखनिरोध और दुःखनिरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्योंके विषयमें ही मनको लगाना चाहिए । उसीसे आस्त्रवनिरोध होकर निर्वाणलाभ हो सकता है । भ० बुद्ध के इन उपदेशों के विपरीत ही भगवान् महावीर का उपदेश Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध...... है। इस बात की प्रतीति प्रथम अंग आचारांग के प्रथम वाक्य से ही हो जाती __ भ० महावीरके मतसे जब तक अपनी या दूसरे की बुद्धिसे यह पता न लग जाय कि मैं या मेरा जीव एक गतिसे दूसरी गतिको प्राप्त होता है, जीव कहांसे आया, कौन था और कहाँ जायगा ?-तब तक कोई जीव आत्मवादी नहीं हो सकता, लोकवादी नहीं हो सकता, कर्म और क्रियावादी नहीं हो सकता। अतएव आत्माके विषयमें विचार करना यही संवरका और मोक्षका भी कारण है। जीवकी गति और अगतिके ज्ञान से मोक्षलाभ होता है इस बातको भ० महावीरने स्पष्टरूपसे कहा है- (आचा. १.५.६) - भगवती १२.५.४५२ । - इस प्रकार हम देखते हैं कि जिन प्रश्नों को भगवान् बुद्धने निरर्थक बताया है उन्हीं प्रश्नोंसे भगवान् महावीरने आध्यात्मिक जीवनका प्रारंभ माना है । अतएव उन प्रश्नोंको भ० महावीरने भ० बुद्धकी तरह अव्याकृत कोटिमें न रखकर व्याकृत ही किया है । इतनी सामान्य चर्चाके बाद अब आत्माकी नित्यता-अनित्यता के प्रस्तुत प्रश्न पर विचार किया जाता है - भगवान् बुद्धका कहना है कि तथागत मरणान्तर होता है या नहीं-ऐसा प्रश्न अन्यतीर्थिकोंको अज्ञानके कारण होता है । उन्हें रूपादि" का अज्ञान है अत- एव वे ऐसा प्रश्न करते हैं । वे रूपादिको आत्मा समझते हैं, या आत्माको रूपादियुक्त समझते हैं, या आत्मामें रूपादिको समझते हैं, या रूपमें आत्माको समझते हैं जब कि तथागत वैसा नहीं समझते१८ । अतएव तथागत को वैसे प्रश्न भी नहीं उठते और दूसरोंके ऐसा प्रश्नको वे अव्याकृत बताते हैं । मरणानन्तर रूप वेदना आदि प्रहीण हो जाता है अतएव अब प्रज्ञापनाके साधन रूपादि के न होनेसे तथागतके लिये 'है' या 'नही है' ऐसा व्यवहार किया नहीं जा सकता। अतएव मरणनन्तर तथागत 'है' या 'नहीं' है' इत्यादि प्रश्नोंको मैं अव्याकृत बताता हूँ। भ० महावीर ने जीवको अपेक्षाभेद से शाश्वत और अशाश्वत कहा है। इसकी स्पष्टता के लिये देखिये भग० ७.२.२७३ । स्पष्ट है कि द्रव्यार्थिक अर्थात् द्रव्यकी अपेक्षासे जीव नित्य है और भाव अर्थात् पर्यायकी दृष्टिसे जीव अनित्य है ऐसा मन्तव्य भ० महावीरका है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद भ० बुद्धका अनेकान्तवाद ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् बुद्धके सभी अव्याकृत प्रश्नोंका व्याकरण भ० महावीरने स्पष्टरूपसे विधिमार्गको स्वीकार करके किया है और अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा की है। इसका मूल आधार यही है कि एक ही व्यक्तिमें अपेक्षाके भेदसे अनेक संभवित विरोधी धोकी घटना करना । मनुष्य स्वभाव समन्वयशील तो है ही किन्तु सदा सर्वदा कई कारणोंसे उस स्वभावका आविर्भाव ठीक रूपसे हो नहीं पाता । इसी लिये समन्वयके स्थानमें दार्शनिकोंमें विवाद देखा जाता है। और जहाँ दूसरोंको स्पष्टरूपसे समन्वयकी संभावना दीखती है वहाँ भी अपने अपने पूर्वग्रहों के कारण दार्शनिकोंको विरोधकी गंध आती है। भगवान् बुद्धको उक्त प्रश्नोंका उत्तर अव्याकृत देना पडा उनका कारण यही है कि उनको आध्यात्मिक उन्नतिमें इन जटिल प्रश्नोंकी चर्चा निरर्थक प्रतीत हुई। अतएव इन प्रश्नोंको सुलझानेका उन्होंने कोई व्यवस्थित प्रयत्न नहीं किया । किन्तु इसका मतलब यह कभी नहीं कि उनके स्वभावमें समन्वय का तत्त्व बिलकुल नहीं था। उनकी-समन्वय शोलता सिंह सेनापति के साथ हुए संवादसे स्पष्ट है । भगवान् बुद्धको अनात्मवादी होनेके कारण कुछ लोग अक्रियावादी कहते थे । अतएव सिंह सेनापति ने भ० बुद्धसे पूछा कि आपको कुछ लोग अक्रियावादी कहते हैं तो क्या यह ठीक है ? इसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा उसीमें उसकी समन्वयशीलता और अनेकान्तवादिता स्पष्ट होती है। उत्तर में उन्होंने कहा कि सच है मैं अकुशल संस्कारकी अक्रियाका उपदेश देता हूँ इसलिये मैं अक्रियावादी हूँ और कुशल संस्कारकी क्रिया मुझे पसंद है और मैं उसका उपदेश देता हूँ इसी लिये मैं क्रियावादी भी हूँ। इसी समन्वयप्रकृति का प्रदर्शन अन्यत्र दार्शनिक क्षेत्रमें भी यदि भ० बुद्धने किया होता तो उनकी प्रतिभा और प्रज्ञाने दार्शनिकोंके सामने एक नया मार्ग उपस्थित किया होता । किन्तु यह कार्य भ० महावीर की शान्त और स्थिर प्रकृति से ही होनेवाला था इसलिये भगवान् बुद्धने आर्य चतुःसत्यके उपदेशमें ही कृतकृत्यताका अनुभव किया। तब भगवान् महावीर ने जो भ० बुद्धसे न हो सका उसे करके दिखाया और वे अनेकान्तवादके प्रज्ञापक हुए। भ० बुद्ध ने तो अपनी प्रकृतिके अनुसार उन सभी प्रश्नोंका उत्तर निषेधात्मक दिया है; क्योंकि ऐसा न कहते तो उनको उच्छेदवाद और शाश्वतवादको Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान महावीर का अनेकान्तवाद और गौतम बुद्ध... ७३ आपत्ति का भय था । किन्तु भगवान् का मार्ग तो शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के समन्वय का मार्ग है अत एव उन प्रश्नों का समाधान विधिरूप से करने में उनको कोई भय नहीं था । उनको प्रश्न किया गया कि क्या कर्मका कर्ता स्वयं है, अन्य है या उभय है ? इसके उत्तर में भ० महावीर ने कहा कि कर्म का कर्ता आत्मा स्वयं हैं; पर नहीं है और न स्वपरोभय ।२१ जिसने कर्म किया है वही उसका भोक्ता है ऐसा माननेमें ऐकान्तिक शाश्वतवाद की आपत्ति भ० महावीरके मतमें नहीं आती; क्योंकि जिस अवस्थामें किया था उससे दूसरी ही अवस्था में कर्मका फल भोगा जाता है । तथा भोक्तृत्व अवस्थासें कर्मकर्तृत्व अवस्थाका भेद होनेपर भी ऐकान्तिक उच्छेदवादकी आपत्ति इसलिये नहीं आती की भेद होते हुये भी जीव द्रव्य दोनों अवस्थामें एक ही मोजूद है । पाटीप १. " भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा" । सूत्रकृतांग १.१४.२२ । २. देखो - दीघनिकाय - ३३ संगितिपरियाय सुत्तमें चार प्रश्नव्याकरण | ४. न्यायवार्तिक (पं. दलसुख मालवणिया ), प्रस्तावना पृ. १३-१४ ३. वही । ६. दीघनिकाय - सामञ्ञफलसुत्त । ५. न्या. प्रस्तावना, पृ. १४ ७. मज्झिमनिकाय चूलमालुंक्यपुत्त ६३ । ८. इस प्रश्नको ईश्वरके स्वतंत्र अस्तित्व या नास्तित्व का प्रश्न भी कहा जा सकता है । १०. शतक २ उद्देशक १ | ९. न्या. प्रस्तावना, पृ. १५ ११. शतक ९ उद्देशक ६ । सूत्रकृतांग १.१.४.६ - " अन्तवं निइए लोए इइ धीरो तिपासई । " १२. लोक का मतलब है पंचास्तिकाय । पंचास्तिकाय संपूर्ण आकाशक्षेत्र में नहीं किन्तु असंख्यात कोटाकोटी योजन की परिधि में है । न्या. (पं. दलसुख मालवणिया) प्रस्तावना, पृ. ३ १३. न्या. (पं. दलसुख मालवणिया) प्रस्तावना, १९ १४. संयुत्तनिका XVI 12; XXII 86; मज्झिमनिकाय १५. मज्झिमनिकाय - सव्वासंवसुत्त २ । १७. संयुत्तनिकाय XXXIII 1. १९. वही २०. विनयपिटक महावग्गं VI. ८१. और अंगुतर निकाय, Part IV. p 791. २१. भगवती १.६.५२ । चूलमालुंक्यसुत्त ६३ १६. मज्झिमनिकाय - सव्वासंवसुत्त २. । संयुक्तनिका XLIV. 8. १८. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ प्रकरण अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियां १. वैदिक दर्शन और स्याद्वाद अन्य दर्शनों में स्याद्वाद का क्या स्थान है ? - यह विषय भी अपना एक मौलिक स्थान रखता है । वैदिक - दर्शन के अध्ययन से प्रतीत होता है कि वैदिक ऋषि स्याद्वादिक प्रक्रिया से परिचित थे । अन्यथा वे नासदीय सूक्त में सत् और असत् दोनों का विरोध न करते ।' एक जगह कहा गया है : वह नहीं हिलता है, और हिलता भी है । अन्यत्र एक ऋषि कहता है : सत् एक है किन्तु विप्र उसे अनेक रूप से वर्णन करते हैं । दूसरी जगह कहा है : "सृष्टि के आरम्भ में सत् ही था, असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो गई ? "४ गीता में एक जगह कहा गया है : "न स सत्तन्नासदुच्यते" अर्थात् वह न सत् है और न असत् । इन उल्लेखों से इतना स्पष्ट है कि वैदिक ऋषि सत् और असत् दोनों से परिचित थे कहीं एक का समर्थन है कहीं दोनों की विधि है और कहीं दोनों का निषेध है । यथार्थ में देखा जाए तो प्रतीत होगा कि यही तीनों विकल्प सत् -असत् अवक्तव्य नय के समान हैं। गुण- गुणी आदि का सर्वथा भेद स्याद्वाद से विरुद्ध पड़ता है। दोनों दर्शन पर्यायवादी होने के कारण कुछ समानता रखते हैं । पृथ्वी आदि तत्वों को नित्यानित्य मानकर, स्याद्वाद के कुछ निकट प्रतीत होते हैं । इनका प्रमाणविषयक चिन्तन अपूर्ण है । अकलंक आदि ने इसके चिन्तन से प्रभावित होकर प्रत्यक्ष के मुख्य और सांख्य - व्यवहारिक दो भेद किये हैं । (अ) सांख्ययोग और स्याद्वाद सांख्य अत्यन्त प्राचीन होने के कारण विशेष विचारणीय है । ये दो तत्त्व को मानते हैं: १. पुरुष और २. प्रकृति । पुरुष पुष्कर- पलाश के समान निर्लेप है।" वह भोक्ता है। पुरुष जैन दर्शन के समान अनेक हैं। वह निरपेक्ष द्रष्टा है। बुद्धि से अध्यवसित अर्थ में पुरुष चेतना पैदा करता है। इनका लक्ष्य कैवल्य है । प्रकृति तत्त्व जैन पुद्गन तत्त्व से समानता रखता है किन्तु यह एक Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियां ७५ है, जड़ है,और प्रसवधर्मी है । सत्व, रज, तमस् की समता प्रकृति है । इनके अन्दर क्षोभ होने से सृष्टि का आरम्भ होता है। और प्रकृति से महान्, महान् से अहंकार, उससे षोडश गुण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रिय पांच भूत और उनसे पांच तन्मात्रएँ और मन की उत्पत्ति या विकास होता है।६।। कर्तृत्व-धर्म इसमें पाया जाता है। यह विकार को भी स्थान देती है। पुरुष न प्रकृति है न विकृति । योग-सिद्धान्त भी प्रायः इसी प्रक्रिया अनेकान्त या स्याद्वाद का मूल है। अनेकान्त स्यावाद और सप्तभंगी के सिद्धांत इनकी ही सुव्यवस्था करते हैं। (ब) न्याय, वैशेषिक और स्याद्वाद न्याय और वैशेषिक चिन्तन और प्रक्रिया में लगभग समान होने के कारण एक गिने जाते हैं । सप्त पदार्थ या सोलह पदार्थ लगभग समान है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव आदि का वर्णन नित्यानित्यत्व दोनों को लिए हुए हैं। किन्तु ये दर्शन सर्वथा भेद के प्रतिपादक होने के कारण एकान्तवादी कहलाते हैं । इनका चिन्तन नैगम को मानता है । पतंजलि ने ईश्वर को तथा योग (अष्टांग) को इसके साथ मिलाकर नवीन दर्शन का निर्माण किया। जैन योग और पतंजलि योग बहुत कुछ समानता रखते हैं । इन दोनों दर्शनों ने प्रकृति को एक और अनेक मानकर स्याद्वाद की महत्ता का परिचय दिया है। प्रतीत होता है कि ये दर्शन इसके अभाव से सर्वथा वंचित नहीं रहे (स) पूर्वमीमांसा दर्शन और स्याद्वाद ___ मीमांसा दर्शन की उत्पत्ति वैदिक क्रियाकाण्ड को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए हुई थी। भावना, विधि, नियोग आदि के द्वारा वैदिक सूक्तों के अर्थों का निर्णय किया गया है। जहाँ तक दार्शनिक तत्त्वों का संबंध हैं, ये जैन दर्शन के समान ही उत्पाद, व्यय, ध्रोव्यात्मक तत्त्व को ही मानते थे। इनके दो भेद हैं । १. भाट मत और, २. प्रभाकर मत । दोनों में बहुत थोडा अन्तर है । उत्पादादि त्रय को तत्त्व का स्वरूप मानने से इनकी आस्था स्याद्वाद में प्रतीत होती है। तत्त्व-संग्रहकार इनके स्याद्वाद का पोषक मानता था। इसलिए निर्ग्रन्थों के साथ-साथ ही इनका भी खंडन किया गया है। ये वेदों को अपने Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद चिन्तन का आधार मानते हैं । वेद-प्रामाण्य एवं शब्द के नित्यत्व के सिद्धान्तों की आलोचना करके जैन दर्शनकार तीर्थंकर-प्रणीत आगम और शब्द के अनित्यत्व की सिद्धि करते हैं। फिर भी दार्शनिक क्षेत्र में इनका चिन्तन सामान्य विशेषात्मक है। (द) वेदान्त और स्याद्वाद भारतीय दर्शन में वेदान्त का विकास अंतिम और सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह ब्रह्मतत्त्व को मानता है। वह सत्-चित्-आनन्दमय है। ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है । जीव और ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं । बाह्य जगत की व्याख्या के लिए इस दर्शन ने माया के सिद्धान्त का निर्माण किया है। माया अनिर्वचनीय है। यह है और नहीं भी है। इसके लिए निश्चय और व्यवहार का आश्रय लिया गया है । जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-रूप तीन अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। जब ब्रह्म माया से अविच्छिन्न होता है, तब ईश्वर का रूप निर्माण कर जगत् के सर्जन में प्रवृत्ति होता है । जगत् ब्रह्म का विवर्त है । जैसे समुद्र में लहरें उठती हैं, उसी तरह जगत् ब्रह्म का बाह्य रूप है। संसार से निवृत्ति के लिए माया से ब्रह्म का पार्थक्य आवश्यक है। आचार्य बादरायण ने 'ब्रह्मसूत्र' में इसका अच्छा वर्णन किया है। शंकर ने भाष्य लिखकर इस सिद्धान्त की अच्छी तरह परिपुष्टि कर अद्वैत तत्त्व की स्थापना की । रामानुज ने इसी पर भाष्य लिखकर विशिष्टाद्वैत की स्थापना की है। माध्वाचार्य, निम्बार्क, आदि आचार्यों ने भेदाभेद आदि सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर, अद्वैत-तत्त्व ही सर्वप्रधान है, यह स्थापित किया है। माया के क्षेत्र में स्याद्वाद का आश्रय लिया गया है। (२) चार्वाक दर्शन और स्याद्वाद चार्वाक दर्शन भौतिक दर्शन है। इसका प्रतिपादन सृष्टि-कर्तृत्व तथा सृष्टि अभिव्यक्ति द्वारा हुआ है। कुछ लोग भूत-चतुष्टय को विश्व का कर्ता मानते थे, और कुछ लोग एक तत्त्व से सृष्टि की अभिव्यक्ति मानते थे । वहाँ केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण था । अतः जीवन को सुखमय बनाना या ऐहिक सुखवाद ही उनके जीवन का लक्ष्य था। चार्वाक दर्शन के लोग जड पदार्थ से ही निर्जीव तत्त्व और जीवन-तत्त्वकी व्याख्या करते हैं, जो बिना स्याद्वाद दृष्टि को अपनाए Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियां ७७ नहीं बनती । अतः चार्वाक का यह चिन्तन स्याद्वाद का आधार लिये प्रतीत होता है । भौतिक क्षेत्र में स्याद्वाद को अपनाना स्याद्वाद का निषेध नहीं कहा जा सकता । (३) पाश्चात्य दर्शन और स्याद्वाद 1 पाश्चात्य देशों में दर्शन (Philosophy) बुद्धि का चमत्कार रहा है । वहाँ लोग ज्ञान को मात्र ज्ञान के लिए ही जीवन का लक्ष्य समझते हैं । पाश्चात्य विचारों के अनुसार दार्शनिक वह है जो जीव, जगत, परमात्मा, परलोक आदि तत्त्वों का निरपेक्ष विद्यानुरागी हो । पाश्चात्य जगत का आदि दार्शनिक प्लेटो कहता है - "संसार के समस्त पदार्थ द्वन्द्वात्मक हैं, अतः जीवन के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जीवन अनिवार्य है।"१३ इसी प्रकार सुकरात, अरस्तु आदि प्रमुख दार्शनिकों की निष्ठा भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त में रही है । ग्रीक दर्शन में भी एम्पीडोक्लीज (Empedocles) एटोमिस्ट्स (Atomists) और एनैक्सागोरस (Anaxagoras ) दार्शनिकों ने इलिअटिक्स (Eleatics) के नित्यत्ववाद और हैरेक्लिटस ( Hereclitus) के क्षणिकवाद का समन्वय करते हुए पदार्थों के नित्यदशा में रहेते हुए भी अपेक्षिक परिवर्तन (Relative change) स्वीकार किया है ।१४ ग्रीक के महान विचारक प्लेटो ने भी इसी प्रकार के विचार प्रगट किये हैं । १५ पश्चिम के आधुनिक दर्शन (Modern Philosophy) में भी इस प्रकार के समान विचारों की कमी नहीं हैं। उदाहरण के लिये जर्मनी के प्रकाण्ड तत्त्ववेत्ता हेगेल (Hegel) का कथन है, कि विरुद्धधर्मात्मकता ही संसार का मूल है। किसी वस्तु का यथार्थ वर्णन करने के लिये हमें उस वस्तु संबंधी संपूर्ण सत्य कहने के साथ उस वस्तु के विरुद्ध धर्मों का किस प्रकार समन्वय हो सकता है, यह बताना चाहिये । १६ नये विज्ञानवाद (New gdealism) के प्रतिपादक ब्रेडले के अनुसार प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तुओं से तुलना किये जाने पर आवश्यकीय और अनावश्यकीय दोनों सिद्ध होती है। संसार में कोई भी पदार्थ नगण्य अथवा अकिंचित्कर नहीं कहा जा सकता । अतएव प्रत्येक तुच्छ से तुच्छ विचार में और छोटी से छोटी सत्ता में सत्यता विद्यमान है ।१७ आधुनिक दार्शनिक जोअचिम (Joachim) का कहना है, कि कोई भी विचार स्वतः ही, दूसरे विचार से सर्वथा अनपेक्षित होकर केवल Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद अपनी ही अपेक्षा से सत्य नहीं कहा जा सकता । उदाहरण के लिये, तीन से तीन को गुणा करने पर नौ होता है (३ x ३ = ९ ), यह सिद्धांत एक बालक के लिये सर्वथा निष्प्रयोजन है, परन्तु इसे पढकर एक विज्ञानवेत्ता के सामने गणितशास्त्र के विज्ञान का सारा नक्शा सामने आ जाता है । ८ मानसशास्त्र के विद्वान प्रो. विलियम जेम्स (W.James) ने भी लिखा है, हमारी, अनेक दुनिया हैं । साधारण मनुष्य इन सब दुनियाओं का एक दूसरे से असम्बद्ध तथा अनपेक्षित रूप से ज्ञान करता है । पूर्ण तत्त्ववेत्ता वही है, जो सम्पूर्ण दुनियाओं से एक दूसरे से सम्बद्ध और अपेक्षित रूप में जानता है। इसी प्रकार के विचार पेरी२° (Perry), नैयायिक जोसेफ' (Joseph), एडमन्ड हार्स२२ (Edmund Holms) प्रभृति विद्वानों ने प्रगट किये हैं । स्याद्वाद और समन्वय दृष्टि __ स्याद्वाद सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों का समन्वय करता है। जैन दर्शनकारों का कथन है, कि सम्पूर्ण दर्शन नयवाद में गर्भित हो जाते हैं, अतएव सम्पूर्ण दर्शन नय की अपेक्षा से सत्य हैं । उदाहरण के लिये ऋजूसूत्रनय की अपेक्षा बौद्ध, संग्रहनय की अपेक्षा वेदान्त, नैगमनय की अपेक्षा न्याय-वैशेषिक, शब्दनय की अपेक्षा शब्द ब्रह्मवादी, तथा व्यवहारनय की अपेक्षा चार्वाक दर्शनों को सत्य कहा जा सकता है ।२३ ये नयरूप समस्त दर्शन परस्पर विरुद्ध होकर भी समुदित होकर सम्यक्त्व रूप कहे जाते हैं । जिस प्रकार भिन्न भिन्न मणियों के एकत्र गूंथे जाने से एक सुन्दर माला तैयार हो जाती है, उसी तरह जिस समय भिन्न भिन्न दर्शन सापेक्ष वृत्ति धारण करके एकत्रित होते हैं, उस समय ये जैन दर्शन कहे जाते हैं । अतएव जिस प्रकार धन, धान्य आदि वस्तुओं के लिये विवाद करने वाले पुरुषों को कोई साधु पुरुष समझा बुझाकर शांत कर देता है, उसी तरह स्याद्वाद परस्पर एक दूसरे के ऊपर आक्रमण करने वाले दर्शनों को सापेक्ष सत्य मानकर सबका समन्वय करता है । इसीलिये जैन विद्वानो ने जिन भगवान के वचनों को मिथ्यादर्शनों का समूह मानकर अमृत का सार बताया है । उपाध्याय यशोविजय जी के शब्दों में कहा जाय, तो हम कह सकते हैं, कि एक "सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता । वह सम्पूर्ण नयरूप दर्शनों को इस प्रकार से वात्सल्य दृष्टि से देखता है, जैसे कोई Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियां ७९ पिता अपने पुत्रों को देखता है। क्योंकि अनेकान्तवादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती । वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है, जो स्याद्वाद का अवलंबन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों मे समान भाव रखता है। वास्तव में माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ रहस्य है. यही धर्मवाद है। माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोडों शास्त्रों के पढ जाने से भी कोई लाभ नहीं ।२४ निस्सन्देह सच्चा स्याद्वादी सहिष्णु होता है, वह राग-द्वेष रूप आत्मा के विकारों पर विजय प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करता रहता है । वह दूसरों के सिद्धान्तों को आदर की दृष्टि से देखता है, और मध्यस्थ भाव से सम्पूर्ण विरोधों का समन्वय करता है। सिद्धसेन दिवाकर ने वेद, सांख्य, न्यायवैशेषिक, बौद्ध आदि दर्शनों पर द्वात्रिंशिकाओं की रचना करके, और हरिभद्रसूरि ने षडदर्शनसमुच्चय में छह दर्शनों की निष्पक्ष समालोचना करके इसी उदार वृत्ति का परिचय दिया है । इतना ही नहीं, बल्कि मल्लवादी, हरिभद्रसूरि, राजशेखर पं. आशाधर, उ. यशोविजय आदि अनेक जैन विद्वानों ने वैदिक और बौद्ध ग्रंथों पर टीका-टिप्पणियां लिखकर अपनी गुणग्राहिता, समन्वयवृत्ति और हृदय की विशालता को स्पष्टरूप से प्रमाणित किया है। ___ वास्तव में देखा जाय तो सत्य एक है तथा वैदिक, जैन और बौद्ध दर्शनों में कोई परस्पर विरोध नहीं । प्रत्येक दार्शनिक भिन्न भिन्न देश और काल की परिस्थिति के अनुसार सत्य के केवल अंश मात्र को ग्रहण करता है। वैदिक धर्म व्यवहार प्रधान है, बौद्ध धर्म को श्रवण प्रधान, और जैनधर्म को कर्तव्य प्रधान कहा जा सकता है ।२५ एक दर्शन कर्म, उपासना और ज्ञान को मोक्ष का प्रधान कारण कहता है; दूसरा शील, समाधि और प्रज्ञा को; तथा तीसरा सम्यगदर्शन, ज्ञान और चारित्र को मोक्ष का प्रधान कारण मानता है, परन्तु सबका ध्येय एक ही है। जिस प्रकार सरल और टेढे मार्ग से जानेवाली भिन्न भिन्न नदियाँ अन्त में जाकर एक ही समुद्र में मिलती हैं, उसी तरह भिन्न भिन्न रुचियों के कारण उद्भव होने वाले समस्त दर्शन एक ही पूर्ण सत्य में समाविष्ट हो जाते हैं।२६ षट्दर्शनों को जिनेन्द्र के अंग कहकर परमयोगी आनंदघनजी ने आनन्दघन चौबीसी में इस भाव को निम्न भाषा में व्यक्त किया है Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद षट् दरसण जिन अंग भणीजे । न्याय षडंग जो साधे रे । नमिजिनवरना चरण उपासक । षट् दर्शन आराधे रे ॥ १ जिनसुर पादप पाय वखाणुं । सांख्यजोग दोय भेदें रे।। आतम सत्ता विवरण करता । लहो दुग अंग अखेदें रे । २ भेद अभेद सुगत मीमांसक । जिनवर दोय कर भारी रे । . लोकालोक अवलंबन भजिये । गुरुगमथी अवधारी रे ॥ ३ लोकायतिक कूख जिनवरनी । अंशविचार जो कीजे । तत्त्वविचार सुधारस धारा । गुरुगम विण केम पीजे ॥ ४ जैन जिनेश्वर उत्तम अंग । अंतरंग बहिरंगे रे। अक्षरन्यास धरा आराधक । आराधे धरी संगे रे ॥ ५ निस्सन्देह एकता में विविधता और विविधता में एकता का दर्शन करके जैन आचार्यों ने स्याद्वाद् का प्रतिपादन करके विश्व को महान सेवा अर्पण की पादटीप १. नासदासीन्न सदासीतदानीम् - इत्यादि । -ऋग्वेद १०-१२९-१ . २. यन्नैज्जति तदे जति...-उपनिषद् ३. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ॥ - ऋग्वेद १/१६४/८६, पृ. ३२० । ४. सदेव सौम्येदमग्र आसीत् -छान्दोग्योपनिषत् ६/२ .. ५. प्रकृतिस्तु की पुरुषस्तु पुष्करपलाश वनिर्लेपः। ६. प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहंकार.....पंचेभ्य: पंचभूतानि - सांख्य तत्त्वकौमुदी । ७. न प्रकृतिः न विकृतिः पुरुष :। ८. निर्विशेषं ही सामान्यं भवेच्छागविषाणवत् त सामान्यरहित्वेन विशेषास्तद्वेदेव हि। -कुमारिल - मीमांसा श्लोक वार्तिक ९. सत् चित् आनन्दमय ब्रह्म । १०. ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापर। ११. जन्माद्य ब्रह्मस्य यतः - ब्रह्मसूत्र । १२. यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् – चार्वाक् दर्शन Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियां ८१ 33. There are beings or particles of reality that are permanent, origi nal, imperishable, underived, and these can not change into anything else: They are what they are and must remain so, just as the Eleatic school maintains. These beings, or particles of reality, however, can be combined and separated, that is, form bodies that can again be resolved into their elements. The original bits of reality can not be created or destroyed or change their nature, but they can change their relations in respect to each other. And that is what we mean by change. Thilly. History of Philosophy Pg. 32. 15. When we speak of not being, we speak, I suppose not of something opposed to being, but only different. -Dialogues of Plato 16. Reality is now this, now that; In this sense it is full of nega tions, contradictions, and oppositions: the plant germinates, blooms, withers, and dies; man is young, mature, and old. To do a thing justice, We must tell the whole truth about it, predicate all those contradictions of it, and show how they are reconciled and preserved in the articulated whole which we call the life of the thing. —Thilly : History of Philosophy Y. 8€/g 17. Everything is essential and everything worthless in comparison with other. Now where is there even a Single fact so Fragmentary that to the universe it does not matter. There is truth in every idea however false, there is reality in every existence however light. -Appearance and Reality q. 866 18. No judgment is true in itself and by itself. Every judgment as a piece of concrete thinking is informed, conditioned to some extent, constituted by the apperceipient character of the mind. -Nature of trụth 37. 3, P. 52-3 19. The principles of psychology Vol. 1 37. po . P88 20. Present Philosophical Tendencies Chapter On Realism. 21. Introduction to Logic. q. 262-38 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद 22. Let us take the antithesis of the swift and the slow. It would be nonsense to say that every moment is either swift or slow. It would be nearer the truth to say that every moment is both swift and slow, swift by comparison with what is slower than itself, slow by comparison with what is swifter than itself —In the quest of India पृ. २१ २३. बौद्धानामृजुसूत्रतो मतमभूद्वेदान्तिनां संग्रहात् । सांख्यानां तत एव नैगमनयाद् यौगश्च वैशेषिक: ॥ शब्द ब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः सर्नियैर्गुम्फिता । जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्यते ॥ - अध्यात्मसार-जिनमतिस्तुति २४. यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्टिव । तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिक शेमुषी ॥ ६१ तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यतां । मोक्षोद्देशाविशेषेण यः पश्यति स शास्त्रवित् ।। ७० माध्यस्थमेव शास्त्रार्थो येन तच्चार सिध्यति ।। स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशल्गनम् ॥ ७२ माध्यस्थ सहितं होकपदज्ञानमपि प्रमा । शास्त्रकोटिः वृथैवान्या तथा चोक्त महात्मना ।। ७३ ॥ अध्यात्मसार । २५. श्रोतव्यो सौगतो धर्मः कर्तव्यः पुमराहतः । वैदिको व्यवहर्तव्यो ध्यातव्यः परमः शिवः ॥ हरिभद्र । २६. त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति । प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमतः पथ्यमिति च । रूचीनां वैचित्र्यात् ऋजुकुटिलनान पथजुषां । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ शिवमहिम्नः स्रोत्र । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम प्रकरण अनेकान्तवाद : प्रमुख दार्शनिकों की आलोचनाओं का निराकरण जैन दर्शन ने दर्शन शब्द की काल्पनिक व्याख्याओं से ऊपर उठकर तत्त्वचिन्तन के क्षेत्र में बद्धमूल एकान्तिक धारणाओं का उन्मूलन करने एवं वस्तु के यथार्थ स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद की भाषा दी है । इस देन में उसका यही उद्देश्य रहा है कि विश्व अपने वास्तविक स्वरूप को समझे कि उसका प्रत्येक चेतन और जड़ तत्त्व अनंतधर्मो का भण्डार है । प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण, पर्याय और धर्मों का पिण्ड है । वह अपनी अनादि-अ द- अनन्त संतान- स्थिति की दृष्टि से नित्य है । कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब विश्व के रंगमंच से एक ऋण का भी समूल विनाश हो जाये या उसकी संतति सर्वथा उच्छिन्न हो जाये । साथ ही उसके पर्याय प्रतिक्षण बदल रहे हैं । उसके गुणधर्मो में सदृश या विसदृश परिवर्तन हो रहा है, अत: यह अनित्य भी । इसी तरह अनन्त गुण शक्ति, पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तुकी निजी संपत्ति है, लेकिन हमारा स्वल्प ज्ञान इनमें से एक-एक अंश को विषय करके क्षुद्र मतवादों की सृष्टि कर रहा है । स्याद्वाद के उक्त दृष्टिकोण को नहीं समझकर और वस्तु को यथार्थ दृष्टिकोण से देखने का प्रयास न कर अनेक भारतीय दार्शनिकों ने अपने एकांगिक चिन्तन के आधार पर स्याद्वाद सिद्धान्त की आलोचना एवं उस पर दोषारोपण करने का प्रयास किया है । कोई वस्तु है भी, और नहीं भी है- यह कथन अन्य दर्शनकारों को हृदयंगम नहीं होता । किसी भी वस्तु में अस्तित्व के साथ नास्तित्व को भी धर्म रूप से बताना ऊपरी सतह वाले मानसिक धरातल पर जमता नहीं है। अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर विरूद्ध धर्म दिखते हैं । विरोधी धर्म एकसाथ एक वस्तु में कैसे रह सकते हैं ? इस तर्क के साथ अन्य तर्क भी अनेकान्त के विरोध में प्रतीत होने लगते हैं । यही कारण है कि अन्य दर्शनकारों को अनेकान्तवाद सदोष मालूम पड़ा और उन्होंने इसमें तर्क द्वारा कई दोष उद्भावित किये हैं । सर्वप्रथम हम आचार्य धर्मकीर्ति को लेते हैं । ये विद्वान बौद्ध आचार्य 1 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद हैं और उपलब्ध साहित्य के अनुसार अनेकान्त-विरोधी तर्क के सर्वप्रथम प्रस्तोता है । आचार्य धर्मकीर्ति के दो, तर्क सामने आते हैं । १. एक तो वस्तु को स्व-पररूप मानने से बड़ी कठिनाई पैदा होना। २. दूसरे सबको स्व-स्वरूप मानने से बुद्धि और शब्द भिन्न नहीं हो सकेंगे। आचार्य धर्मकीर्ति ने जो प्रथम विरोधी तर्क उपस्थित किया है, वह वस्तु को स्वपररूप मानने की मान्यता को लेकर है। लेकिन साधारण तौर पर देखा जाय तो यह अनेकान्तवाद की मान्यता नहीं है। अनेकान्तवाद वस्तु में स्वरूप की दृष्टी से सत्त्व और पररूप की दृष्टि से असत्त्व मानता है। घट घटत्व की अपेक्षा सत् है, पटत्व की अपेक्षा असत् है। इसका मतलब यह हुआ कि घट पट नहीं है। तभी तो पटत्वावच्छेदेन उसमें नास्तित्व आता है। यदि घट को रूप भी मान लिया तो पट्टत्वावच्छेदेन उसमें नास्तित्व धर्म नहीं आयेगा । अनेकान्तदर्शन तो वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों को मानता हैं। उसके मत में सत्त्व असत्त्व को छोडकर नहीं रहता है। दोनों धर्म वस्तु में अवच्छेदक भेद से रहते हैं।' इस विवेचन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो अनेकान्त दर्शन वस्तु को पररूप नहीं मानता है। अतः आचार्य धर्मकीर्ति का यह दूषण उद्भावित करना अनुचित एवं निर्मूल है। दूसरा तर्क आचार्यश्री ने यह दिया है कि सबके स्व स्वरूप मान लेने से एक शब्द से ही अर्थों का बोध हो जायेगा । साधारणतः अनेकान्त दर्शन में सबको स्व स्वरूप नहीं माना गया है। यदि सबको स्व स्वरूप मान लिया जाय तो पर या अन्य के अभाव से वस्तु भावाभावात्मक नहीं हो पायगी और वस्तु की प्रतिनियत स्वभावता के लिये आवश्यक अन्य व्यावृत्ति रूप स्वभाव वस्तु का नहीं बन पायगा। यदि घट पटदि रूप हो जाय तो अन्य के अभाव हो जाने से अन्य व्यावृत्ति न हो पायेगी । फलस्वरूप वस्तु की प्रतिनियत स्वभावता नहीं रहेगी। अतः प्रत्यक्षबोध आवेगा । अनेकान्त का मूल सिद्धान्त है वस्तु को भावाभावात्मक आदि मानना । इस सिद्धान्त को भी क्षति पहुंचेगी। अतः सबको स्व स्वरूप नहीं माना जाता ।। महर्षि बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में सामान्य रूप से अनेकान्त तत्त्व Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : प्रमुख दार्शनिकों की आलोचनाओं का निराकरण ८५ में दूषण देते हुए कहा था । "नैकस्मिन्नसंभवात् ।" -एक वस्तु में अनेक धर्म नहीं हो सकते हैं। शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर लिखित अपने सांख्य-भाष्य में उक्त सूत्र की व्याख्या में इसे "विवसन समय" लिखकर स्याद्वाद के सप्तभंगी नय में सूत्रनिर्दिष्ट विरोध के अलावा संशयदोष का भी संकेत किया है। सूत्र पर भाष्य लिखते हुए उन्होंने कहा है कि "एक वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्म नहीं हो सकते हैं। जैसे कि एक ही वस्तु शीत और उष्ण नहीं हो सकती है । जो सात पदार्थ या पंचास्तिकाय बताये हैं, उनका वर्णन जिस रूप में है, वे उस रूप में भी होंगे और अन्य रूप में भी । यानी एक भी रूप से उनका निश्चय नहीं होने से संशय दूषण आता है । प्रमाता, प्रमेति, आदि के स्वरूप में भी इसी तरह निश्चयात्मकता न होने से तिर्थंकर किसे उपदेश देंगे और श्रोता कैसे प्रवृत्ति करेंगे ? पांच अस्तिकायों की पांच संख्या है भी और नहीं भी, यह तो बड़ी विचित्र बात है। एक तरफ अवक्तव्य भी कहते हैं, फिर उसे वक्तव्य शब्द से कहते भी जाते हैं । यह तो स्पष्ट विरोध है कि "स्वर्ग और मोक्ष है भी और नहीं भी, नित्य भी है अनित्य भी।" तात्पर्य यह कि एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों का होना संभव ही नहीं है। अत: आर्हत मत का स्याद्वाद सिद्धान्त असंगत है।" शंकराचार्य के उक्त कथन के बारे में स्यावाद का दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के पूर्व यहां उन विद्वानों का अभिमत उपस्थित करती हूँ, जिन्होंने शांकर भाष्य और स्याद्वाद के बारे में तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करके अपने विचार व्यक्त किये हैं। प्रो. बलदेव उपाध्याय के अनुसार "स्याद्वाद संशयवाद का रूपान्तर नहीं है, आप उसे सम्भववाद कहना चाहते हैं, परन्तु "स्यात्" का अर्थ सम्भववाद करना भी न्यायसंगत नहीं है। स्यासि घटः अर्थात् स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से घट है ही, स्यानास्ति घटः परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा से घट नहीं है । स्यादवाद स्पष्ट रूप से यह कह रहा है कि 'स्यास्ति' यह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इस स्व चतुष्टयको अपेक्षा से है ही, तो यह निश्चित अवधारणा है अतः यह न सम्भववाद है और न अनिश्चयवाद Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद ८६ ही, किन्तु खरा अपेक्षायुक्त निश्चयवाद है । प्रो. फणिभूषण अधिकारी ने स्पष्ट लिखा है । " जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया, उतना अन्य किसी भी सिद्धान्त को नहीं। यहाँ तक कि वैदिक आचार्य शंकराचार्य भी दोषमुक्त नहीं है । उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया है । यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती थी किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार हो तो मैं भारत के इस महान विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रंथों की परवाह नहीं की ।" I पाश्चात्य विद्वान डो. थामस का कहना है- " " स्याद्वाद सिद्धान्त बडा गम्भीर है । यह वस्तु की भिन्न-भिन्न स्थितियों में अच्छा प्रकाश डालता है I स्याद्वाद का अमर सिद्धान्त दार्शनिक जगत् में बहुत ऊँचा सिद्धान्त माना गया है । वस्तुतः स्याद्वाद सत्य ज्ञान की कुंजी है । दार्शनिक क्षेत्र में स्याद्वाद को सम्राट का रूप दिया गया है। स्यात् शब्द को एक प्रहरी के रूप में स्वीकार करना चाहिए जो उच्चरित धर्म को इधर-उधर नहीं जाने देता है। यह अविवक्षित धर्म का संरक्षक है, संशयादि शत्रुओं का संरोधक व विभिन्न दार्शनिकों का संपोषक है ।" विद्वानों के अभिमतों को उपस्थित करने के बाद अब शंकराचार्य के कथन के बारे में स्याद्वाद का दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हूँ 1 वस्तु अनेकान्त रूप है, उसमें अनेक धर्म अपेक्षा - पूर्वक अविरोध रूप से रहते हैं, यह समझने की बात नहीं है। एक ही पदार्थ अपेक्षाभेद से परस्पर विरोधी अनेक धर्मो का आधार होता है । जैसे कि एक ही व्यक्ति अपेक्षाओं के भेद से पिता भी है, पुत्र भी है, गुरु भी है, शिष्य भी है, ज्येष्ट भी है, कनिष्ठ भी है, इसी तरह और भी अनेक उपाधिभेद अपनी-अपनी अपेक्षाओं से उसमें विद्यमान हैं । यही बात प्रत्येक वस्तु के बारे में भी समझनी चाहिए कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि विभिन्न अपेक्षाओं से उसमें अनन्त धर्म संभव हैं। केवल अपनी इच्छा से यह कह देना कि जो पिता है, वह पुत्र कैसे ? जो ज्येष्ठ है, वह कनिष्ठ कैसे ? जो गुरु है, वह शिष्य कैसे ? आदि प्रतितिसिद्ध और प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले स्वरूप का अपलाप ही माना जायेगा । अपनी एकांगी दृष्टिसे 1 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : प्रमुख दार्शनिकों की आलोचनाओं का निराकरण ८७ कुछ भी मान लिया जाये अथवा कह दिया जाये, किन्तु वस्तु में विद्यमान उन प्रतीतिसिद्ध धर्मो का अपलाप नहीं किया जा सकता है, उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता है। __ अब उक्त दृष्टांतो के प्रकाश में हम स्याद्वाद के कथन की परीक्षा करें। स्याद्वाद में परस्पर, विरुद्ध दो धर्मों को एक पदार्थ में मानने का कारण यह है कि उसमें एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य से विलक्षण तीसरा ही पक्ष स्वीकार किया गया है । क्योंकि स्याद्वाद में प्रत्येक वस्तु किसी अपेक्षा से नित्य और किसी अपेक्षा से अनित्य स्वीकार की गई है। यह नित्यानित्य रूप सब लोगों के अनुभव में आता है। जैन दर्शन में सात तत्त्वों का जो स्वरूप है, उनका उस स्वरूप से ही तो अस्तित्व है, किन्तु भिन्न स्वरूप से तो उनका नास्तित्व ही है। यदि जिस रूप से उनका अस्तित्व कहा जाता है, उसी रूप से नास्तित्व कहा जाये तो विरोध या असंगति हो सकती थी । स्त्री जिसकी पत्नी है, उसी की माता कही जाये तो विपरीत बात हो सकती है। ब्रह्म का जो स्वरूप नित्य, एक और व्यापक बताया जाता है उसी रूप से तो ब्रह्म का अस्तित्व माना जा सकता है, अनित्य, अनेक और अव्यापक रूप से तो नहीं । हम यहां एक प्रश्न पूछते हैं कि बह्म का नित्यादि रूप से जिस प्रकार अस्तित्व है, क्या उसी प्रकार अनित्य आदि रूप से भी उसका अस्तित्व है ? यदि ऐसा ही माना जाये तो क्या ब्रह्म का स्वरूप समझने योग्य रह जाता है ? और फिर क्या वह समझ लिया जायेगा? यदि नहीं, तो ब्रह्म नित्यादि रूप से सत् है और अनित्यादि रूप से असत् है, इस प्रकार वह अनेक-धर्मात्मक सिद्ध हो जाता है, वैसे ही जगत् के समस्त पदार्थ इस त्रिकालबाधित स्वरूप से व्याप्त हैं। प्रमाता और प्रमिति आदि के जो स्वरूप हैं, उनकी दृष्टि से ही तो उनका अस्तित्व होगा । अन्य स्वरूपों से उनका अस्तित्व कैसे हो सकता है? अन्यथा स्वरूपों में संकरता होने से जगत् की व्यवस्था का ही लोप हो जायेगा। सामान्यजन असमंजस में पड जायेंगे कि हम प्रमाता किसे कहें, प्रमिति क्या है और प्रमाण का लक्ष्य क्या है ? ___पंचास्तिकाय की संख्या पांच है; वार, तीन या दो नहीं, इसमें क्या विरोध है ? यदि यह कहा जाता है कि "पंवास्तिकाय पांच हैं, और पांच नहीं Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद है तो विरोध हो सकता था, पर अपेक्षाभेद से तो पंचास्तिकाय पांच है, चार आदि नहीं । दूसरी बात यह है कि सामान्य से पाँचो अस्तिकाय अस्तिकायत्वेन एक होकर भी विशेष की अपेक्षा तत्तद् व्यक्तियों की दृष्टि से पांच भी हैं, इसमें विरोध कैसा और विरोध करने का कारण क्या है ? स्वर्ग और मोक्ष अपने स्वरूप की दृष्टि से है, नरकादि की दृष्टि से नहीं, इसमें क्या आपत्ति है । स्वर्ग, स्वर्ग है, नरक तो है नहीं, मोक्ष, मोक्ष ही तो होगा, संसार तो नहीं होगा। इस बात को तो आपको भी मानना पड़ेगा और आप मानते ही होंगे। उपनिषदों में सत्, असत्, सदसत्, और अवक्तव्य - ये चारों पक्ष मिलते हैं । बौद्ध त्रिपिटक में भी चार पक्ष मिलते हैं । सान्तता और अनन्तता, नित्यता और अनित्यता आदि प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है। उसी प्रकार इन चारों पक्षों को भी अव्याकृत कहा गया है। उदाहरण के लिए निम्न प्रश्न अव्याकृत हैं - १. होति तथागतो परं मरणाति ? न होति तथागतो परं मरणाति ? . . होति च न होति च तथागतो परं मरणाति नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति ? सयं कतं दुक्खंति ? परं कतं दुक्खंति ? . सयं कतं परं कतं च दुक्खंति असयकारं अपरकारं दुक्खंति ? संजयवेलट्ठिपुत्त भी इस प्रकार के प्रश्नों का न 'हां' में उत्तर देता था न "ना" में। उसका किसी भी विषय में कुछ भी निश्चय न था । वह न हां कहता था न "ना" कहता, न अव्याकृत कहता, न व्याकृत कहता । किसी भी प्रकार का विशेषण देने में वह भय खाता था । दूसरे शब्दों में वह संशयवादी था। किसी भी विषय में अपना निश्चित मत प्रकट नहीं करता था। स्याद्वाद और संजयके संशयवाद में यह अन्तर है कि स्याद्वाद निश्चयात्मक है, जबकि संजय का संशयवाद अनिश्चयात्मक है। महावीर प्रत्येक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद : प्रमुख दार्शनिकों की आलोचनाओं का निराकरण ८९ प्रश्न का उत्तर अपेक्षाभेद से निश्चित उत्तर देते थे। वे न तो बुद्ध की तरह अव्याकृत कहकर यल देते थे, और न संजय की तरह अनिश्चय का बहाना बनाते थे । जो लोग स्याद्वाद को संजयवेलट्ठिपुत्त का संशयवाद समझते हैं, वे स्याद्वाद के स्वरूप को समझ नहीं पाए हैं । जैन दर्शन के आचार्यों ने स्पष्ट कहा है कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है । वह निश्चयवाद है, ज्ञानवाद है। संजय के अनिश्चयवाद का स्याद्वाद से कोई सम्बन्ध नहीं है। अनेकान्त के विरोधी तों पर गम्भीरता से विचार किया जाय तो पता लगता है कि विभिन्न दर्शनकारों ने जो अनेकान्त विरोधी तर्क प्रस्तुत किये हैं, उनमें उन दर्शनकारों ने अनेकान्त दर्शन के साथ न्याय नहीं किया है। मालूम होता है कि विरोधी दर्शनकारो ने अनेकान्तवाद को समझने का या तो प्रयत्न ही नहीं किया, या समझकर भी ऊपर ऊपर ही उसका विरोध किया । वैज्ञानिक मार्ग यह है कि हम अपने विरोधियों की बात को ठीक से समझें, फिर उस पर आलोचना करें यदि हम उसको ठीक न समझकर अथवा उसके द्वारा उक्त शब्दों के अर्थ को घुमाकर या उसके एक देश को लेकर हम उसका उपहास करने की दृष्टि से कुछ भी अर्थ करें, यह उचित मार्ग अथवा तत्त्वान्वेषण या तत्त्व जिज्ञासा का मार्ग नहीं है और यह संदर्भित चिन्तन के प्रति अन्याय भी यह पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है और यहां पुनः दुहराते हैं कि स्याद्वाद पदार्थों को जानने की एक दृष्टि है। स्याद्वाद स्वयं अंतिम सत्य नहीं है । वह हमें अंतिम सत्य तक पहुंचाने के लिए केवल मार्गदर्शक का काम करता है । स्याद्वाद से व्यवहार-सत्य के जानने में उपस्थित होनेवाले विरोधों का समन्वय किया जा सकता है । इसलिए जैन दर्शनकारों ने स्याद्वाद को व्यवहार-सत्य माना है। व्यवहार-सत्य के आगे जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य भी माना गया है जिसे पारिभाषिक शब्दों में केवलज्ञान कहा जाता है । स्याद्वाद में सम्पूर्ण पदार्थों का क्रम-क्रम से ज्ञान होता है। किन्तु केवलज्ञान सत्यप्राप्ति की उत्कृष्ट दशा है, उसमें सम्पूर्ण पदार्थ और उन पदार्थों के अनन्त पर्याय एकसाथ प्रतिभासित होते हैं । स्याद्वाद का क्षेत्र लोक-व्यवहार भी है और द्रव्यमात्र भी है, जिसका परिज्ञान सप्तभंगी द्वारा हो जाता है । स्याद्वाद हमें केवल जैसे-तैसे अर्धसत्यों को ही पूर्ण सत्य मान लेने के लिए बाध्य नहीं करता Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद 1 है । किन्तु सत्य के दर्शन के लिए अनेक मार्गो की खोज करता है । स्याद्वाद का कथन है कि मनुष्य की शक्ति सीमित है, इसीलिए वह आपेक्षिक सत्य को ही जान सकता है । हमें पहले व्यावहारिक विरोधों का समन्वय करके आपेक्षिक सत्य को प्राप्त करना चाहिए और आपेक्षिक सत्य को जानने के बाद हम पूर्ण सत्य केवलज्ञान का साक्षात्कार करने के अधिकारी हो सकते हैं । यद्यपि स्याद्वाद को विरोधी समालोचकों के भरपूर आक्षेप सहन करने पड़े हैं परन्तु भगवान् महावीर अनन्तधर्म वाली वस्तु के संबंध में व्यवस्थित और पूर्ण निश्चयवादी थे । उन्होंने न केवल वस्तु का अनेकान्त स्वरूप ही बताया किन्तु उसके जानने-देखने के उपाय नय दृष्टियां और उसके प्रतिपादन का प्रकार - स्याद्वाद भी बताया । स्याद्वाद न तो संशयवाद है, न कदाचित्वाद है, न किंचित्वाद है और न संभववाद या अभीष्टवाद ही है । वह तो " अपेक्षा से प्रयुक्त होने वाला निश्चयवाद है ।" इसीलिए स्याद्वाद संपूर्ण जैनेतर दर्शनों का उनकी दृष्टिको यथास्थान रखकर समन्वय करने में समर्थ हो सका है । पादटीप १. स्याद्वाद मंजरी श्लोक २८, पृ. १९५ उपाधिभेदोपहितं विरुद्धं नार्थेष्वसत्वं सदवाच्यते च इत्यप्रबुध्यैव विरोध भीताः...२८ ॥ २. प्रत्यक्षादिना प्रमाणेन अनन्तधर्मात्मकस्यैव सकलस्य प्रतीतेः.... घटः स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः विद्यते, पर द्रव्यक्षेत्रकालभावैः च न विद्यते । ३. ४. ५. ब्रह्मसूत्र, २१२१३३ शांकरभाष्य, २/२/३३ भारतीय दर्शन पृ. १७३ अनेकान्त व्यवस्था की अन्तिम प्रशस्ति । - षड्दर्शन समुच्चय, पृ.३२९ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्रकरण अनेकान्तवाद का आधुनिक दार्शनिकों पर प्रभाव विभिन्न दर्शनकारों ने किसी समस्या को हल करने एवं कहीं पर आने वाली विसंगति को दूर करने के लिए अज्ञात रूप से अनेकान्त दृष्टि या उसके समानधर्मा उपाय अपनाया है । - महामुनि पतंजलि का व्याकरण महाभाष्य में जो कथन है, उसको लें। पतंजलि का समय ईसा से पहले दूसरी शताब्दी है । महामुनि के सम्मुख यह प्रश्न आया कि किं पुनः नित्यः शब्दः आहोस्वित् कार्यः ?' शब्दनित्य है या अनित्य ? इसका उत्तर आगे वे देते हैं । "संग्रहे एतत्प्राधान्येन परीक्षितम् ॥"२ "नित्यो वा स्यात् कार्यो वा इति । तत्रोक्ताः दोषाः प्रयोजनान्यपि उक्तानि । तत्र त्वेषः निर्णयः यद्येव नित्यः अथापि कार्यः उभयाथापि लक्षणे प्रवर्त्यमिति ।" महाभाष्यकार समाधान करते हैं - "संग्रह" नामक व्याडि आचार्य कृत ग्रंथ में प्रधान रूप से इसका विचार किया गया है। इस विषय की परीक्षा करके, दोष तथा प्रयोजन कहने के बाद वहाँ यह निर्णय बतलाया गया है कि शब्द नित्य है और अनित्य भी है। दोनों प्रकार से लक्षण की प्रवृत्ति करनी चाहिए। - यहां पर शब्द की नित्यता एवं अनित्यता दोनों बतलाकर स्पष्ट रूप से महाभाष्यकार ने अनेकान्त दृष्टि को अपनाया है । .. आचार्य बलदेव उपाध्याय गीता के विषय में कहते हैं - . "गीता का अध्यात्म पक्ष जितना युक्तियुक्त तथा समन्वयात्मक है, उसका व्यवहार पक्ष भी उतना ही मनोरम तथा आदरणीय है..... इन विद्वान भाष्यकारों की युक्तियां अपने दृष्टिकोण से नितान्त सारगर्भित हैं, इसे कोई भी आलोचक मानने से नहीं हिचक सकता, परंतु पूर्वक्त मतों में गीता के उपदेशों Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद की समग्रता तथा व्यापकता पर पूर्णतः ध्यान नहीं दिया गया है । शास्त्रों ने मानवी प्रकृति की भिन्नता का ध्यान रख चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए त्रिविध उपायों की व्यवस्था की है । चिन्तन का प्रेमी साधक ज्ञानमार्ग से, सांसारिक विषयों की अभिरुचि वाला पुरुष कर्मयोग से तथा अनुरागादि मानसिक वृत्तियों का विशेष विकास वाला व्यक्ति भक्ति की सहायता से अपने उद्देश्य पर पहुंच सकता है। इन भिन्न-भिन्न मार्गों के अनुयायी साधक अपने ही मार्ग की विशिष्टता तथा उपादेयता पर जोर देते थे तथा अन्य मार्गों को नितान्त हेय बतलाते थे । गीता के अध्याय से ही पता चलता है कि उस समय भारतवर्ष में चार प्रकार के पृथक् - पृथक् मार्ग प्रचलित थे ।"३ इन चारों के नाम हैं कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग, ध्यानमार्ग तथा भक्तिमार्ग । जो जिस मार्ग का पथिक था, वह उसे ही सबसे अच्छा मानता था, उसकी दृष्टि में मुक्ति का दूसरा मार्ग था ही नहीं, परन्तु भगवान् ने गीता का प्रचार कर इन विविध साधनों का अपूर्व समन्वय कर दिया है, जिसका फल यह है कि जिस प्रकार प्रयाग में गंगा, यमुना तथा सरस्वती की धाराएँ भारतभूमि को पवित्र करती हुई त्रिवेणी के रूप में बह रही हैं, उसी प्रकार कर्म, ज्ञान, ध्यान तथा भक्ति की धाराएँ गीता में मिलकर तत्त्वजिज्ञासुओं की ज्ञानपिपासा मिटाती हुई भगवान् की ओर अग्रसर हो रही हैं। यह समन्वय गीता की अपनी विशिष्टता हैं।" इस कथन में बतलाया गया है कि गीता में कर्म, ध्यान, ज्ञान तथा भक्ति इन चार मार्गों का समन्वय किया गया है । इस कथन में स्पष्ट रूप से अनेकान्त की छाया है। योगी आनन्दघन कवि का यह प्रसिद्ध पद - "राम कहो रहमान कहो, कोउ कान्ह कहो महादेव री पारसनाथ कहो कोई ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री ॥ भाजनभेद कहावत नाना एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कल्पनारोपित आप अखण्ड स्वरूप री ॥" "निज पद रमे राम सो कहिए रहम करे रहमान री । कर्षे कर्म कान्ह सो कहिए ब्रह्म चिन्हें सो ब्रह्म री ॥" देखए. इन दोनों में पूर्वोक्त श्लोक के समान अनेकान्त के समान Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद का आधुनिक दार्शनिकों पर प्रभाव अनेक विकल्पात्मक कथन हैं। हेगेल महोदय का एक कथन और देखिए - "प्रत्येक वस्तु भाव और अभाव का मेल है। इसके अस्तित्व का अर्थ ही यह एकसाथ है और "नहीं" है । भाव में ही अभाव विद्यमान है ।"५ यह भावाभावात्मक वस्तु को मानना स्पष्ट अनेकान्त के सदृश है । अनेकान्तवाद अस्तित्व, नास्तित्व आदि उभय धर्मों का समन्वित रूप है । स्पष्ट ही अनेकान्त के समान कथन यहाँ है। अब हम प्रसिद्ध चिन्तक श्री कबीर का उद्धरण लें - "साकार ब्रह्म मेरी मां है, और निराकार ब्रह्म मेरे पिता । मैं किसे छोडूं, किसे स्वीकार करूँ ? तराजू के दोनों पलडे बराबर भारी हैं ।"६ यहां एक ही ब्रहम में अवच्छेदक भेद से साकारत्व और निराकारत्व, पितृत्व एवं मातृत्व दो विशुद्ध धर्मों को माना गया है । यह स्पष्ट ही अनेकान्त __ अब हम आध्यात्मिक जगत के वर्तमान महान चिन्तक श्री रामकृष्ण परमहंस के कार्य पर दृष्टि डालते हैं। उनके विचारों पर अनेकान्त का काफी प्रभाव परिलक्षित होता है । डो. हृदयनारायण मिश्र लिखते हैं - "परम सत्ता संबंधी अपने विचारों के लिए रामकृष्ण शंकर के अद्वैत और रामानुज के विशिष्टाद्वैत दोनों से प्रभावित जान पड़ते हैं।" "वास्तव में रामकृष्ण ने इन दोनों विचारधाराओं में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया ।" . ऊपर बतलाया गया है कि रामानुज के सिद्धान्त पर अनेकान्त का स्पष्ट प्रभाव है। श्री रामकृष्ण ने शंकर के साथ रामानुज के विशिष्टाद्वैत को भी अंगीकार किया है । यह दो विभिन्न मतों का समावेश एवं समन्वय बिना अनेकान्त के प्रभाव के नहीं हो सकता । पश्चिम के सुप्रसिद्ध चिन्तक श्री रोमां रोलां ने श्री रामकृष्ण के शब्दों को उदधृत किया है - "मेरी देवी मां निरपेक्ष से भिन्न नहीं है । वह एक ही समय में एक Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद और अनेक दोनों हैं और एक और अनेक दोनों से परे हैं ।" यहां एक ही देवी मां में एक ही समय में एकत्व, अनेकत्व तथा इन दोनों से परत्व बतलाया है। यह स्पष्ट अनेकान्तवाद की दिशा है। अब स्वामी विवेकानन्द को लें । इनके भी चिन्तन एवं विचारों में अनेकान्त की समानधर्मी धारा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है । डॉ. मिश्रा लिखते हैं - "एक सच्चे वेदान्ती की भांति विवेकानन्द ने ब्रह्म और जीव की एकता को भी स्वीकार किया है। वे मानते हैं कि हमारी आत्मा भोक्ता व कर्ता के रूप में ब्रह्म से तादात्म्य नहीं रखती, किन्तु सार रूप में जीव ब्रह्म ही है।" इस कथन में स्वामी विवेकानंद ने अपेक्षाभेद या अवच्छेदक भेद से जीव को ब्रह्म से भिन्न एवं अभिन्न दोनों बतलाया है। सामान्यतया जीव एवं ब्रह्म एक हैं, लेकिन कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व की अपेक्षा से भिन्न भी हैं । यहां स्पष्ट अनेकान्त का प्रभाव है। .. श्री खीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों का अवलोकन करिए । श्री मीश्रा. लिखते हैं - "माया की अवधारणा शंकर और टैगोर कुछ भिन्न प्रकार से करते हैं। शंकर का कहना था कि माया न सत् है, और न असत् । टैगोर कहते हैं कि माया है और नहीं भी है। यह सिद्धान्त वल्लभ प्रतिपादित माया से अधिक साम्य रखता है। ससीमता और अनेकता का अनुभव होने के कारण माया का अस्तित्व मानना पडता है। अनन्त सत्ता की अखंडता का बोध हो जाने पर माया विलीन हो जाती है । इसलिए कहा जाता है कि वह नहीं है ।"१० उपर्युक्त कथन में श्री टैगोर ने माया का अस्तित्व एवं नास्तित्व दोनों बतलायें हैं और उनमें कारण हैं - अपेक्षाभेद । यह स्पष्ट अनेकान्त दृष्टि से प्रतिपादित किया हुआ प्रतीत होता है। अब महात्मा गांधी के विचारों को लीजिए । वे लिखते हैं - "उनके लिए वह एक है और अनेक हैं । अणु से भी छटा और हिमालय से भी बड़ा है। वह जल के एक बिन्दु में समा सकता है और सात Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद का आधुनिक दार्शनिकों पर प्रभाव समुद्र मिलकर उसकी समानता नहीं कर सकतें हैं । १११ उपर्युक्त कथन में ईश्वर को एक एवं अनेक, छोटा एवं बड़ा बतलाया गया है। परस्पर विरुद्ध भासित होने वाले धर्मों को अपेक्षाभेद से एक ही ईश्वर में निरूपित किया गया है । यह स्पष्ट अनेकान्त का चिन्तन है । ९५ श्री दिनकर गाँधीजी के विचारों के विषय में लिखते हैं "अनेकान्त जैन दर्शनों में सोया हुआ था। भारतवासी जैसे अपने दर्शन की अन्य बातें भूल चुके थे, वैसे ही अनेकान्तवाद का यह दुर्लभ सिद्धान्त भी उनकी आँखो से ओझल हो गया था । किन्तु नवोत्थान के क्रम में जैसे हमारे अनेक प्राचीन सत्यों ने दुबार जन्म लिया, वैसे ही गाँधीजी में आकर अनेकान्तवाद ने भी नवजीवन प्राप्त किया । संपूर्ण सत्य क्या है - इसे जानना बड़ा ही कठिन है । तात्त्विक दृष्टि से यही कहा जा सकता है कि प्रत्येक सत्यान्वेषी सत्य के जिस पक्ष के दर्शन करता है, वह उसी की बातें बोलता है, इसीलिए सत्य के मार्ग पर आये हुए व्यक्ति की सबसे बडी प्रधानता यह होती है कि वह दुराग्रही नहीं होता, न वह यही कहता है कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वही सत्य है । अपने ऊपर एक प्रकार की श्रद्धा तथा यह भाव कि कदाचित् प्रतिपक्षी का मत ठीक हो, ये अनेकान्तवादी मनुष्य के प्रमुख लक्षण हैं ।" अब हम श्री रामधारी सिंह दिनकर के विचारों को देखें । वे लिखते हैं - "जैन दर्शन केवल शारीरिक अहिंसा तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत वह बौद्धिक अहिंसा को भी अनवार्य बताता है। यह बौद्धिक अहिंसा ही जैन दर्शन का अनेकान्तवाद है ।१२ 1 अनेकान्तवाद का दार्शनिक आधार यह है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण- पर्याय और धर्मो का अरूप पिंड है। वस्तु को हम जिस कोण से देख रहे हैं, वस्तु उतनी ही नहीं है । उसमें अनन्त दृष्टिकोणों से देखे जाने की क्षमता । उसका विराट स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है । हमें जो दृष्टिकोण विरोधी मालूम होता है उस पर ईमानदारी से विचार करें तो उसका विषयभूत धर्म भी वस्तु में विद्यमान है । चित्त से पक्षपात की दुरभिसंधि निकालें और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय को भी सहिष्णुतापूर्वक खोजें, वह भी वहीं लहरा रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिंसा साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना ही शीघ्र अपनायेगा विश्व में शान्ति भी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी । आधुनिक विचारक संत विनोबा भावे अनेकान्त के विषय में लिखते "अपना सत्य तो सत्य है ही किन्तु दूसरा जो कहता है, वह भी सत्य है। दोनों सत्य मिलकर पूर्ण सत्य होता है । यही महावीर का स्याद्वाद है ।१३ गांधीवादी विचारक काका कालेलकर लिखते हैं - "मेरे पास जो 'समन्वय दृष्टि' है यह मैं जैनियों के " अनेकान्तवाद" से सीखा हूँ । अनेकान्तवाद ने मुझे बौद्धिक अहिंसा सिखाई, इसके लिए मैं जैन दर्शन का ऋणी हूँ ।"१४ अब अन्त में वाचस्पति गैरोला के विचार देखें । वे लिखते हैं - "प्रत्येक निष्पक्ष विचारक को लगेगा कि स्याद्वाद ने दर्शन के क्षेत्र में विजय प्राप्तकर अब वैज्ञानिक जगत् में विजय पाने के लिए सापेक्षवाद के रूप में जन्म लिया है । ११५ "स्याद्वाद का जितना संबंध आध्यात्म से है, उतना ही भौतिक वस्तु से भी ॥ १६ “जैनों का अनेकान्तवाद कुछ ऐसा गढा हुआ सिद्धान्त नहीं है, जिसमें जैन दर्शन की वैयक्तिक दृष्टि का आभास मिलता हो । वह तो लोकदृष्टि से जितना उपयोगी है विचार की दृष्टि से भी उतना ही उपयोगी है ।" १७ पूर्व और पाश्चात्य दर्शनों में स्याद्वाद का मूल्य अपूर्व है । स्याद्वाद सुख, शान्ति और सामंजस्य का प्रतीक है। विचार के क्षत्र में अनेकान्त, वाणी के क्षेत्र में स्याद्वाद और आचरण के क्षेत्र में अहिंसा ये सब भिन्न-भिन्न दृष्टियों से लेकर एक रूप ही है । जो दोष नित्यवाद में है, वे समस्त दोष अनित्यवाद में उसी प्रकार से हैं अर्थ-क्रिया न नित्यवाद में बनती है, न अनित्यवाद में । अतः दोनों वाद परस्पर विध्वंसक है । इसी कारण स्याद्वाद का स्थान सर्वश्रेष्ठ है । हिंसा, अहिंसा, सत्य, असत्य आदि का निर्णय इसके द्वारा सरलता से किया 1 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद का आधुनिक दार्शनिकों पर प्रभाव जा सकता है । मानव, आचरण को शुद्ध कर, स्याद्वाद रूप वाणी, द्वारा सत्य की स्थापना करके, अनेकांत रूप, वस्तु-तत्त्व प्राप्त कर आत्म-साक्षात्कार कर सकता है, अन्तः चतुष्ट्य और सिद्धान्त की प्राप्ति संभव हो सकती है। प. दलसुखभाई मालवणिया लिखते हैं कि - "निस्सन्देह सच्चा स्याद्वादी सहिष्णु होता है । वह राग-द्वेष आत्मा के विकारों पर विजय प्राप्त करने का सतत प्रयास करता है; दूसरे के सिद्धान्तों को आदर-दृष्टि से देखता है और माध्यस्थ-भाव से सम्पूर्ण विरोधों का समन्वय करता है। पादटीप १. व्याकरणमहाभाष्य भूमिका - (म.म.गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी पृ. २७, चौखम्बा सन् १९५४। २. व्याकरणमहाभाष्य १/१/१, पृ. ३७ गीता १३/२४/२५ ४. भारतीय दर्शन । बलदेव उपा. । पृ. ६०/६१/६२ ५. पश्चिमी दर्शन - डो. दीवानचंद्र । पृ. १८० वी.एस.नरवणे के "मार्डन इंडिया थाट' का हिन्दी अनुवाद, पृ. ७५ समकालीन दार्शनिक चिन्तन । डो. मिश्र । पृ. ८८ ! द्वि.संस्करण । The life of Ramkrishna by Romain Rolland P.67. समकालीन दार्शनिक चिन्तन पृ. ९४ । समकालीन दर्शनिक चिंतन पृ. १०३ । ११. समकालीन दर्शनिक चितन पृ. १०५ १२. संस्कृति के चार अध्याय पृ. १३५ १३. अमर भारती : जून १९७२ अंतिम पृष्ठ । १४. जैन दर्शन - जगत समन्वय विशेषांक १९७२, पृ. २११ । १५. भारतीय दर्शन (गैरोला पृ. १२०) १६. वही, पृ. १२० । १७. वही, पृ. १२५। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार कोई भी विशिष्ट दर्शन हो या धर्म-पन्थ, उसकी आधारभूत-उसके मूल प्रवर्तक पुरुषकी एक खास दृष्टि होती है; जैसे कि शंकराचार्य की अपने मत निरूपण में 'अद्वेत दृष्टि' और भगवान बुद्ध की अपने धर्म-पन्थ प्रवर्तन में 'मध्यम प्रतिपदा दृष्टि' खास दृष्टि है । जैनदर्शन भारतीय दर्शनों में एक विशिष्ट दर्शन है और साथ ही एक विशिष्ट धर्म-पन्थ भी है, इसलिये उसके प्रवर्तक और प्रचारक मुख्य पुरुषों की एक खास दृष्टि उनके मूल में होनी ही चाहिए और वह है भी! यही दृष्टि अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्मात्मक विविधताओं से युक्त होती है। किसी एक दृष्टिकोण से देखने पर हम किसी वस्तु के विषय में अपना अभिप्राय नहीं दे सकते । किसी भी विषय का निर्णय लेने से पहले हमें उसे सभी दृष्टिकोणों से तलाश कर लेना चाहिये । . ___ महावीर के अनेकान्तवाद का यही अर्थ है कि कोई दृष्टि पूरी नहीं है, कोई दृष्टि विरोधी नहीं है, सब दृष्टियाँ सहयोगी है और सब दृष्टियाँ किसी बड़े सत्य में समाहित हो जाती है। अर्थात् एक ही वस्तु या विचार को एक तरफ से न देखकर उसे चारों और से देख लिया जाय, फिर किसी को ऐतराज भी न रहेगा। इस दृष्टिकोण को ही महावीर ने अनेकान्तवाद या स्याद्वाद कहा । आइन्स्टीन का सापेक्षवाद और भगवान बुद्ध का विभज्यवाद इसी भूमिका पर खड़ा है। अनेकान्तवाद इन दोनों का व्यापक या विकसित रूप है। इस भूमिका पर ही आगे चलकर सगुण और निर्गुण के वाद-विवाद को, ज्ञान और भक्ति के झगडे को सुलझाया । आचार में अहिंसा की और विचार में अनेकान्त की प्रतिष्ठा कर महावीर ने अपनी दृष्टि को व्यापकता प्रदान की। . ___अनेकान्त दृष्टि यदि आध्यात्मिक मार्ग में सफल हो सकती है और अहिंसा का सिद्धान्त यदि आध्यात्मिक कल्याण साधक हो सकता है तो यह भी मानना चाहिये कि ये दोनों तत्त्व व्यावहारिक जीवन का श्रेय अवश्य कर Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ९९ सकते है; क्योंकि जीवन व्यावहारिक हो या आध्यात्मिक - पर उसकी शुद्धि के स्वरूप में भिन्नता हो ही नहीं सकती और हम यह मानते हैं कि जीवन की शुद्धि अनेकान्त दृष्टि और अहिंसा के सिवाय अन्य प्रकार से हो ही नहीं सकती। इसलिये हमें जीवन व्यावहारिक या आध्यात्मिक कैसा ही पसंद क्यों न हो पर यदि उसे उन्नत बनाना इष्ट है तो उस जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनेकान्त दृष्टि को तथा अहिंसा तत्त्व को प्रज्ञापूर्वक लागू करना ही चाहिये । आज विश्व में, देश में, समाज में व साहित्य में ऐसे चिन्तन की आवश्यकता नहीं है, जो हमें भिन्न-भिन्न करके बिखेर दे । आज तो सर्वत्र ऐसे चिन्तन एवं विचारों की आवश्यकता है कि जो अलग व्यक्तिओं को जोड दे, उनमें एकता की धारा प्रवाहित कर दे । और उसमें समरसता, समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित कर दे । इसी प्रकार के चिन्तन एवं विचारों से विश्व, देश, समाज एवं हम जीवित रह सकते हैं। जीवन में और उसके विकास में सबको परस्पर सहयोग की आवश्यकता है । यह सब कार्य अनेकान्त के दृष्टिकोण से ही संभव है । विभिन्नता में एकता, समरसता, सहिष्णुता, सामंजस्य एवं समन्वय स्थापित कर सकता है । आज के युग में तो इसकी बहुत आवश्यकता है । आजकल के जगत की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि अपनेअपने परम्परागत वैशिष्टय को रखते हुए भी विभिन्न मनुष्य जातियाँ एक दूसरे के समीप आवें और उनमें एक व्यापक मानवता की दृष्टि का विकास हो । अनेकान्त सिद्धान्तमूलक समन्वय की दृष्टि से ही यह हो सकता है । आज विश्व में आन्तर्राष्ट्रिय क्षितिज में वैचारिक तनाव बहुत अधिक है। आंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रधानतया दो विचार धाराएँ हैं - एक साम्यवाद और दूसरा पूंजीवाद । वास्तव में साम्यवाद की विरोधी धारा पूँजीवाद है। पूंजीवादी देशों ने प्रजातन्त्र को अपना रखा है। बहुत समय से इन दोनों प्रकार के राष्ट्रों में काफी तनाव है । कई बार संघर्ष के अवसर आ चुके हैं। लेकिन दोनों के पास भयंकरतम संहार करने वाले अस्त्र एवं शस्त्र है। इसलिये दोनों ही संघर्ष से कतराते हैं और युद्ध से दूर रहकर सामंजस्य एवं समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । भयंकरतम संहारक अस्त्र शस्त्र वाले युग में सहअस्तित्व, सहिष्णुता और वैचारिक उदारता की अनिवार्य आवश्यकता है । यही दोनों देश Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद १०० कर रहे हैं और सहअस्तित्व का मार्ग ढूँढते जा रहे हैं । ऐसे समय में अनेकान्त की आवश्यकता सर्वोपरि है । विश्व में विश्व शान्ति कायम रखना है तो अनेकान्त से ही यह रह सकती है । इसी प्रकार समाज में और हमारे देश में भी अनेकान्त की विचार धारा एवं अनेकान्तिक दृष्टिकोण की अधिक आवश्यकता है । समाज में और हमारे देश में विभिन्न धर्म, विभिन्न जाति, विभिन्न भाषा के लोग रहते हैं । यदि उन विभिन्नताओं में एकता का सूत्र न रहे तो समाज में और देश में शान्ति कायम रहना कठिनतम हो जाता है । यह एकता का सूत्र कायम रखना अनेकान्त दृष्टि से ही हो सकता है । विभिन्नता में एकता रखना अनेकान्त का ही कार्य है । इस एकता के बल पर ही देश विकसित होता है । भारत में आज तक पारस्परिक संघर्ष हुए हैं, उनमें धार्मिकता की अंधश्रद्धा अधिक प्रेरक रही है। यदि इस क्षेत्र में भी अनेकांत की भावना आ जाय तो भविष्य में कभी भी इस प्रकार के संघर्ष होने की नौबत न आ सके। अनेकान्त केवल दार्शनिक चिन्तन एवं कथन की प्रणाली ही नहीं है, अपितु प्रतिदिन जीवन व्यवहार में भी हम अनेकान्त का प्रायोगिक रूप देख सकते हैं । अनेकान्त वाद स्वस्थ चिन्तन की प्रक्रिया के साथ-साथ स्वस्थ आचार की भी प्राथमिक भूमिका है । " जैन दर्शन की विश्व को बडी भारी देन अहिंसावाद है, जो कि वास्तव में दार्शनिक भित्ति पर स्थापित अनेकान्तवाद का ही नैतिक शास्त्र की दृष्टि से अनुवाद का जा सकता है। धार्मिक दृष्टि से यदि अहिंसावाद को ही सर्व प्रथम स्थान देना आवश्यक हो तो हम अनेकान्तवाद को ही उसका दार्शनिक दृष्टि से अनुवाद कह सकते हैं । विचारों की संकीर्णता या असहिष्णुता ईर्ष्या-द्वेष की जननी है । इस असहिष्णुता को हम किसी अंधकार से कम नहीं समझते। आज जो विश्व में अशांति है, उसका मुख्य कारण यही विचारों की संकीर्णता है । इस संकीर्णता को अनेकान्तवाद मिटाता है । समन्वय का दृष्टिकोण आज जगत् के व्यवहार में अनिवार्य बन गया Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार १०१ है । एक देश दूसरे देश से, एक वाद दूसरे वाद से, एक नीति दूसरी नीति से, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से एकदम भिन्न नहीं है । यही भिन्नता की वृत्ति संघर्ष का मूल है । अपितु किसी दृष्टि से अभिन्न भी है। विश्व में कोई दो पदार्थ, दो वाद, दो व्यक्ति, दो समुदाय एकान्तिक रूप से एकदम भिन्न नहीं हो सकते । उनकी भिन्नता में भी कोई आधारभूत अभिन्नता अवश्य रहती है। इसी सनातन सत्य का प्रयोगात्मक रूप आंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर संयुक्त राष्ट्र संघ के रूप में आया । हिरोशिमा और नागासाकी पर अणुबम के विस्फोट के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ। तृतीय विश्वयुद्ध की प्रलयकारी विभीषिकाओं को सोचते हुये विश्व के समस्त राष्ट्रों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की। आंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में यह महत्त्वपूर्ण अवसर था, जब पूँजीवादी और साम्यवादी जैसी विरोधी विचारधाराओं के राष्ट्रों ने एकसाथ बैठने का तथा विश्व साहचर्य के विकास का एक समान धरातल चुना। उग्र मतभेदों में भी क्रियात्मक साम्य का यह एक अद्वितीय संगठन है, उसकी प्रभावशीलता का मूल्यांकन तो इस बात से ही हो जाता है कि विश्व का प्रत्येक राष्ट्र उसका सदस्य बने रहने में ही अपना गौरव एवं सुरक्षितता समझाता है। यहीं बैठकर सभी राष्ट्र अपने विचार भेदों में समन्वय का मार्ग ढूंढने का प्रयत्न करते हैं । भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहरलाल नहेरु ने अहिंसा एवं अनेकान्त को अपनी निति में सदा महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनका 'पंचशील' सिद्धान्त का निर्माण इस दिशा में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक उपलब्धि है। अनेकान्त की छाया में विकसित सह-अस्तित्व का सिद्धान्त विश्व शान्ति का सबसे सुगम उपाय एवं श्रेष्ठ पथ माना जा रहा है। इसको अपनाये बिना विश्व शान्ति असंभव है। सह-अस्तित्व का प्रयोजक, विभिन्न विभिन्न विचारधाराओं में भी एकता लाने वाला, विभिन्न विभिन्नताओं में समरसता उत्पन्न करने वाला अनेकान्त सिद्धान्त विश्व शान्ति के लिये अनिवार्य है। भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ मनीषी डॉ. रामधारीसिंह दिनकर का स्पष्ट अभिमत है कि "स्यादवाद का अनुसंधान भारत की अहिंसा-साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना शीघ्र अपनाएगा विश्व में शान्ति उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी। . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद आधुनिक विचारक संत बिनोबा भावे अनेकान्त के विषय में लिखते "अपना सत्य तो सत्य है ही किन्तु दूसरा जो कहता है, वह भी सत्य हैं। दोनों सत्य मिलकर पूर्ण सत्य होता है । यही महावीर का स्याद्वाद है।" गांधीवादी विचारक काका कालेलकर लिखते हैं - "मेरे पास जो समन्वय दृष्टि है यह मैं जैनियों के 'अनेकान्तवाद' से सीखा हूँ। अनेकान्तवाद ने मुझे बैद्धिक अहिंसा सिखाई, इसके लिये मैं जैन दर्शन का ऋणी हूँ।" Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ सूचि अष्ट सहस्त्री अध्यात्मसार अनेकान्तवाद : एक परिशीलन - विजयमुनिशास्त्री अनेकान्त है तीसरा नेत्र : मुनि महाप्रज्ञजी अनेकान्त और स्याद्वाद : उदयचन्द्रजी संदर्भ सूचि अनेकान्त स्याद्वाद और सप्तभंगी एक चिन्तन : सागरमल जैन अनेकान्तवाद-1 द- एक समीक्षात्मक अध्ययन : राजेन्द्रलाल डोसी - यशोविजयजी अनेकान्त व्यवस्था अनेकान्त जयपताका : एच. आर. कापडिया अभिधान राजेन्द्रकोश भाग - ८, राजेन्द्रसूरि अमर भारतीय श्रमण संस्कृति विशेषांक - लेख 'अनेकान्त की प्राचीनता' आगम युग का जैन दर्शन : दलसुख मालवणिया आत्म मीमांसा - समन्तभद्र आचारांगसूत्र इन्डियन फिलासफी इशोपनिषद दीघनिकाय चार्वाक दर्शन छान्दोग्य उपनिषद जैन दर्शन : महेन्द्रकुमार जैन दर्शन : मोहनलाल महेता जैनदर्शन मनन और मीमांसा - मुनि नथमलजी तत्त्वार्थसूत्र : उमास्वाति दर्शन और चिंतन - पं. सुखलालजी सिंघवी अनांगसूत्र न्यायवतार वार्तिकवृति - दलसुख मालवणिया न्याय खण्डन खाद्य पुरुषार्थ सिद्धयुपाय - अमृतचन्द्रसूरि १०३ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद पंचास्तिकाय - अमृतचन्द्रसूरि की टीका प्रमाणनय तत्त्वालोक - वादिदेवसूरि पश्चिमी दर्शन : दीवानचन्द पाश्चात्य दर्शन का आधुनिक युग पार्श्वनाथ के चतुर्याम - धर्मानन्द कौशांबी ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य ब्रह्मसूत्र निबार्क भाष्य बौद्धदर्शन : शर्बेत्सकाय भगवतीसूत्र भगवत गीता भारतीय दर्शन - राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति में जैन दर्शन का योगदान : हीरालाल भारतीय चिन्तन परम्परा : दामोदर भारतीय दर्शन : गेरोल भारतीय दर्शनों का समन्वय - डॉ. आदित्यनाथ झा माध्यमिक वृत्ति मज्झिमनिकाय रत्नाकरावतारिका वेदिक इंडेक्स श्रमण संस्कृति का विकास एवं विस्तार - डॉ. पुष्यमित्र शास्त्रवार्ता समुच्चय - हरिभद्र शिवमहिमा स्त्रोत षड्दर्शन समुच्चय - हरिभद्र षड्दर्शन समुच्चय - गुणरत्नसूरि टीका षड्दर्शन समुच्चय - मालवणिया सन्मति तर्क सूत्रकृतांग सप्तभंगीतरंगिणी : विमलदास समयसार स्याद्वादमंजरी : जगदीशचन्द्र शास्त्री Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ सूचि स्याद्वाद स्याद्वाद भगवत प्रवचननय स्याद्वाद : महावीरसिंह मूर्डिया संस्कृति के चार अध्याय - दिनकर समदर्शी आचार्य हरिभद्र - पं. सुखलालजी सिंघवी समवायांगसूत्र Conversation of Gandhiji : C. P. Shukla Dialogues of Plato Page #122 --------------------------------------------------------------------------  Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr. Pritam Singhve has been researching in Jainology. She is auther of several works like 'Hindi Jain Sahitya mein Krishna Kā Svarup-vikās.' 'Samatvayog: Ek Samanvay Dristi' 'Anekānta-vāda as the basis of Equanimity, Tranquality and Synthesis of Opposite-Viewpoits'. 'Aņupeha, 'Sadayvatsacarita' of Harṣavardhanagani and Anamda. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Parsva International Series 1. बारहक्खर-कक्क of महाचंद्र मुनि 1997 Ed. H. C. Bhayani, Pritam Singhvi . 2. गाथामंजरी Ed. H. C. Bhayani 1998 3. दोहाणुपेहा Pritam Singhvi 1998 अनेकान्तवाद : Pritam Singhvi सदयवत्स-कथानक of Harsavardhanagani 1999 Ed. Pritam Singhvi आणंदा of आनंदतिलक 1999 Ed. H. C. Bhayani, Pritam Singhvi. दोहापाहुड 1999 Ed. H. C. Bhayani, R. M. Shah, Pritam Singhvi 7.