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अनेकान्तवाद : समन्वय शान्ति एवं समभाव का सूचक . ४७ युक्तियाँ उसे ले जाती है । अनेकान्त दर्शन यही सिखाता है कि युक्ति-सिद्ध वस्तु-स्वरूप को ही शुद्ध बुद्धि से स्वीकार करना चाहिए । बुद्धिका यही वास्तविक फल है । जो एकान्त के प्रति आग्रहशील है और दूसरे सत्यांग को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं है, वह तत्त्व रूपी नवनीत नहीं पा सकता।
गोपी नवनीत तभी पाती है जब वह मथानी की रस्सी के एक छोर को खींचती है और दूसरे छोर को ढीला होड़ती है। अगर वह एक ही छोर को खींचे और दूसरे को ढीला न छोड़े तो नवनीत नहीं निकल सकता । इसी प्रकार जब एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को प्रधान रूप से विकसित किया जाता है तभी सत्य का अमृत हाथ लगता है। अतएव एकान्त के गन्दले पोखर से दूर रह कर अनेकान्त के शीतल स्वच्छ सरोवर में अवगाहन करना ही उचित है।
स्याद्वाद का उदार दृष्टिकोण अपनाने से समस्त दर्शनों का सहज ही समन्वय साधा जा सकता है ।
आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट किया है, "स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ही वस्तुतत्त्व के प्रकाशक हैं । भेद इतना ही है कि केवलज्ञान वस्तु का साक्षात् ज्ञान कराता है जबकि स्याद्वाद श्रुत होने से असाक्षात् ज्ञान कराता है।"
स्याद्वाद का सुव्यवस्थित निरूपण जैन-दर्शन ने किया, यह ठीक है, किन्तु यह नियम तो जगत् जितना ही प्रात्तोन तथा व्यापक है । मल्लिषेण के कथानुसार स्याद्वाद् संसारविजयी और निष्कण्टक राजा है । "एवं विजयिनि निष्कण्टके स्याद्वादमहानरेन्द्रे" इस सिद्धान्त का उल्लेख ऋग्वेद तक में मिलता है "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' । (ऋग्वेद १/१६४/४६) एक ही सत् तत्त्व का विप्र विविध प्रकार से वर्णन करते हैं - यह स्याद्वाद का बीजवाक्य है । जैन दर्शन की दृष्टि के अनुसार एक ही पदार्थ के विपरीत वर्णन अपनी अपनी दृष्टिसे सच्चे हैं । पारिभाषिक शब्दों में कहा जाय तो प्रत्येक पदार्थ में "विरुद्धधर्माश्रयत्व" है । इस प्रकार का परस्पर विरोधी वर्णन उपनिषद में भी एक जगह आता है। आत्मा के विषय में उपनिषदकार कहते हैं "वह चलता है, वह स्थिर है, वह दूर है, वह समीप है, वह सर्वान्तर्गत है, वह सभी से बाहर है"- "तदेजति तन्नजति तद्रे तदन्तिके । तदन्तरस्य